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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार भाग XVII

बड़े सामाजिक स्तर पर स्वास्थ्य को कैसे क्रियान्वित किया जा सकता है?

कोरोना जैसा वैश्विक संक्रमण को आयुर्वेद में जनपदोध्वंस कहा जाता है। चरकसंहिता के जनपदोध्वंसनीय अध्याय में इसका सम्यक वर्णन है। भूमि, वायु, जल तथा काल के दूषित हो जाने के कारण मरक अथवा बड़े स्तर पर प्राणहानि करने वाले रोग फैलते हैं। इसका मूल कारण अधर्म बताया गया है। जनता अपने स्वास्थ्य-संबंधी उपदेशों, बताए नियमों पर ध्यान नहीं देती तथा राज्य (शासन) भी अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य-संबंधी कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता तभी ऐसी दुःस्थिति उत्पन्न होती है। ऐसा होने पर व्यापक क्षेत्र के लिये जल के शोधन की, भूमि तथा वायु के शोधन की विधियाँ भी आयुर्वेद में बताई गयी हैं। संक्रामक रोग की धारणा स्पष्ट है तथा उन संसर्गज दोषों की शांति के विधान भी बताए गए हैं। ऐसे रोगों को छिपाने पर पहले दण्ड दिए जाने का प्रावधान था।

वायु के शोधन का एक मुख्य उपाय सामूहिक यज्ञ बताए गए हैं जिससे कीटाणुओं का नाश होता है तथा वायुशुद्धि होती है। इस प्रकार से व्यापक स्तर पर समाज के स्वस्थवृत्त को सुरक्षित रखा  जाता था। जो आज के समय में भी करना संभव है। उसके लिए सामूहिक रूप से पुरुषार्थ की तथा तत्परता की आवश्यकता है तथा ये शासन की नहीं हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।

वात-पित्त-कफ ये तीनों शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं इसलिये इन्हे त्रि-स्तम्भ कहा गया है। आहार, शयन (निद्रा) तथा ब्रह्मचर्य इन तीनों को उपस्तंभ कहा गया है। चक्रपाणि के अनुसार जो प्रधान स्तम्भ (वातादि दोष) के समीप रहकर शरीर को धारण करता है उसे उपस्तंभ कहते हैं। इन तीनों के उचित प्रकार से सेवन से शरीर का बल तथा वर्ण पोषित होता है। इसमें आहार मुख्य है। शुद्ध आहार सेवन करने से सत्व गुण की वृद्धि होती है। यह सतवगुण, स्मृति में स्थिरता लाता है। हित तथा सात्विक आहार से मानसिक स्वास्थ्य बनता है। इसमें भी अधिक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि पथ्य आहार (हिताहार) सेवन करने वाले व्यक्तियों को औषधियों का (तथा आज के समय  में सप्लीमेंट्स का) उपयोग आवश्यक नहीं होता।

निष्कर्ष : सामाजिक आरोग्य तथा व्यक्तिगत स्वास्थ्य से बनता है स्वस्थवृत्त !

ऐसे में दो मूलभूत बातें ध्यान देने योग्य हैं।

प्रथम:- मनुष्य एक प्राकृतिक कृति है। वह जितना प्रकृति व प्राकृतिक वस्तुओं के बीच में तथा सपंर्क में रहेगा, उसमें उतनी अधिक समता रहेगी। तथा उनसे जितना दूर जाएगा, मानव-निर्मित कृत्रिम वस्तुओं का प्रयोग करेगा व संपर्क में रहेगा उतना अधिक विषम यानि अस्वस्थ रहेगा।

द्वितीय:- स्वस्थ रहने के लिए हम आजकल इतना कुछ करते हैं, किन्तु कुछ मौलिक सिद्धांतों को पूरी तरह से अनदेखा करते हैं, जिसके फलस्वरूप अत्यधिक प्रयत्न करते रहने पर भी पूर्व स्वस्थ नहीं रह पाते हैं। कुछ न कुछ समस्या, कोई व्याधि सताती ही रहती है।

इस पत्र में हमने स्वस्थ रहने के लिए पालन करने योग्य नियमों तथा उपायों को आहार के सिद्धांतों तथा आचार रसायन के आहार-विहार-व्यवहार के नियमों के माध्यम से भली प्रकार जाना। इन्हें अपनाने के लिये  अपनी जीवनशैली में कई सारे परिवर्तनों की आवश्यकता हो सकती है। इनमें से अनेक नियम/सिद्धांत  असाध्य, मुश्किल, अप्रायोगिक लग सकते हैं तो हमारी ऐसी इच्छा हो सकती है कि इसमें से कुछ एक चुन कर उनका पालन कर लें। ये ध्यान रखने वाली बात है कि इनको अपने अनुसार अपनी सहजता से चुनना हमें पूर्ण स्वास्थ्य की ओर नहीं ले जाएगा। आजकल की सबसे बड़ी भ्रांति ये है कि हम अपनी मर्ज़ी से चुनते हैं कि मै अपनी जीवन शैली के कारण ये कर सकता हूँ तथा ये नहीं कर सकता। या जो मैं करता  हूँ वह पर्याप्त है या अपनी इस परिस्थिति में मैं इतना ही कर सकता हूँ – अपने को दिए ऐसे तर्क हमें  स्वस्थ रखने में सहायक नहीं होंगे।

समझने की सरल बात है कि स्वस्थ रहने के लिये जो करना चाहिए यदि वो नहीं करेंगे तो स्वस्थ नहीं रहेंगे।

यदि हम स्वस्थ रहना चाहते हैं तथा स्वस्थवृत्त की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं, उसे फैलाना चाहते हैं तो व्यक्तिगत स्वास्थ्य के आयुर्वेद के कालातीत दिशा-निर्देशों के माध्यम से हम सभी को स्वस्थ रहना होगा। यह दिशा-निर्देश किसी देश, समुदाय, वर्ग-विशेष के लिये नहीं है बल्कि सभी लोगों के लिये, मानव-जाति के लिये हैं। व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य पहला लक्ष्य है।

उसी प्रकार आचार-रसायन तथा चर्या का पालन तथा उसके द्वारा मानसिक व वैचारिक स्वास्थ्य की प्राप्ति दूसरा लक्ष्य है। व्यक्तिगत मानसिक स्वास्थ्य से परस्पर सदवृत्त का निर्माण होता है जो सामाजिक वातावरण को शुद्ध करता है, सँवारता है। सामाजिक स्वास्थ्य, व्यापक सृष्टि के स्वास्थ्य तथा उसकी समता को बनाए रखने के लिये कार्यरत रहते हैं। एक-एक व्यक्ति करके हम सभीसे समाज बनाता है तथा इन्हीं व्यक्तियों का सामूहिक स्वास्थ्य सामाजिक स्वास्थ्य का निर्धारण करता है। विषमताओं तथा बाधाओं को ठीक करना समाज के सभी व्यक्तियों व शासन दोनों का धर्म व उत्तरदायित्व है। इस प्रकार हम सामाजिक स्तर पर भी स्वस्थवृत्त की स्थापना कर सकते हैं।

संदर्भ:

  • पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी (वाराणसी) के उपलब्ध आयुर्वेद ग्रंथ संशोधन
  • संस्कृति आर्य गुरुकुलम द्वारा आयोजित आयुर्वेद सत्र व प्रशिक्षण
  • स्वाध्याय
  • सुश्रुत संहिता
  • चरक संहिता
  • अष्टांग हृदयम्
  • भाव प्रकाश
  • योगरत्नाकर
  • आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास – आचार्य प्रियव्रत शर्मा
  • स्वस्थवृत्त सुधा – डॉ.काशीनाथ समगंडी व डॉ.जागृति शर्मा

 शब्दकोष :

  1. Health Industry
  2. Jigsaw puzzle
  3. Interdependency
  4. Good to have
  5. UV rays
  6. Frequency
  7. Bowl movement
  8. Piles
  9. Menstruation
  10. Disinfection
  11. Recurring-account

सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं.

Feature Image Credit: istockphoto.com

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