“रामो विग्रहवान धर्मः”
होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा – गोस्वामी तुलसीदास
अर्थात जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।
धर्म के आधार पर और धर्म के लिए किया गया न्याय कभी विफल नहीं होता। अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना कलियुग के इस कालचक्र में असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म, और अन्याय पर न्याय की जीत का प्रमाण है। इसी सन्दर्भ में ऊपर दिया गया चित्र अयोध्या राम मंदिर स्थापना के उपलक्ष्य में एक सटीक चित्रण है। यह एक कलाकार द्वारा २० साल पहले चित्रित की गयी थी जो आज कलयुग में राम मंदिर स्थापना के पर्व पर और भी सजीव साबित हो रही है। यह कलाकृति बीस साल पहले रीवा के चित्रकार श्री नरेंद्र निगम नामक चित्रकार ने चित्रित की थी। उस समय उन्होंने बाबरी मस्जिद – राम मंदिर प्रकरण को जापान की हाइकू पोएट्री से सम्बद्ध कर इस पेंटिंग को चित्रित किया था।
हाइकू पोएट्री की पंक्तियों द्वारा उन्होंने ये दर्शाने कि कोशिश की है कि नियति का तराजू मनुष्य के हाथ में नहीं बल्कि काल के हाथ में है। अर्थात कलियुग के इस कालचक्र में हर मनुष्य को और खासकर के युवा पीढ़ी को ये समझ लेना चाहिए कि उसके हाथ में सिर्फ धर्मानुसार कर्म करना है और कुछ नहीं। जिसने चराचर जगत को अपनी इच्छा मात्र से धारण कर रखा है, क्या मनुष्य में इतना सामर्थ्य है कि वो उस परमतत्त्व को स्थापित कर सके? मेरी दृष्टि में श्री राम मंदिर स्थापना मनुष्य के परम तत्त्व के प्रति समर्पण भाव की, सद्भाव की और धर्म परायणता की स्थापना है।
धर्मपरायण जीवन ही हर मनुष्य का लक्ष्य है
पर आज मनुष्य को जिस विषय में भ्रान्ति नहीं होना चाहिए थी, उसी विषय में वो भ्रमित है। और वो है ‘धर्म’ का विषय। आज का मनुष्य ये जानता ही नहीं कि धर्म क्या हैं। समाज में धर्म के नाम पर अनेक भ्रांतियां फैली हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई – ये धर्म नहीं पंथ हैं, जो अलग-अलग तरह से ईश्वर की सत्ता को दर्शाते हैं। मनुष्य का धर्म क्या है, वो यह सर्वथा भूल चुका है।
धर्म यानी जिसे हम धारण करते है। धर्म’ शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। धृ धातु धारण,पोषण,और अवस्थान आदि कई अर्थों में प्रयुक्त होता है।
ध्रियते लोकः अनेन इति धर्मः।
धरति धारयति वा लोकम् इति धर्मः।।
ध्रियते लोकः अनेन – जिसके द्वारा लोक धारण किया जाये उसे धर्म कहते हैं।
धारयति लोकम् – जो लोक को धारण करे,उसे धर्म कहते हैं।
धारण करने के अर्थ में कहा जाता है जो तत्व सारे संसार के जीवन को धारण करता हो,जिसके बिना लोक-स्थिति सम्भव न हो, जिससे सब कुछ संयमित, सुव्यवस्थित एवं सुसंचालित रहे,वह धर्म है। धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है, ‘धारण करने योग्य’ सबसे उचित धारणा, अर्थात जिसे सबको धारण करना चाहिए, वह धर्म हैं। धरती पर लोकहित में जो धारण करने योग्य है वही धर्म है।
ध्रियत इति धर्मः, धार्यत इति धर्मः, पतितं पतन्तं पतिप्यन्तं धरतीति धर्मः।
सारा कार्य-व्यापार जिसके द्वारा धारित होता है, जो कार्य-कारण का आश्रय स्वरूप है, जो अपने में गिरे हुए, गिरते हुए और गिरने वाले मनुष्यों को अवनति के मार्ग से बचाकर उन्नति की ओर ले जाने की शक्ति धारण करता है; वही धर्म कहलाता है। जो व्यक्ति से लेकर समाज तक की व्यवस्था रखने का सुखमय मार्ग दिखाने का सामर्थ्य रखता हो, जिसमें व्यक्ति, समाज, तथा राष्ट्र के कल्याण के लिये नियम, नीति, न्याय, सत्य, सद्गुण, सदाचार, सुस्वभाव, स्वार्थ त्याग, कर्तव्य-कर्म और ईश्वर भक्ति आदि उत्तम गुण विद्यमान हों तथा जो लौकिक और अलौकिक श्रेय का साधन हो,वही वास्तविक धर्म कहलाता है,वही परिपूर्ण धर्म है।
आदि शंकराचार्य जी के भगवद् गीता भाष्य में धर्म की परिभाषा आती है-
जगतःस्थितिकारणंप्राणिनांसाक्षात्अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुर्यः स धर्मः ।
अर्थात जिससे पूरे संसार की स्थिति एवं व्यवस्था उत्तम हो,प्रत्येक प्राणिमात्र की ऐहिक यानी अभ्युदय और पारलौकिक उन्नति यानी मोक्ष हो,वही धर्म है। संसार धर्म पर ही टिका हुआ है जगत् में ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसमें धर्म विद्यमान न हो; ऐसा कोई तत्त्व नहीं, जिसमें धर्म की सत्ता न हो। यदि संसार में सब अपना-अपना धर्म छोड़ दें तो विश्व एक दिन भी नहीं टिक सकता। किसी वस्तु के जो गुण ऐसे हैं जिनसे वह अपने रूप में धारित रहती है, बनी रहती है, उन गुणों को उस वस्तु का धर्म कहा जाता है। किसी वस्तु के भौतिक और रासायनिक गुण उसके धर्म हैं। किसी वर्ण और आश्रम के नियम और कर्तव्य उसके धर्म हैं। राज्य नियम धर्म हैं। ठीक उसी प्रकार यदि पृथ्वी, वायु, जल, सूर्य, चन्द्रमा आदि अपना धर्म छोड़ दें तो क्या क्षण भर भी जगत टिक सकता है? इसी प्रकार मानव, पिता, माँ, स्त्री, यदि धर्मपरायण होकर न चलें तो जगत नहीं चल सकता। अर्थात जिस प्रकार किसी सभा समाज के नियमोपनियम उसके धर्म हैं। आत्मा, परमात्मा, परलोक और कर्मफल में विश्वास और इस विश्वास के आधार पर परमात्मा की उपासना और तदनुकूल आचरण को भी धर्म कहते हैं। धर्म वह है जो हमें सब तरह के विनाश और अधोगति से बचाकर उन्नति की ओर ले जाता है। श्री राम मंदिर स्थापना कलियुग में हर मनुष्य के लिए एक बार फिर न सिर्फ धर्मपरायण जीवन जीने का सन्देश दे रहा है, अपितु यह भी बता रहा है कि अंत में जीत धर्म कि हो होगी, जिस प्रकार ७० साल बाद भारत कि पृष्ठभूमि पर राम मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ। भारत की पृष्ठभूमि पर ये एक ऐसा घटनाक्रम है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सनातन धर्म के शाश्वत अस्तित्व का प्रतीक होगा। पर वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना सिर्फ राष्ट्र में मंदिर स्थापित कर देने से नहीं होगी अपितु तब संभव होगी जब हर मनुष्य के हृदय में राम-राज्य स्थापित करने का संकल्प हो, जब हर मनुष्य का आचरण वैसा हो। धर्म मानव को मानव बनाता है जब मनुष्य राम-राज्य की सात्विकता को धारण करेगा तभी धार्मिक परिवर्तन संभव होगा। लोकतंत्र,विविधता तथा समावेशन और विकास ही आज एक राष्ट्र का धर्म बन चुके हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है पर इनके पीछे के उद्देश्य को क्या समाज वाकई धर्म के सिद्धांतों पर चला रहा है? या फिर राष्ट्र में विकास सिर्फ एक स्वार्थ बन कर रह गया है, जिसमें मनुष्य अपने मूल कर्तव्यों से विमुख कर्म कर रहा है? राम-राज्य में कोई भी कार्य धर्म को आधारभूत बना कर होता है,तभी वह राम-राज्य कहलायेगा। अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना हमें यही सिखाती है की हर युग में धर्म प्रधान रहा है और आगे भी रहेगा।
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा
लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति
धर्मेण पापमपनुदति, धर्म सर्वं प्रतिष्ठितं
तस्माद धर्मं परम वदन्ति
संपूर्ण जगत का आधार धर्म है। धर्म से ही पाप की निवृत्ति होती है। समस्त प्रजा अपने-अपने संशयों को निवृत्त करने के लिए जाती है। धर्म से ही पाप की निवृत्ति होती है। इसलिए विश्व में सबसे श्रेष्ठ तत्त्व धर्म है।
“आरम्भो न्याययुक्तो यः स हि धर्म इति स्मृतः।” अर्थात न्याय से युक्त होने पर ही धर्म का प्रारम्भ होता है।
तो क्या हम ये कह सकते हैं कि अयोध्या राम मंदिर स्थापना संसार में एक बार फिर राम-राज्य का आरम्भ है? क्या अयोध्या राम मंदिर स्थापना द्वारा सनातन धर्म की अखंडता को पुष्ट करने के लिए कलियुग का मनुष्य व्यक्तिगत जीवन में सत्य, पारिवारिक जीवन में प्रेम, सामाजिक जीवन में न्याय, सार्वभौमिक जीवन में पुण्य लाने के लिए कर्मनिष्ठ और तत्पर है? क्या राम मंदिर स्थापना कलियुग के मनुष्य और युवा पीढ़ी को प्रतिपल धर्म कि ओर अग्रसर होने का प्रतीक रहेगा? या फिर हम सिर्फ इसे एक पर्व के रूप में मनाकर भूल जायेंगे।
।। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जय ।।
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