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हमारे राम!

मेरे राम अपनी नागशैय्या से उठ आए और माता कौशल्या के गर्भ से प्रकट हुए। जाने मेरे राम को काला रंग इतना क्यों पसंद है कि विष्णु रूप हो या कृष्ण रूप, वे श्यामसुंदर ही बन कर आते हैं।

तुलसी के राम ठुमक-ठुमक कर चलते हैं, उनके पैरों में बंधी पैजनी बजती है। कैसे आह्लाद का विषय है कि जो संसार को उठाने आया है, वो भूमि पर बार-बार गिरता है।

रामजन्म पर वनों में तपस्या कर रहे धीर-गम्भीर ऋषियों को बावलों की तरह नाचते देखा था मैंने। अभी मेरे प्रभु युवावस्था के प्रथम चरण में ही हैं कि एक ऋषि आ गए उन्हें ले जाने। बुढ़ापे में बाप बने तनिक उस दशरथ की तो सोचो। वह कैसे अपने रक्त को शरीर छोड़कर जाने के लिए कहे। पर राम तो राम हैं। पुत्रप्रेम में अंधे बाप को राजधर्म की शिक्षा देते हुए चल पड़े महान विश्वामित्र के साथ। राम के लिए ही जन्मे लखन कैसे साथ न जाते।

जब ताड़का को देखते ही एक ही बाण से यमलोक पहुँचाया रघुनन्दन ने, तब सौमित्र ने पूछा था कि बिना किसी चेतावनी के देखते ही ठौर मार गिराया, न उसकी सुनी, न अपनी सुनाई। बस मार दिया। यह कैसा नृशंस व्यवहार। तब रघुवर ने देवगुरु बृहस्पति से नीति की शिक्षा पाए सौमित्र को नीतिज्ञान दिया कि शत्रु से एक बार बात की जाती है, दूसरी बार समझाया जाता है, तीसरी बार मार दिया जाता है। जितनी बातें करनी थी, वे विश्वामित्र कर ही चुके थे। हम तो यहां दण्ड देने आए हैं। फिर कुछ दिन बाद सुबाहु की ग्रीवा भी उतार ली।

जब कृपानिधान वन में भ्रमण कर रहे थे, उन्होंने परपुरुष से सम्बन्ध बनाने वाली स्त्री को उसके पाप के बोझ से मुक्त कर दिया और संसार को बताया कि यदि अपराधी भी सच्चे मन से पश्चाताप करे तो उसे राम की शरण मिलती है।

उपवन में टहलते हुए एकाएक जगतजननी सीता को देख टकटकी बंध गई प्रभु की, और उस निश्छल प्रेम को देख मेरे होंठ फैल गए। जिसके कारण संसार चलायमान है, वह भी प्रेम में ठहर जाता है।

अयोध्या जिस दिन की प्रतीक्षा में बावली हुए जा रही थी, उसी दिन बिजली गिरी कि दुष्टा कैकेई ने राजराजेश्वर को वनवास का श्राप दे दिया। हाय, कौशलाधीश और अयोध्यावासियों के आँसु नही देखे जाते। पर शेष विश्व टकटकी लगाए बैठा है कि अयोध्यावासियों के प्रेम में फंसे राम कब उस स्नेहबन्धन से मुक्त होकर अन्यजनों पर अपना प्रेम बरसाते हैं।

धीरे-धीरे वन की ओर बढ़ते प्रभु को ऋषियों से ज्ञात हुआ कि दुष्टों ने ऐसा आतंक फैलाया हुआ है कि एक विश्वामित्र को छोड़ कोई मदद मांगने तक न निकला। आतंक को जड़मूल से उखाड़ने के लिए देखो वो दृढ़प्रतिज्ञ कैसे गहन वन में धंसता जा रहा है।

पुरुषोत्तम के सौंदर्य को देख आतंक की अधिष्ठात्री सूर्पनखा प्रणय निवेदन करने आई और मना करने पर जब आक्रामक हुई तो उसकी नाक काट दी लक्ष्मण ने। नाक क्यों काटी होगी? जान से ही क्यों नहीं मार दिया? मेरे प्रभु ने मुझे बताया कि जान से मार देते तो बात वहीं खत्म हो जाती। वनों में छिपी, जनता को त्रास देती उसकी राक्षसी सेना सामने कैसे आती?

जनता को भयमुक्त करने, और दुष्टों को भयभीत करने के लिए महाबाहु ने अपने भाई लक्ष्मण तक का साथ नहीं लिया और अकेले ही हजारों-हजार राक्षसों को खड़े-खड़े ही एक-एक बाण से बींध दिया। भगवा धोती, भगवा पटके से बंधे बाल, वक्ष पर राक्षस रक्त से सना यज्ञोपवीत, कमर में खड्ग, कंधे पर तुरीण और हाथ में धनुष लिए हजारों राक्षसों के शवों के बीच खड़े मेरे शत्रुदलन श्रीराम।

वह पुरुष, जिसकी भुजाओं में बल है, जिसके नेत्रों में वात्सल्य है, जिसके अधरों पर मुस्कान है, जो माताओं के गर्भ से निकले बालकों के समान मृदुल है, जो विद्वानों के मुख से निकली ऋचाओं से अधिक पवित्र है, जो युद्धभूमि में खड़े सैनिकों का बल है, जो नागरिकों के जीवन का आधार है, जो दीनदयाल है, गरीबनवाज है, महाबलेश्वर है, पृथ्वीवल्लभ है, अकिंचन सबरी से लेकर समस्त सिद्धियों और निधियों के स्वामी पवनसुत हनुमान तक जिसके भक्त हैं, उन महाबाहु के चरणों में अर्पित करने के लिए मुझ कंगाल के पास क्या है?

नाथ, मैं स्वयं को ही अर्पित करता हूँ।

Feature Image Credit: godwallpaper.in

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