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शक्ति की राम पूजा

भौम वासर और मध्याह्न का समय था।‌ हाथ में लकुटि लिए एक शबरी बड़ी व्यग्रता से गहन वन्य पथ पर चली जा रही थी कि सहसा झाड़ियों और लताओं में कोलाहल हुआ। शबरी ने अपनी गति बढ़ाते हुए पग उठाया हि था कि  स्थावर समूह को विदीर्ण करता हुआ एक व्याघ्र तीव्रता से उसकी ओर झपटा। इस से पहले भय से स्तंभित हुई वृद्धा कुछ भी कर पाती एक  भल्ल नामक लोहमय बाण नभ स्थित बाघ के पार्श्व को भेदते हुए उसे कुछ दूर ले गया। प्राणहीन मृग को भूमि पर पड़ा देख शबरी के कण्ठगत प्राण तो स्थिर हुए पर नेत्र चंचल हो उठे। उसने दूर से एक आयुध धारी  पुरुष को  निकट आते देखा। जैसे जैसे वह समीप आता गया  शबरी के नेत्र और मन‌ सहज शीतलता का अनुभव करने लगे। लंबे लंबे, उतार चढ़ाव से युक्त  भुजदण्ड थे । अंगुलित्राण युक्त दाएं हाथ में एक नाराच शोभा दे रहा था और सिंह के समान पुष्ट बाएं कंधे पर स्वर्ण जड़ित धनुष।विशाल वक्षस्थल कवच और मणिमय हार से अलंकृत था। सिर पर रत्नविभूषित पगड़ी और कानों में मकराकृति कुण्डल थे। सुघड़ नासिका, बिम्बाफल  सदृश लाल ओष्ठ और विशाल कर्णांत काले नेत्रों से उसका मुख अत्यंत कमनीय लग रहा था। भृकुटी ऐसी मानो कामदेव के धनुष को भी लजाती हो। कुंचित केश भ्रमर समूहों से जान पड़ते थे। उन्नत स्वेद युक्त भाल पर गोरोचन  तिलक भ्राजमान हो रहा था। पीत पट सूक्ष्म कटि भाग पर  एक अक्षय तूणीर के साथ बंधा था। पीली धोती ही अधोवस्त्र था और पैरों पर सुंदर पदत्राण। उस सांवले पुरुष को वह वृद्धा टकटकी लगाकर देख रही थी।  मन में आनंद की बाढ़ सी आ‌ रही थी‌ कि सहसा वह उसके चरणों से लिपट गई और नेत्रों से शीतल  प्रेमाश्रु बह चले। कण्ठ अवरुद्ध होगया।

गद्गद् हुई वह बोली, “ जय हो! शंकर मानस बाल मराल की जय हो!”

संकुचित हुआ वह पुरुष बोला,” देवि यह आप क्या कह रही हैं ? उठिए!”

शबरी ,सिर उठाकर, भूमि का घुटनों से अवलंबन लिए : “इस अकिंचन को अपना प्रभाव स्वयं जनाने वाले राघवेन्द्र! आप ऐसा क्यों न कहेंगे! अपनी जग पावनी कीर्ति के विस्तार हेतु आप नट की भांति विविध वेष धारण करके नाना चरित्र करते हैं। जिनसे ब्रह्मादि भी मोहित हो जाते हैं । तो पामर जीवों कि तो बात ही क्या। आज इस कुवामा को  जन्म का लाभ मिल गया। सप्तद्वीपावती मेदिनी‌ के एकछत्र सम्राट महाराज रामचंद्र ने मृगया के मिस से आज इस अधम को दर्शन दिया। बहुत अनुग्रह किया प्रभो! बहुत अनुग्रह !”

दोनों नेत्रों से प्रेमजल बहाती हुई शबरी उठ खड़ी हुई।

अपना भेद खुलने पर, कुछ थके हुए से  राम बोले- “हे भामिनि! इस रघुवंशी भूप के प्रति तुम्हारी  भावना का मैं सम्मान करता हूं। अनुग्रह तो विधाता ने किया जो इस निर्जन वन में मुझे तुम से मिला दिया। “

ऐसा कहकर राम अपने धनुष का सहारा लेकर खड़े हो गये और विकल होकर पुनः बोले- “देवि !मृगया में मैं इतना तल्लीन होगया कि अपने भाईयों व परिकरों से बिछड़कर अनेकों वनों को लांघता हुआ यहां तक आ पहुंचा। भूख प्यास से अत्यंत व्याकुल हो रहा हूं। अब मुझमें और चलनेकी सामर्थ्य भी नहीं। तुम कोई ऐसा उपाय करो जिससे कि मेरा क्लेश दूर हो जाए। बड़ी कृपा होगी। “

मुस्कुराती हुई शबरी:”जीव मात्र का पालन पोषण करने वाले परमेश्वर! आपके विचित्र चरित्रों  की थाह कौन पा सकता है! पर हमारे लिए तो निस्संदेह आज आपकी सेवा का अवसर उपस्थित हुआ है। स्वामिन् यहां से थोड़ी दूर एक जलाशय के तट पर  दुर्गा देवि का भव्य मन्दिर है। आज वहां देवि का उत्सव मनाया जा रहा है। चारों वर्णों की स्त्रियां आज  देवि को नैवेद्य अर्पित करेंगी। मैं भी उस ओर हि जा रही हूं। आप भी मेरे साथ चलिए। देवि का प्रसाद और जल  ग्रहण करके आप तृप्त हो जाएंगे। “

अपने कष्ट को मुख मंडल पर  प्रदर्शित करते हुए कुछ लज्जायुक्त राम: “  मैं यहां लक्ष्मणादि की प्रतीक्षा करता हूं। तुम ही जाकर उन स्त्रियों को मेरी दशा बता दो।“

राम की बात को शीश चढ़ाकर शबरी बड़े उत्साह से मन्दिर चली।

पीले वस्त्र पहने हाथ में नैवेद्य के पात्र लिए चारो वर्णों की स्त्रियों और उनके नूपुरों के कोलाहल से पूरा मन्दिर व्याप्त  था।

“ अरे सुनती हो! “ देवालय की सीढ़ियां चढ़ती हुई कुछ वनिताओं ने यह पुकार सुनी और उनकी दृष्टि वेग से चली आती हुई शबरी पर पड़ी।

मंदिर के कुछ समीप आकर शबरी :

“यहां से थोड़ी दूर एक वृक्ष के नीचे अयोध्याधिपति महाराज श्री राम खड़े हैं!” अन्य स्त्रियों का भी ध्यान अपनी ओर केंद्रित करती हुई शबरी ने सारा वृत्तांत कह सुनाया।  महाराज को  अयोध्या से दूर इस ग्राम के समीप आया जान ले सब हर्ष से भर गईं।  “चलो! श्रीराम को नैवेद्य और जल अर्पित कर तुम सब अपने जीवन का लाभ लो।“ उन सब में से एक स्त्री ने हर्ष युक्त वचन कहे- “ सखियों! हमें यह दुर्लभ अवसर नहीं गंवाना चाहिए।   देवि को नैवेद्य अर्पित कर  हम शीघ्र हि महाराज राम की उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थों से सेवा करें।“  उसकी बात का अनुमोदन कर सारा स्त्री समुदाय उमंग युक्त हो देवि को नैवेद्य अर्पित करने चला। तभी एक विचित्र घटना घटी। इससे पहले वे देवि के सम्मुख जातीं मन्दिर के चारों द्वार बन्द होगये। एक एक कर वे सब ओर देख आईं पर उन्हें भीतर जाने का अवकाश कहीं न मिला। विस्मित हुई वे सब  चुपचाप खड़ी रहीं कि उन्हें भीतर से एक ध्वनि सुनाई पड़ी :

“अहमेवात्र सीताऽस्मि रामः साक्षान्महेश्वरः।
ये भिन्नं मानयंत्यत्र मां सीतां राघवं हरम्।।

ते कोटिकल्पपर्यन्तं पच्यन्ते रौरवेषु हि।
अतो यूयं हि भो नार्यो मन्नाथं च जगत्प्रभुम्।।

तोषयध्वं वरान्नैश्च तच्छेषेण त्वहं तत:।
तुष्टा भवामि गच्ध्व क्षुधितं तं रघूत्तमम्।।“

“मैं हि सीता हूं और राम साक्षात् शिव। जो शिव से भिन्न राम को और मुझसे भिन्न सीता को देखते हैं वे कोटि कल्प पर्यंत रौरव नरक में पड़ते हैं। अतः हे स्त्रियों पहले मेरे और जगत् के प्रभु राम को उत्तम अन्नों से तृप्त करो।  जो बचे उससे मेरी पूजा करो। इससे मैं प्रसन्न होऊंगी। अब तुम जाओ। श्रीराम भूखे प्यासे बैठे हैं। “

यह वचन सुनकर विस्मित हुआ वह  नारी वृंद शबरी के पीछे पीछे चल पड़ा। शबरी ने शीघ्र ही उन्हें वृक्ष नीचे बैठे हुए हाथों से बाण घुमाते हुए राम का दर्शन कराया। राम को देखकर उन स्त्रियों को रोमांच हो आया। मन प्रसन्न होगया। गद्गद् वाणी से राम की स्तुति करके वे बोलीं –“  स्वयं चलकर भक्तों को तारने वाले रघुनाथ! दुर्गा देवि द्वारा भिजवाए इन पदार्थों का भोग लगाएं। और हमारा जीवन सफल बनाएं।“

विस्मित होकर राम- “ दुर्गा देवि द्वारा भिजवाए पदार्थ?” यह सुन शबरी ने सारा वृत्तांत राम को कह सुनाया।

राम: “यदि यह सब सत्य है तो तुम से कोई जाकर सीता को मन्दिर से बुला लाओ। मैं उसके साथ हि भोजन ग्रहण करुंगा।“ यह सुनकर वे सब कुछ चकित सी हो गईं और कुछ कह न सकीं। तभी  एक स्त्री अविलंब ही मंदिर की ओर दौड़ी और  दुर्गा जी के समक्ष इस बातको निवेदित कर खड़ी होगई। मन्दिर का कपाट थोड़ा सा खुला और उस अवकाश में से साक्षात्  पीतकौशेयवासिनी सीता निकल आई। हाथ में जल पात्र लेकर सीता राम कि ओर चल पड़ी।‌सभी स्त्रियों के देखते देखते मंदिर से निकली सीता राम के बगल में जा बैठी। यह कौतुक देखकर सब नि: शब्द रह गये। युगल मूर्ति सीताराम को देखकर उनके हृदय में प्रेम उमड़ आया अंग शिथिल होगये। कुछ भी करने में वे समर्थ नहीं, बस नेत्र पुट से रूप माधुरी का पान कर रही हैं। तभी   राम हंसते हुए से वचन बोले- “लगता है  अयोध्या पहुंचकर हि हमारी क्षुधा शांत होगी।“ धीरज धारण करके उन स्त्रियों ने युगल सरकार को भोग लगाया और जीवन का लाभ लिया।

अत्यंत प्रसन्न होकर भगवान ने उन स्त्रियों को उस  दुर्लभ भक्ति का वरदान दिया जो बड़े बड़े मुनियों को जन्म जन्मांतरों में भी नहीं मिलती।

इस प्रकार भगवान श्रीराम ने  शास्त्र के सिद्धांत का लीलापूर्वक प्रतिपादन करने के मिस से उन ग्राम्य स्त्रियों का उद्धार किया ।

अतः श्रीमद्भागवत में भगवान राम के विषय में उचित हि कहा गया है -मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणं

रक्षोवधायैव न केवलं  ५.१९.५

भगवान राम का मनुष्यावतार मात्र रावणादि के वध के लिए हि नहीं अपितु मनुष्यों को शिक्षा देने के लिए भी हुआ है।

उपर्युक्त कथा आनंद रामायण के मनोहरकांड के १२वें सर्ग में मिलती है। उसका नाट्य रूपांतरण यहां पाठकों के लिए दीया गया। सभी पाठकों को चैत्र नवरात्र व रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं।‌

Feature Image Credit: youtube.com

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