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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार भाग XV

ऋतुसम्यक आहार

ऋतुओं के अनुसार आहार तथा व्यवहार में परिवर्तन का आदी होने को ऋतुसात्मय कहते हैं। यदि कोई बाहरी वातावरण में परिवर्तन के अनुसार आहार तथा जीवन शैली या गतिविधियों को संशोधित कर सकता है, तो वह अच्छा स्वास्थ्य तथा कल्याण प्राप्त कर सकता है – ऐसा चरक बताते हैं।

तस्याशिताद्यादाहाराद्बलं वर्णश्च वर्धते यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेष्टाहारव्यपाश्रयम्।।

जो व्यक्ति ऋतुसात्मय को, ऋतुओं के अनुसार आहार तथा व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, तथा ऐसे व्यवहार का समय पर अभ्यास करता है, तथा जिसके आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, उसका बल तथा ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, तथा वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है। ऋतु के अनुरूप आहार-विहार की चर्चा दूसरे खंड में ऋतुचर्या में की गयी है।

पाचन व जठराग्नि का महत्व तथा अपथ्य के परिणाम

आजकल के समय की व्यापक स्वास्थ्य-समस्या का मूल है – अजीर्ण अर्थात अपच – भोजन का न पचना। भाव प्रकाश में उसके कारण स्पष्ट रूप से बताए गए हैं:

आहार-

अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च संधारणात् स्वप्नविपर्ययाच्च। कालेsपि सात्मयं लघु चापि भुक्तमन्नं पाकं भजते नरस्य।। 

ज्यादा जल पीने से, विषम – थोड़ा या अधिक, जल्दी या देर से भोजन करने से, मलमूत्रादि के वेग रोकने से, शयन का विपर्यय से अर्थात दिन में शयन तथा रात में जागने से अथवा जिसको जिस समय शयन या जागना अभ्यस्त हो उस समय न शयन तथा न जागने से – तथा लघु तथा ठीक समय पर भोजन न करने से खाया हुआ अन्न नहीं पचता है।

व्यवहार-

ईर्ष्याभयक्रोधसमन्वितेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन।।  विद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्परिपाकमेति।।

जो ईर्ष्या, भय तथा क्रोध से युक्त तथा लोभी है एवं रोग तथा दीनता से पीड़ित तथा द्वेष से युक्त रहते हैं उनका भी भोजन किया हुये अन्न का भली-भांति पाचन नहीं होता, अतः अजीर्ण न हो इसके लिये इन सभी कर्मों का त्याग करना चाहिए।  जठराग्नि को बचाना तथा उसे सम रखना सभीसे अधिक आवश्यक है।

जठराग्नि मंद होने से अजीर्ण व आम (बिना पचा, कच्चा रस जो रक्त बनता है) होता है तथा यदि अग्नि का असंतुलन हो तो मन स्थिर नहीं रहता, व्यक्ति व्यथित तथा उद्विग्न रहता है। अतः व्यक्ति का सभीसे अधिक ध्यान अपने आहार को पूर्ण रूप से पचाने पर तथा अपनी जठराग्नि को सम रखने पर होना चाहिए। आहार, विहार तथा व्यवहार ऐसा होना चाहिए जिससे भोजन के पचने में बाधा न आये तथा भोजन को पचाने में सहायता हो।

ऋतुचर्या में भी हेमंत ऋतु में अधिक व गुरु खाने के लिये इसलिये बताया गया है कि काल स्वभाव के कारण यानि ठंड के कारण रोम-छिद्र अवरुद्ध हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं, जिसके कारण शरीर में अग्नि अधिक हो जाती है तथा जठराग्नि अधिक बलवान हो जाती है। अतः शरीर अधिक आहार ग्रहण कर सकता है तथा पचा सकता है। शरीर का प्राकृतिक तंत्र इतना अद्भुत है कि शीत ऋतु में लिये गये आहार के बल को पूरे वर्ष संचित करके रखता है तथा समय पड़ने पर (जैसे ग्रीष्म, वर्षा ऋतु में) शरीर को पोषण व ऊर्जा देने में उस संचित बल का प्रयोग करता है।

विरुद्ध आहार

साधारण रूप से किसी भी भोजन के खाने के पश्चात पचकर उसके  दो भाग हो जाते हैं – सार व कीट। पोषक द्रव्य के रूप में उसका रूपांतरण हो जाता है वो सार होता है (जिसका रस धातु बनती है) तथा जिस भाग का पोषक द्रव्य के रूप में रूपांतरण नहीं हो पाता है वह (कीट भाग) मल के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है।

उदाहरण के लिये : जब जल को उबालते हैं तब या तो उसका भाप के रूप में परिवर्तन/ रूपांतरण हो जाता है या वह उबलकर बाहर निकल जाता है। कुछ ऐसे आहार होते हैं जिनका या तो रूपांतरण नहीं हो पाता, वह पकते/पचते नहीं हैं तथा दूसरा वो शरीर में पड़े रहते है, शरीर से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसा शरीर में पड़ा हुआ आहार विष बनता है तथा इसके कारण शरीर में विषमताएं आती हैं, बहुत-से रोग होते हैं। ऐसे आहार को विरुद्धाहार कहते हैं। ये दोष को प्रकुपित करते हैं, शरीर की प्रणाली को अस्त-व्यस्त करते हैं (शरीर को कष्ट देते हैं) तथा दूसरे वो शरीर से बाहर नहीं निकल पाते।   न तो ये पच कर शरीर में समा पाते हैं तथा न निकल पाते हैं। विरुद्धाहार पूरी तरह अपथ्य है। अधिकतर त्वचा के रोग, रक्त के रोग तथा उदर के रोग विरुद्धाहार के कारण होते हैं।

ऐसे कौन से आहार हैं जो विरुद्धाहार कहलाते हैं? बहुत से आहार द्रव्य होते हैं, ये अलग-अलग तो साम्य होते हैं सही होते हैं, किन्तु प्राकृतिक रूप से एक-दूसरे के साथ मेल नहीं खाते हैं, उन्हे यदि साथ में लिया जाए तो ये विरुद्धाहार हो जाते हैं। जैसे मनुष्य का मन मुख्य होता है, उसी तरह आहार का तन (उसका प्रभाव मुख्य होता है।

चरक संहिता में ऐसे आहार सूत्रबद्ध हैं-

  1. जो एक साथ नहीं लेने हैं ;
  2. दूसरी विधि से नहीं लेने हैं तथा
  3. एक के पश्चात एक नहीं लेने हैं , आदि।

ऐसे 18 प्रकार के विरुद्धाहार हैं :

उदाहरण के लिये:

  1. रात को दही खाना काल विरुद्ध है।
  2. भोजन के पश्चात जल पीना क्रमविरुद्ध है तथा पहले पीना अग्निविरुद्ध है क्योंकि पहले पिया जल जठराग्नि को मंद कर देता है।
  3. घी तथा मधु को समान मात्रा में मिलाना (ये विष बन जाता है) ये संयोगविरुद्ध है।
  4. जठराग्नि के बुझ जाने पर, भोजन के समय में देरी से भोजन करना कालविरुद्ध है।
  5. मिल्क्शेक एक ऐसा विरुद्धाहार है जो आजकल सर्वाधिक लोकप्रिय आहार है। फल और दूध साथ लेना संयोगविरुद्ध है।

इसके प्रत्येक प्रकार के विरुद्धाहार पर संस्कृति आर्य गुरुकुलम् के संशोधन-व्याख्यान उपलब्ध हैं, इस अति महत्वपूर्ण विषय के विस्तार के लिये उन्हे देखा जा सकता है।

सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं.

Feature Image Credit: istockphoto.com

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