पूर्व प्रसंग में हमने यह सिद्ध किया कि प्राचीन संस्कृत साहित्य और मध्यकालीन काव्यों के राम एक ही है।अव्यक्त अखण्ड अगोचर ब्रह्म ने ही अपने को श्रीराघवेन्द्र के रूप में व्यक्त करके अपनी मधुर कीर्ति का विस्तार किया। भारत का कोई भी भू भाग ऐसा नहीं जो इस कीर्ति रूपी सुभग सरिता से आप्लावित न हुआ हो। जो अनिर्वचनीय होते हुए भी सुलभ है, त्रिलोकपति होने पर भी सुशील है वही रामचन्द्र है। ऐसे राम के गुणों का बखान करते करते भला कोई कैसे तृप्त हो सकता है। यही कारण है कि भारत की भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं में कोई वस्तु एकरस है तो वह राम है। इसलिए श्रीरघुनाथ के चरित्र के विषय में प्रसिद्ध है – चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्- रघुनाथ जी का चरित्र सौकरोड़ के विस्तार को प्राप्त है। इन सब चरित्रों का स्वयं विधाता ही पार नहीं पा सकते तो मनुष्यों कि क्या सामर्थ्य। फिर भी हम अपनी अल्प मति और शक्ति से आज जानने का प्रयास करते हैं कि भारत में इस चरित्र का कैसा विस्तार और स्वरूप है। वाल्मीकिय रामायण, महाभारत, पुराण, कालिदास और वेदों की वार्ता तो पिछले अंक में हो गई। अब देखते हैं भारत की विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों में रामचरित्र का कैसा उपबृंहण हुआ है।
आनन्दरामायण
संस्कृत भाषा में ही आनन्द रामायण के नाम से एक विख्यात रामचरित्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसे किसने रचा यह कह पाना कठिन है।पर ग्रंथ के अनुसार वाल्मीकि ने ही राम की आनन्दमयी लीलाओं का वर्णन करने के लिए इसकी रचना की। इस रामायण की विशेषता यह है कि इसमें राम और सीता का विरह नहीं होता। इसके जन्मकाण्ड के सर्ग ८ में जब सीता पृथ्वी की गोद में समाने लगती हैं तभी श्रीराम ठीक वैसा ही रोष प्रकट करते हैं जैसा उन्होंने समुद्र के समक्ष प्रकट किया था। भू देवि सीता को लौटा देती हैं और सीताराम सुखपूर्वक साकेत में निवास करते हैं। इसमें रामके राज्य शासन के समय का भी विस्तार से वर्णन है जो आर्ष वाल्मीकि रामायण में नहीं है। रामोपासना कि दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें रामोपासन की विविध पद्धतियां, विभिन्न राम मन्त्र और राम गीताएं मिलती हैं। प्रसिद्ध रामरक्षास्तोत्र भी आनन्दरामायण के मनोहरकाण्ड का ही भाग है।हनुमत्कवच भी आनंद रामायण में ही उपलब्ध होता है।
भुषुण्डी रामायण
ब्रह्मा और काकभुशुण्डि के संवाद के रूप में एक अत्यंत मनोहर रामचरित्र संस्कृत भाषा में मिलता है जिसे ब्रह्मरामायाण, आदिरामायण या भुषुण्डी रामायण भी कहते हैं। इस रामायण को यदि रामोपासकों का भागवत कहा जाए तो यह अत्यंत उपयुक्त होगा। क्योंकि इसकी वर्णन शैली ही भागवतपुराण जैसी है। इसमें श्रीराम का वर्णन मूर्तिमान श्रृंगार रस के रूप में हुआ है। यदि वाल्मीकि के वाक्य – रामो रमयतां श्रेष्ठ: का उपबृंहण सबसे अधिक कहीं हैं तो वह भुषुण्डी रामायण में है।गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस पर भी भुषुण्डी रामायण का प्रभाव दिखता है। मानस में राम का त्रिदेवों का भी नियन्ता होना, जनकपुर में मोरपंख धारी श्रीराम का रूप ,अष्टसखी संवाद, लंका में विभीषण के घर में तुलसी की स्थापना, गोस्वामी जी का राम को मूर्तिमान श्रृंगार रस कहना ,वेदस्तुति, राम का पुरवासियों को उपदेश इत्यादि ,इस बात के स्पष्ट प्रमाण है। यह सब वृतांत भुषुण्डी रामायण में भी हैं । भुषुण्डी रामायण में राम के लिए रसिकेंद्र जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसमें कई कथाएं ऐसी हैं जो बिल्कुल नवीन हैं और अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। विशेष बात यह है कि रामायण की मुख्य मुख्य घटनाओं ,जैसे हनुमान जी का समुद्र लंघन ,सेतु बन्धन, रावण वध, रामराज्याभिषेक इत्यादि का तिथियों के साथ उल्लेख हुआ है। रामोपासना की दृष्टि से भी यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें चारों भाइयों, देवि सीता के सहस्रनाम हैं। विभिन्न लोगों द्वारा गाई गई राम स्तुति है। राम की चरण पादुका का रक्षा स्तोत्र है। राम द्वारा दिए गये अनेकों उपदेश हैं जो भिन्न भिन्न प्रकार के साधकों के लिए उपयुक्त हैं। इसमें राम से संबंधित तीर्थों और उत्सवों का विस्तृत माहात्मय भी उपलब्ध होता है ।
योग वासिष्ठ – महारामायण
संत समाज में यह कहा जाता है कि राम सच्चिदानंद हैं।सत् की प्रधानता से उनका वर्णन आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में है। आनंद की प्रधानता से आनंद रामायण में और चित् अर्थात् आत्म स्वरूप की प्रधानता से योग वासिष्ठ में है। इसे महारामायण भी कहा जाता है। यह श्रीराम और वसिष्ठ मुनि का संवाद है। इसमें ज्ञान स्वरूप आत्मा की ही चर्चा है। विभिन्न आख्यानों के द्वारा आत्म तत्व को ही समझाया गया। इस ग्रंथ के अनुसार भी इसके रचनाकार वाल्मीकि ही हैं। काकभुशुण्डि का कोटि कोटि ब्रह्माण्डों, कोटि कोटि देवों,अनेक अनेक कल्पों का दर्शन करना भी सर्वप्रथम योग वासिष्ठ में बताया गया है।
अद्भुतरामायण
अद्भुतरामायण के नाम से भी एक संस्कृत रामायण है जिसमें सीता की प्रधानता से रामकथा कहीं गई है। कथा की पृष्ठभूमि में भरद्वाज वाल्मीकि से १०० कोटि रामायणों की गुप्त बातों के विषय में प्रश्न करते हैं। तब वाल्मीकि जी रामायण में शक्ति का माहात्म्य बतलाते हैं। देवि सीता का ही आदिशक्ति के रूप में वर्णन करते हैं। इस रामायण की विशेषता यह है कि इसमें मुख्य खलनायक १००० सिरों वाला रावण है जो दशग्रीव रावण का भाई है। और उसका वध जानकी जी महाकाली का रूप लेकर करती हैं।
यह तो हुई शास्त्रीय रामकथा की बात। अब जानते हैं भारत के विभिन्न क्षेत्रों में रामचरित्र कैसे गाया गया है।
पंजाब सिन्धु में राम
दसवें सिक्ख गुरु गोविन्दसिंह जी ने अपने दशम ग्रन्थ में भगवान के सभी अवतारों का वर्णन करते हुए रामचरित्र का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। इसे गोविन्द रामायण भी कहा जाता है। श्रीरामचरित्र का आद्योपांत वर्णन इसमें हुआ है। पंजाब या पंचनद क्षेत्र के जन जीवन में रामायण का प्रभाव इस बात से ही सिद्ध होता है कि यहां की लोकमान्यताओं में लाहौर और कसूर नामक नगरों को राम के पुत्र लव और कुश ने बसाया। लाहौर ही पहले लवपुरी के नाम से विख्यात था। यहां आज भी लावा मन्दिर के नाम से एक स्थान है जो राम पुत्र लव से ही संबंधित माना जाता है। जिस बेदी वंश में गुरुनानक देव का जन्म हुआ वह भी अपना उद्गम श्रीराम के इक्ष्वाकु वंश से ही मानता है। आज भी उत्तर भारत के कई लोग अपने नामों के साथ कौशल गोत्र का प्रयोग करते हैं जिसका उद्गम राम माता कौसल्या से ही माना जाता है।
राजस्थान में राम
राजस्थान के जनमानस में श्रीरामचन्द्र ऐसे बसे हुए हैं कि बिना भगन्नामोचारण के उनका व्यवहार ही नहीं चलता। श्रीराम नाम द्वारा ही नमस्कार अभिवादन आदि होता। इसके अतिरिक्त यह हनुमान जी की उपासना की प्रधानता का भी क्षेत्र है। यहां भी कई भक्त होगये जिन्होंने राम गुण गान के माध्यम से ही भागवत धर्म का प्रचार किया। सन् १५१८ के आसपास कवि मेहागोदारा ने मेह रामायण की रचना की। १८ वीं शताब्दी में कवि सुन्दरदास ने रामचरित नामक रामकथा का सर्जन किया । सन् १७७९ में नरहरिदास ने पौरुषेय रामायण लिखी। १८२५ में माधोदास गोसाईं ने रघुनाथ लीला नामक ग्रंथ रचा। इसके अतिरिक्त और भी भक्त कवि हुए जिन्होंने समाज में रामभक्ति का प्रसार किया जैसे बिश्नोई समाज के जांभोजी, रामानंद संप्रदाय के पयहारी जी, मीराबाई इत्यादि।
गुजरात में राम
मध्यकालीन गुजरात में विविध रामचरित्रों की रचना हुई । कवि भालण ने ‘रामचरित’ ‘रामबालचरित’ ‘राम विवाह ‘ जैसी राम कथाओं की रचना की। इनका समय १४वीं शताब्दी का माना गया है। कवि गिरिधर की गिरिधर रामायण गुजराती साहित्य का लोकप्रिय और अत्यंत समादृत ग्रंथ है। इस ही प्रकार १७ वीं शती में कवि प्रेमानंद ने गुजराती में एक रामायण की रचना की। १७वीं शताब्दी से ही गुजराती अपने आधुनिक स्वरूप को प्राप्त होना आरंभ हुई।
महाराष्ट्र में राम
महाराष्ट्र में संत एकनाथ महाराज के द्वारा ‘भावार्थ रामायण’ की रचना हुई। इस रामायण की विशेषता यह है कि इसमें उस समय के जन जीवन और राजनीति का दर्शन स्पष्ट रूप से होता है। असुरों का वर्णन तत्कालीन सत्तारूढ़ विदेशियों सा है। समाज को जगाने और धर्म को सुदृढ़ करने हेतु रामचरित्र का गुणगान किया गया है।
वहीं दूसरी ओर स्वनाम धन्य समर्थ रामदास स्वामी थे। इनकी रामोपासना को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। रामोपासना में बल की प्रधानता ही इनकी विशेषता थी। घोर पराधीनता में इन्होंने ही रामोपासना के द्वारा स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त किया इनके द्वारा भी एक लघु बृहत् रामायण की रचना हुई है। पर इसमें राम के वीर रस का बखान है। अर्थात् राम की लंका विजय पर यह ही यह केंद्रित है। मुख्यतः इन्होंने सुंदरकाण्ड और युद्ध काण्ड का ही वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त वारकरी संप्रदाय के राम भक्ति परक अनेक अभंग हैं जिन्होंने श्रीराम आज भी जन जन की जिह्वा पर रक्खा हुआ है।
द्रविड़ देश में राम
तेलेगु भाषा में सन् १३८० के आसपास गोनबुद्धराज रेड्डी ने रंगनाथ रामायण की रचना की। इन्होंने राम का वर्णन अपने नारायण के रूप में ही किया और काव्य की कथा वस्तु अध्यात्मरामायण से मिलती-जुलती है। गिलहरी द्वारा सेतुबंधन में योगदान इस ही रामायण का भाग है।
तेलेगु भाषा में ही कुम्हार जाति में जन्मी अतुकुरी मोल्ला ने मोल्ला रामायण की रचना की। इनका समय सन् १४४०-१५३० का है।
१२वीं शताब्दी में ही तमिल भाषा में कविप्रवर कम्ब ने रामावतारम् की रचना की। यही कम्ब रामायण के नाम से विख्यात है। कहा जाता है दक्षिण भारत में इसे रामचरितमानस जैसा आदर ही प्राप्त है।
मल्यालम में तुंचत्तु रामानुजन एषुत्तच्छन ने एक और अध्यात्मरामायण की रचना की। यह ब्रह्मांड पुराण अन्तर्गत अध्यात्मरामायण से भिन्न है। इनका समय १५वीं -१६वीं शताब्दी के बीच का है।
कन्नड़ भाषा में महाकवि बत्तलेश्वरने तोरवे रामायण की रचना की। बत्तलेश्वर तोरवे ग्राम के निवासी थे अतः तोरवे रामायण नाम प्रसिद्ध है। यह भी उमा महेश्वर संवाद के रूप में लिखी गई। महाकवि का समय १४००-१६०० के मध्य का माना जाता है।
इनके अतिरिक्त परम वैष्णव आलवारों ,त्यागराज स्वामी और भद्राचल रामदास जैसे महान लोक प्रिय भक्त कवि हुए जिनके राम भक्ति परक पद आज भी दक्षिण भारत के सांस्कृतिक जीवन के एक अभिन्न अंग हैं।
उत्कल में राम
१५वीं शताब्दी में महाकवि बलरामदास उड़िया भाषा में जगमोहन रामायण की रचना की। यह दण्डिरामायण के नाम से भी विख्यात है। इसकी रचना इन्होंने जगन्नाथ मंदिर में बैठकर जगन्नाथ की ही आज्ञानुसार की ऐसा माना जाता है ।
उड़िया भाषा में कवि शारलादास विलंका रामायण की रचना की। इनका समय भी १५वीं शताब्दी का माना जाता है। यह भी उमा महेश्वर संवाद के रूप में है परन्तु इसकी कथा वस्तु अद्भुतरामायण जैसी ही है। इसमें भी विलंका देश में रहने सहस्रशिरा नामक रावण का वध भगवति सीता द्वारा होता है।
वंङ्ग देश में राम
तुलसीदास जी से प्राय: १०० वर्ष पूर्व बंगाल में महाकवि कृत्तिवास हुए। अपने आश्रयदाता गौड़ेश्वर की प्रार्थना पर इन्होंने बंगाली भाषा में कृत्तिवासरामायण की रचना की। कवि स्वयं अपनी रचना को वाल्मीकिय, अद्भुत रामायण, अध्यात्मरामायण, जैमिनीयाश्वमेध पर्व और विविध तत्कालीन प्रसिद्ध राम प्रसंगों पर आधारित बताते हैं।
विन्धय के राम
झारखंड की विरहोड़ नामक जनजाति में भी रामकथा अत्यंत महत्वपूर्ण है। विरहोड़ भाषा में ,जो की मुण्डा भाषा समूह की ही एक भाषा है, ‘विरहोड़ रामायण’ प्रसिद्ध है। विरहोड़ जनजाति में इस रामकथा का ही पाठ होता है। इस रामकथा के प्रसंग जनजाति समाज के अनुरूप मूल रामायण से कुछ भिन्न अवश्य है पर श्रीराम की दिव्यता और प्रभुता अक्षुण्ण है।
छोटा नागपुर क्षेत्र की संथाल , मुंडा, मध्यप्रदेश की बैगा भूमिया , अबाद प्रधान जनजातियों की अपनी अपनी रामकथा है। यद्यपि लिखित रूप से इनका साहित्य उपलब्ध नहीं होता है। तथापि मौखिक परंपरा में श्रीराम की लीलाएं जनजाति समाज में भी गाई गई हैं।
मानस, भुषुण्डी रामायण इत्यादि में भी दण्डकवन के भील समाज और श्रीराम के सौहार्द पूर्ण संबंध का दिग्दर्शन कराया गया है। तदनुसार यह जनजातीय समाज भी राम को अपना सुहृद, पूर्वज, इष्ट देवता मानता है ।
इन रामकथाओं में श्रीराम जानकी से, इन जनजातियों के पर्यावरण में दृष्टि गोचर होने वाली वस्तुओं की उत्पत्ति, श्रीराम जानकी से इनके विविध संबंध ,और श्रीराम के प्रति इनकी भक्ति स्पष्ट दिखती है।
इन्हीं कथाओं का संक्षिप्त विवरण दुर्गेश नंदिनी राघव अपने एक लेख में देती हैं जोकी गीताप्रेस के १९९४ के विशेष अंक श्रीरामभक्ति अंक में प्रकाशित है। उन्हीं कथानकों को यहां उद्धृत किया जा रहा है –
मध्यप्रदेश की बैगा भूमिया जाति बांस की उत्पत्ति सीताजी की छठी अंगुली से मानती है। उनके यहां मान्यता है कि सीताजी की छ: अंगुलियां थी। छठी अंगुली को काटकर उन्होंने ने धरती में रोप दिया जिससे बांस की उत्पत्ति हुई।
मुंडा जनजाति में माना जाता है कि रावण वध के उपरान्त श्रीराम सीताजी के साथ शबरी के आवास पर पधारे थे। शबरी की ही गाथा उनके यहां थोड़ी विस्तृत रूप से प्रचलित है।
संथाल समाज में राम माता पुत्रकामेष्ठि यज्ञ से नहीं अपितु गुरु द्वारा दिए गये आम को खाकर गर्भवती हुई और तब राम का जन्म हुआ। राम ने रावण वध के बाद संथालों यहां रहकर एक शिव मंदिर बनवाया। इन्हीं की मान्यता में एक गिलहरी ने सीता की खोज करते हुए राम की सहायता की थी अतः राम ने उसकी पीठ पर तीन अंगुलियां फेरकर तीन रेखाएं करदी जो आज भी दिखती हैं।
ऐसे कुछ उदाहरण उन्होंने दिये। इसके अतिरिक्त मुंडा जनजाति के छाऊ नृत्य का आदि कर्ता स्वयं हनुमान जी को माना जाता है। इनकी मान्यता है जब बाल पन में हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए उनकी ओर उड़े तब देवताओं ने उनकी सूर्य रक्षा करने हेतु भूतल पर विचित्र वेशभूषा धारण कर नृत्य आरंभ कर दिया। इसे देखकर हनुमान जी का ध्यान सूर्य से हट गया और वे भी धरती पर आकर नृत्य में सम्मिलित होगये। तब से छाउ नृत्य की परंपरा आरंभ होगई।
हिमवत् के राम
कश्मीर में १९वीं शती में दिवाकर प्रकाश भट्ट ने कश्मीरी भाषा में ‘ रामावतारचरित ‘ लिखा । यद्यपि यह त्रिपुरसुंदरी देवी के उपासक थे तो भी इनका रामचरित्र में रामभक्ति और ज्ञान का अद्भुत संगम है। इसे प्रकाशरामायण भी कहा गया है। इस काव्य पर रामचरितमानस और अध्यात्मरामायण का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।हिमाचली लोकसाहित्य में भी कई नाटक हैं जो रामायण पर आधारित हैं जैसे कुल्लू का हरण लोक नाट्य राम के मारीच अनुधावन पर आधारित है। ऐसे ही कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में विजयदशमी का पर्व भुषुण्डी रामायण के उत्तर खण्ड के अध्याय ४५.११-१५ में बताई विधि अनुसार मनाया जाता है,जिसमें रघुनाथ जी को रथ में विराजमान कर उनके द्वारा एक कृत्रिम लंका का विध्वंस होता है। इस उत्सव में प्रदेश समस्त देवी-देवताओं का आगमन होता है और वे रावण निग्रह में रघुनाथ जी की सहायता करते हैं।
असमिया भाषा में भी रामपरक साहित्य मिलता है –
१)माधवकन्दलीकृत रामायण -१४वीं-१६वीं शती
२) अनन्तकन्दलीकृत रामायण -१६वीं शती
३)अनंत ठाकुर आता कृत कीर्तनिया रामायण -१७वीं शती
४)शत्रुंजय रामायण १७वीं शती
इसके अतिरिक्त कई रामचरित्र पर आधारित १६ वीं शती के नाटक भी हैं।
गंगा-यमुना के राम
ब्रज भाषा में सूरदास जी ने भी श्रीराम चरित्र का बहुत ही सुन्दर वर्णन अपने पदों में किया। सूरदास जी ने पूरे भागवत का वर्णन पदों के रूप में किया। भागवत के नवम् स्कन्ध में श्रीराम चरित्र मिलता है। सूरदास जी ने इस रामचरित्र को ही पदों का रूप दिया है। उनके इन रामचरित्र परक पदों का संकलन ‘सूररामचरितावली’ कहा गया है। यद्यपि श्रीकृष्ण इनके इष्ट थे तो भी इन्होंने राम और कृष्ण में अभेद बुद्धि रखते हुए ही रामचरित्र गाया। इसे पढ़कर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता की सूरदास जी के इष्ट श्रीकृष्ण हैं।
और गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के विषय में तो कहना ही क्या। उत्तर भारत का कोई ऐसा आस्तिक घर नहीं होगा जिसमें रामचरितमानस की पोथी न हो। यवनों ने जब राम मंदिर पर आक्रमण करके राम का अस्तित्व मिटाना चाहा, उसके कुछ वर्ष बाद ही सन् १५७४ में राम नवमी के ही दिन भगवान् राम तुलसीदास जी की लेखनी से रामचरितमानस के रूप में प्रकट होगये और घर घर में , जन जन में पहुंच गये। उत्तर भारत में कई लोगों को तो मानस कण्ठस्थ ही है। यद्यपि इसकी रचना अवधी भाषा में है तथापि गंगा के उद्गम स्थान से लेकर उसके विलय स्थान तक , हिमालय से लेकर विन्धय तक के क्षेत्रों में बसी हिंदु जाति में इसका वेद तुल्य आदर है।
उपसंहार
अब एक बार पुनः इस लेख का सिंहावलोकन करें और बताएं कि पंजाब,सिन्धु, गुजरात, मराठा ,द्राविड़, उत्कल बंग ,विन्धय, हिमाचल, यमुना- गंगा के भू-भाग में से ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहां रामायण नहीं। मानो हमारा राष्ट्रगान यही उपदेश कर रहा हो कि राम ही जन गण के मन के अधिनायक हैं। महाभारत में वन पर्व के रामोपाख्यान पर्व के अन्तर्गत अध्याय २९०.६० में राम को राष्ट्रपति कहा गया है। और ऊपर दिए गए विवेचन से यह तो सिद्ध ही है कि भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रपति श्रीरामचन्द्र ही हैं।
आशा है कि पौष शुक्ल द्वादशी को जब मंगल भवन अमंगल हारी राष्ट्रपति राम अपने सिंहासन पर विराजमान होंगें तब समस्त शुभ वस्तुएं इस देश को अलंकृत कर देंगी। कलिकाल में भी भारत में रामराज्य छा जाए।
जैसा कि तुलसीदास जी कहते हैं –
राम राज बैठें त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
श्री रामचंद्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे।
रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है।
ऐसे कई महान रामभक्त होगये जिन्होंने अपने जीवन में प्रभु के लौटने के लिए कठोर व्रत या नियम धारण किये। पर सशरीर यह नहीं देख सके। होइहि सोइ जो राम रचि राखा…
पर हम अत्यंत भाग्यशाली लोग हैं जो प्रभु हमारे समक्ष लौट रहे हैं। अतः इस अवसर को हम हल्के में न लें। त्रेता में तो राम १४ वर्षों में लौटे थे पर कलिकाल में ५०० वर्षों के बाद लौट रहे हैं। जिस कलिकाल में सैंकड़ों वर्षों के तप का फल एक दिन में ही मिलता है उस ही कलिकाल में ५ शताब्दियों तक भक्तों को भगवान के लिए कठोर तप करना पड़ा। अतः खूब उत्साह और आनन्द से उत्सव मनायें और श्रीराम का स्वागत करें ।
श्रीरामार्पणमस्तु
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