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श्री रामागमन : भाग – २

माई, ए माई!”

अभी सूर्य के निकलने में समय था। हालांकि रात्रि का धुप्प अंधेरा इस प्रहर तनिक दुर्बल हो चुका था। नगर की संकुल बसावट से तनिक दूर उपवन में निर्मित इस छोटी सी फूस और अरहर के डंठलों से बनी झोपड़ी के अंदर बैठी बुढ़िया यद्यपि पूरी तरह जगी हुई थी, परन्तु वह वर्षों से समाज का बहिष्कार सहती आ रही थी। उसे लगा ही नहीं कि कोई उसे भी पुकार सकता है।

“माई, अभी तक सो रही है क्या? बाहर निकल, मुझे इतनी प्रतीक्षा न करवा। आज बहुतेरे काम हैं मुझे।” ऊँची आवाज में बोले गए इन वाक्यों ने बुढ़िया को बाहर आने पर विवश कर दिया। अपने नेत्रों को तनिक सिकोड़कर बुढ़िया ने सामने खड़ी  श्वेतवस्त्रधारिणी गरिमामई स्त्री को पहचानने का प्रयास किया और पहचान के चिह्न दिखते ही धड़धड़ाते हुए उसके चरणों में गिर गई।

“क्षमा स्वामिनी, क्षमा। महारानी, क्षमा।”

स्त्री ने बुढ़िया को अपने चरणों से छुड़ाया और उसे उठाते हुए बोली, “किस अपराध की क्षमा मांगती है माई? वह अपराध जो मैंने भी किया था? एक अपराधिनी दूसरी से क्षमा कैसे मांग सकती है? आ, यहां मेरे निकट बैठ। और बता कि जब आज सारी नगरी उठी हुई है, नगर और अपने घरों को सजा रही है, तब तू यहां अपनी झोपड़ी में क्यों बन्द है?”

“स्वामिनी, मैं, मैं दुष्टा हूँ, कलंकिनी हूँ। अयोध्यावासियों से उनके राम को छीनने वाली राक्षसी हूँ। सुना कि रावण ने सीता का अपहरण किया, उन्हें राम से दूर किया। मैंने तो राम को ही उनके परिवार, उनके समाज और उनके नागरिकों से दूर कर दिया था। मैं … … …।” मंथरा का वाक्य पूरा नहीं होने दिया महीयसी ने। उसके मुख से निकलते वाक्यों को अपने हाथों से रोकते हुए कैकई बोली, “अरे माई, तू जो यह सब कह रही है, मेरे हृदय को जैसे अपने नखों से कुरेद रही है। तूने कहाँ यह सब किया? तूने तो बस अपना परामर्श दिया था। उसका क्रियान्वयन तो मैंने किया था। कोई अपराधी है, तो वह मैं हूँ।”

मंथरा ने पुनः कैकई के पाँव छू लिए। उसके हाथों को अपने हाथों में पकड़कर कैकई बोली, “माई, हम दोनों ही अपनी ममता के हाथों छली गईं। तूने मुझे बचपन से पाला है, मेरी माँ की भांति मेरा ध्यान रखा। स्वाभाविक रूप से तेरा प्रेम मेरे भरत को मिला। तेरा उसे राजा बनते देखने की चाह भी स्वाभाविक ही थी। आज सोचती हूँ तो भरत के प्रति तेरी ममता मुझे मुझसे अधिक श्रेष्ठ लगती है। मैं राजरानी थी, भरत के राजा बनने पर राजमाता हो जाती। अधिक अधिकार, अधिक सत्ता, अधिक वैभव की स्वामिनी। पर तू तो मेरे मायके में भी सेविका थी, तब भी सेविका थी, और भरत के राजा बनने पर भी सेविका ही रहती। तेरा प्रेम तो निःस्वार्थ था।”

“बिटिया…”।

“माई, यह सुनने को कान तरस गए थे। पिछले चौदह वर्षों से किसी ने इतने प्रेम से नहीं पुकारा मुझे। हाँ रे माई, तेरी बेटी ही हूँ, पर कैसी नीच बेटी जिसने इतने वर्षों तक तेरी सुध नहीं ली। समान अपराध की दोषी होते हुए भी मैं आज राजमाता हूँ और तू यहां इस बियावान में परित्यक्ता का जीवन जी रही है।”

“बिटिया, मुझे कोई कष्ट नहीं है। उस मनहूस दिन जब राम ने अयोध्या की सीमा पार की, तभी से अयोध्या ने मुझे त्याग दिया था। राजमहल की सेवा से मुक्त हुई, और किसी नागरिक ने मुझे आश्रय नहीं दिया। पर बिटिया, यह मेरे भरत का राज है। उन्होंने मुझ पापी को भी भूखे नहीं मरने दिया। उन्होंने ही मेरे लिए इस कुटिया का निर्माण कराया, और चूंकि किसी को भी मेरी सेवा नहीं चाहिए थी, तो मुझे राजकोष से प्रतिमाह अन्न और प्रतिवर्ष वस्त्र दिए।”

कैकई के नेत्रों से जलधारा बह निकली, “भरत! मेरे भरत ने अच्छा किया माई। तेरी सुध ली, राजा का कर्तव्य निभाया। जानती है माई, उसने मेरे साथ भी राजाओं की भांति ही व्यवहार किया। मुझे किसी भी भौतिक वस्तु की कमी न होने दी। इससे बड़ा दंड कोई पुत्र अपनी माता को क्या दे सकता है कि वह उसकी भौतिक सुविधाओं का तो ध्यान रखे, पर माता की ममता को अपने निकट न आने दे। मेरे साथ सही हुआ। मैं भी तो उसे राजा बनाना चाहती थी। वह राजा बन गया, पर उसने मुझे माता मानने से मना कर दिया।

“अस्तु, चल माई। मेरे साथ चल। तू कितनी भाग्यशाली है कि शत्रुघ्न ने तुझे लात मारकर दंड दे दिया था। आज मेरी बारी है। आज मेरे अपराधों का न्याय करने वाला आ रहा है। श्रीराम आने वाले हैं। चल, हम सरयू के तट पर उसकी प्रतीक्षा करते हैं। मेरे पुत्र भरत ने वहीं पर एक चिता का निर्माण किया है। राम नहीं आये तो भरत अग्निस्नान करेगा। तब मैं भी जीकर क्या करूंगी। और राम आ गए, और उन्होंने भी मुझे क्षमा नहीं किया तो वह चिता मेरे काम आएगी। पर उसके पूर्व मैं राम से प्रार्थना करूंगी कि वे तुझे मुक्त कर दें।”

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