‘सुता चली ससुराल’ के तीसरे भाग में स्त्री और पुरुष के प्राकृतिक गुणों की चर्चा की गयी थी। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का चौथा और अंतिम भाग।
विवाह होने पर स्त्री किसी की कन्या न होकर पत्नी हो जाती है (कन्यात्व का दान पाणिग्रहण के समय होता है)। पिता पुरुष है – तर्कप्रधान, जड़, महत्वाकांक्षी और भावुकता के अपेक्षाकृत अभाव वाला (यहाँ सबके प्रति सामान्यतः भावुकता की बात है केवल पिता की अपनी पुत्री के प्रति नहीं)! परिस्थिति का संतुलन, लचीलापन, कन्या से मातृत्व में परिवर्तन, गृहव्यवस्था में परिवर्तन, संतान से गृह स्वामिनी होने का भाव – यह सब पुत्री एक स्त्री होने के कारण बहुत सहजता से जी लेगी परंतु पिता और पति इतने सारे परिवर्तन पुरुष होने के कारण इतनी सहजता से नहीं जी पाएंगे।
परिवार, पीढ़ी और अंततः संस्कृति सहज और सुचारू रूप से कैसे चले, ये ही विचार कर हमारे अति ज्ञानी पूर्वज ऋषि-मुनियों ने ऐसी कालातीत (timeless) परम्पराएँ स्थापित करी हैं जो अत्यंत दूरगामी परिणाम देने वाली, सशक्त और समाज को सदैव विकास की ओर अग्रसर रखने वाली हैं। आजकल के हम सभों की समस्या यह लगती है कि एक तो हम ऋषि-मुनियों को अपने से कुछ ही बेहतर (only marginally better) समझते हैं या अधिक से अधिक हम उन्हें विचारक मानते हैं । उनकी पारगामी बुद्धि की योग्यता का आकलन अपनी सीमित बुद्धि से करते हैं इसलिए स्वीकार नहीं कर पाते कि मानव जीवन, समाज व राष्ट्र के विचार से गहन चिंतन, अनुभव व प्रयासों के बाद उन्होंने परम्पराएँ व व्यवस्थाएँ स्थापित करी हैं जो कालातीत होने में सक्षम हैं। हमें सब कुछ अविश्वास व प्रश्नवाचक दृष्टि से ही देखना है और हमारे भीतर मूल व दूषित में अंतर करने के विवेक को विकसित करने का प्रयास नहीं करना है।
दूसरा, समय के साथ योजयनद्ध तरीके से हमारे दृष्टिकोण व सोच में जो पतित परिवर्तन लाया गया है, उसके चलते हम अपने संस्कार, परंपरा, व्यवस्था या जीवन-शैली को अति सरल होने के कारण उसे प्रभावी स्वीकार नहीं करते। उसे रूढ़ीवादी, अपूर्ण, अप्रासंगिक होने की दृष्टि से अधिक देखते हैं। चैतन्य को प्राप्त हमारे पूर्वज जिस स्तर पर चिंतन व मनन करते थे वह हमें उपलब्ध नहीं। उसके फलस्वरूप हमें सूत्रबद्ध ज्ञान, विज्ञान, विद्याएँ, कालजयी व्यवस्थाएँ प्राप्त हुई हैं। प्रभावी को जटिल (complex) होना आवश्यक नहीं है, ये हमारी बहुत सारी परम्पराएँ सिद्ध करती हैं।
घर के भीतर स्त्री समस्त व्यापार का केंद्र होती है। गृह व्यवस्था का निर्वहन (उसमें केवल भोजन पकाना कपड़े धोना नहीं, सब कुछ है), परिस्थिति संतुलन, स्थिरत्व उसे सुलभ व सहज है। विभिन्न वय एवं श्रेणी के पुरुषों से अलग न रहकर वह उनकी चर्चाओं, क्रियाओं और विचारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। क्या एक पिता जिसने उसे जन्म दिया, उसके ऐसा करने पर उसे इस परिपक्व दायित्व के अयोग्य समझें (कन्या संतान भाव के बने रहने के कारण), इसकी संभावना नहीं? गृहस्थी का मूल भार्या है, जो गृहस्वामिनी होने पर स्त्री का परिवर्तित रूप है। वैदिक समाज की जो वैवाहिक कल्पना, कन्या की कल्पना ‘सूर्या’ के रूप में ऋग्वेद में प्रस्तुत करी है, वह यौवन के लक्षणों सहित हुई है और उसे स्वतः पति की कामना करने वाली सूचित किया है। अपने जीवन-संगी निर्वाचित करने की स्वाधीनता रखने वाली ये कुमारिकाएँ आधुनिक नहीं, ठेठ वैदिक काल की हैं। नारी की यह प्रतिष्ठा, अविवाहितावस्था का स्वातंत्र्य, गृहव्यवस्था की स्वामिनी रूप में परिवर्तन, धर्म व्यवस्था शिक्षा का संतान को परंपरागत रूप में हस्तांतरण, पुरुष को संरक्षण व पोषण के लिए दिया जाने वाला दायित्व और ज्ञान-विज्ञान जैसे गंभीर विषय पर प्रभुत्व – पश्चिम के प्रकाश में सुधार की धूसित धारणा रखने वाले लोगों विशेषकर देवियों को अब भी पथ-प्रदर्शन के लिए पर्याप्त है।
हमारी भारतीय व्यवस्थाओं और पद्धति ने समाज के मनोनुकूल सुविधा प्रदान करके भी पवित्र परंपरा का जो अंकुश रखा है, उसकी कल्पना भी आधुनिक सुधारकों को मुश्किल ही छू सकी है। ये सामाजिक आधार की दूरदर्शी सुविधाएँ, हमारी पुरातन सभ्यता के मूल – निरंतर प्रगतिशीलता – पर ही टिकी हैं। प्रगतिशीलता व प्रगति को शुद्ध व विवेकी बुद्धि से समझना आवश्यक है। क्योंकि प्रगतिशील संस्कृति के सुदृढ़ सिद्धांत पर समाश्रित होने वाले समाज का अस्तित्व ही सदा अविचल रहता है।
संदर्भ : विभिन्न प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन, सामाजिक ढांचे का अवलोकन, और दृष्टिकोण
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