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कुवलयमाला में वर्णित यक्ष-मूर्ति जैसी अनेक मूर्तियों का दक्षिण भारत में अस्तित्व

कुवलयमाला एक प्राकृत कथा ग्रंथ है, जिसकी रचना आचार्यश्री उद्योतनसूरिजी महाराज ने सन् ७७९ में जालोर नगर में की थी। इस ग्रंथ की लगभग १००० साल प्राचीन ताडपत्रीय पत्र जेसलमेर के जैन ज्ञानभंडार में सुरक्षित है। यह ग्रंथ अपने आप में ज्ञानका अद्भुत भंडार है, जिसमें अनेक विषयो का सुंदर विवरण किया गया है। इस ग्रंथ का सर्वप्रथम संपादन डो. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येजी ने किया था, साथ एक विस्तृत प्रस्तावना  भी अंग्रेजी भाषा में लिखी थी, जो अत्यंत उपयोगी है। इस ग्रंथ का गुजराती, अंग्रेजी, फ्रेंच और हिंदी  भाषा में अनुवाद हो चुका है, जो इसके महत्त्व का सूचक है 1। इस ग्रंथ के पठन के समय एक विशेष  प्रसंग की ओर मेरा ध्यान गया, जिसका विवरण एवं महत्त्व दक्षिण भारत के जैन स्थापत्य के संदर्भ में किया जा रहा है। कुवलयमाला कहा के परिच्छेद चौदह में कथानायक कुवलयचन्द्र की दक्षिण यात्रा एवं यक्ष जिनशेखर की भक्ति का प्रसंग आता है। अपनी  इस यात्रा के दौरान कुवलयचन्द्र को जंगल में एक यक्ष प्रतिमा के दर्शन होते है। जिसके मुकुट में भगवान ऋषभदेव की मूर्ति होती है। उस मूर्ति को देखकर कुवलयचन्द्र को बहुत प्रसन्नता होती है और वह उस मूर्ति की वंदना कर स्तुति स्तवना एवं अपनी भक्ति को प्रगट करता है।

कथा में आगे अनुच्छेद २०२ में जंगल में जिनेन्द्रदेव और यक्ष प्रतिमा की उत्पत्ति का प्रसंग है2। पूर्वभव में वह यक्ष एक ब्राह्मण पुत्र था, जो कि अत्यंत दरिद्र था, वह भ्रमण करता  करता एक जंगल में आता है। वहाँ उसे एक जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन होते है, बालक को इस प्रतिमा का कोई भी परिचय नही है, फिर भी वह उस मूर्ति  से अत्यंत आकर्षित होता है और नित्य सरोवर से जल और पुष्प लाकर पूजा करता हुआ वही रहने लगता है। वह बालक इस मूर्ति के सामने प्रार्थना करता है।

“हे भगवन् ! आपका नाम, चरित, शील, गुण, कुल यह सब कुछ मैं नहीं जानता हूँ, तो मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ, किन्तु आपके दर्शन करके मैं आपको भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ, तो जो आपके चरणो की पूजा का फल होता है, वह मुझे भी प्राप्त  हो 3। ( अनुच्छेद २०४, गाथा १-२) कुछ समय बाद एक दिन उस बालक का पेट के दर्द की पीडा के कारण अंत निकट आता है। वह भागकर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति के सामने  जाता है, उसे अत्यंत वेदना होती है, वह भगवान के मुख कमल को देखते हुए ऐसी भावना भाता है –

“है भगवान ! पापों के कारण में अज्ञानी आपके गुणों को नहीं जानता हूँ। आपके पास झुके हुए भक्तो का जो कल्याण होता है, वही मेरा भी हो।” (अनुच्छेद २०४ गाथा ६)4  ऐसा कहते हुऐ बालकने भगवान के चरणो में समर्पित होकर अपने प्राण त्याग दिये। आगे इस बालक का जीव महा ऋद्धिधारी यक्ष के रुप में  उत्पन्न होता है। वह अपने अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव को जानता है और अत्यंत अहोभाव के साथ वह उस स्थान पर जाकर अपना मस्तक भगवान के सामने झुकाता है। वह यह सोचता है कि क्यों ना इन भगवान को हमेशा के लिए सिर पर धारण किया जाय ? ऐसा सोच कर वह यक्ष अपनी बड़ी प्रतिमा बनवाता है और प्रतिमा के मुकुट में भगवान ऋषभ देव की मूर्ति को स्थापित करता है। उस समय के बाद वह रत्नशेखर यक्ष, जिनशेखर नाम से प्रतिष्ठित होता है। 5

आचार्य उद्योतनसूरिजी के इस विवरण से कुछ  महत्त्वपूर्ण बाते हमारे सामने आती है,

  1. आचार्यश्री ने अपने जीवनकाल में कुछ समय दक्षिण देश में भी विचरण किया होगा। क्योंकि इस कथानक के अलावा भी उनके ग्रंथ में दक्षिण देश का विवरण उपलब्ध होता है।
  2. प्राचीन समय से दक्षिण प्रदेश, उसमें भी मुख्यतः कर्णाटक, तामिलनाडु, और, आंध्रप्रदेश में जिन शासनके यक्ष-यक्षिणीओ के मुकुट में परमात्मा का शिल्प बनाने की परंपरा रही है। आज भी अनेक ऐसे शिल्प उपलब्ध है। उत्तर भारत में मुख्य रुप से देवी देवताओं के परिकर में परमात्मा का शिल्प बनाया जाता था। आचार्यश्री ने अपने विहIर के दौरान अनेक एसे शिल्प देखे होंगे, जिससे उनको उक्त प्रसंग लिखने की प्रेरणा मिली होगी।

वैसे तो एसे अनेक शिल्प पूरे दक्षिण भारत के अनेक स्थानों में आज भी विद्यमान है, यहाँ जानकारी  के लिए कुछ एक ऐसे शिल्पो का उल्लेख किया जा रहा है।6

(१) प्रसिद्ध जैन तीर्थ कुलपाक में एक राष्ट्रकूट कालीन (लगभग ९ वी शताब्दी) चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा है। इस शिल्प के मुकुट में। अर्ध पद्मासन मुद्रा में तीर्थंकर बिंब बना हुआ है। देवी की प्रतिमा काले पाषाण की, बारह भुजाओवाली है। (अब यह प्रतिमा पद्मावती देवी के नाम से पूजी जा रही है)

(२) चैन्नई के सरकारी संग्रहालय में एक १३ वी शताब्दी की अंबिका देवी की प्रतिमा है, यहाँ भी देवी के मुकुट में तीर्थंकर बिंब बना हुआ है। यह प्रतिमा लगभग २० इंच की धातु से निर्मित है।(चोला राजाओ के शासनकाल में निर्मित)

(३) कर्णाटक के नैलूर (दक्षिण कन्नड जिला) के जैन मंदिर में दो अंबिका देवी की धातु प्रतिमाए है जिनके मुकुट में तीर्थंकर भगवान अंकित हुए है। दोनो प्रतिमाए १६ वी शताब्दी की है। एक प्रतिमा खडी है, दूसरी बैठी हुई है।

(४) एलोरा की जैन गुफा में एक मातंग यक्ष की प्रतिमा के मुकुट में भगवान अंकित हुए है। यह लगभग ९ वी शताब्दी की है और इसका निर्माण राष्ट्रकूट राजाओं के शासनकाल में हुआ था।

(५) बंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज  संग्रहालय में एक ११ वी शताब्दी की पद्मावती देवी की पाषाण से निर्मित प्रतिमा है जिसके मुकुट में तीर्थंकर बिंब बना हुआ है। यह मूलत: कर्णाटक की है।

(६) कर्नाटक में बन्दलिके नामक एक प्राचीन गांव है। यहां पर १० वी शताब्दी के आसपास निर्मित भगवान शांतिनाथ का विशाल जिनालय है। यहाँ पर एक खंडित देवी प्रतिमा के मुकुट में जिनबिंब देखा जा सकता है। यह जिनालय भारत  सरकार के पुरातन विभाग के अंतर्गत है।

(७) श्रवणबेलगोल और जिनकांची के जैन मठों में इस तरह की कई प्रतिमाए है।

(८) कर्णाटक के कंबदहल्ली और हलेबीड के जैन मंदिरो में १२ वी शताब्दी की अंबिका देवी (दो हाथो वाली) प्रतिमा में भी यह लक्षण पाया जाता है।

आचार्य श्री उद्योतनसूरिजी ने कुवलयमाला में आचार्य जटासिंहनंदी और उनके ‘वराग चरित (संस्कृत महाकाव्य) का उल्लेख किया है 7। आचार्य जटासिंहनंदी यापनीय संप्रदाय और कणूर गण के आचार्य थे 8, उनका संबंध दक्षिण देश से रहा है और कालधर्म भी कर्णाटक के कोप्पल तीर्थ में हुआ था9। आचार्य भी उद्योतनसूरिजी द्वारा अपने ग्रंथ में इन आचार्य का स्मरण, इस बात की और संकेत देता है कि उद्योतनसूरिजी संभवतः दक्षिण विहार के दौरान जटासिंहनंदीजी से मिले होंगे, क्योंकि दोनो के समय में कोई ज्यादा अंतर नही था। ना भी मिले हो तो परंपरा के मुनियो से तो अवश्य ही मिले होंगे, तभी उनके ग्रंथ का उल्लेख कुवलयमाला में किया है। कुछ भी हो, यह उल्लेख आचार्य श्री के दक्षिण  देश में विचरण का प्रबल प्रमाण है।

Reference :

  1. (A) English translation : Alexander Reynolds , Editors – Christine Chojnacki and Hampa Nagarajaiah ,Sapna Book House , 2018, Banglore                            (B) Hindi translation : Dr Prem Suman Jain, Prakrit Bharati Academy ,2015, Jaipur
  2. अनुच्छेद २०२ , कुवलयमाला कथा
  3. अनुच्छेद २०४, , कुवलयमाला कथा
  4. अनुच्छेद २०४, , कुवलयमाला कथा
  5. अनुच्छेद 205, , कुवलयमाला कथा
  6. The author has noted these examples of icons during his field work and visits to museums.
  7. अनुच्छेद 6 , , गाथा 15, कुवलयमाला कथा
  8. Acharya Jatasimhanandi and His Varang Charitra – Rushab R Bhandari, Anusandhan -82 , October 2020, Ahmedabad.
  9. Hyderabad Archaeological Series No. 12 (1935), Article of C.R. Krishnan Charal on Koppal Kannada Inscriptions.

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