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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार

प्रस्तावना

आज के समय में सभी से अधिक प्रभावित कोई वस्तु अथवा अस्तित्व है तो वो स्वास्थ्य है। उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करना, स्वस्थ रहना सभी की ही इच्छा होती है।  उत्तम स्वास्थ्य हेतु सभी अनेक प्रकार के उपाय करते रहते हैं, कृत्रिम फूड सप्लीमेंट लेते हैं, भांति-भांति के व्यायाम के साधन तथा युक्तियाँ अपनाते हैं। वर्तमान में स्वास्थ्य कदाचित  विशालतम उद्योग या व्यवसाय है। दवा बनाने वाली कंपनियाँ, भोज्य पदार्थ के विकल्प बनाने वाली कम्पनियाँ, जिम, प्रशिक्षक, (योग नहीं) योगा कराने वाले समूह/संगठन, अस्पताल, दवा बेचने वाले व्यावसायिक, पैथोलॉजी लैब्स, आहार-विज्ञानी तथा डॉक्टर- ये सभी स्वास्थ्य उद्योग 1 के ही भाग हैं। इसके  अतिरिक्त निजी स्तर पर लोग, विशेषकर बड़े शहरों में रहने वाले जन, नित नयी-नयी अनेक प्रकार की पद्धतियों को प्रयोग में लाते दिख जाते हैं। आपसी भेंट में आमजन सर्वाधिक स्वास्थ्य के विषय पर ही चर्चा करते पाए जाते हैं कि किस प्रकार उनके द्वारा अपनाई गयी, स्वास्थ्य बनाये रखने की प्रणाली अथवा चर्या  जिसे आमतौर पर डेली रूटीन कहा जाता है, सर्वश्रेष्ठ है। कुछ दिन पश्चात वही लोग किसी तथा प्रणाली या नयी आयी पद्धति से कुछ नया करते दिख जाते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति एक उपयोगकर्ता पुस्तिका यानि यूजर्स मैन्युअल की भांति, किसी कुंजी की तलाश में दिखता है। चूँकि प्रत्येक प्रणाली, पद्धति, चर्या में सीमित निर्देश होते हैं तथा इनका एक का दूसरे से कम ही संबंध होता है, इस प्रकार की अनेक कुंजियाँ उसके पास संकलित हो जाती हैं। इन सभीको मिला कर इस स्वास्थ्य की जिगसाव 2 के समाधान को आधुनिक व्यक्ति हमेशा ढूँढता ही रहता है। आश्चर्य की बात यह है कि फिर भी ना तो व्यक्ति का अस्वस्थ होना कम हुआ है तथा ना ही अकस्मात गंभीर रोगों का अकस्मात प्रकट होने में कमी आयी है। इसी प्रकार ना तो अस्पतालों में रोगियों की संख्या में कमी आयी है तथा न ही दवाइयों का उपभोग कम हुआ है बल्कि दिन-प्रतिदिन स्वास्थ्य का स्तर गिर रहा है, रोग तथा रोगी बढ़ रहे हैं। वातावरण दूषित होता चला जा रहा है। आधुनिक भौतिक विज्ञान की इतनी प्रगति के पश्चात भी प्राकृतिक आपदा तथा कोरोना आदि जैसे वैश्विक बीमारियों से बड़े स्तर पर लोग तथा समाज प्रभावित हो रहे हैं।

इन्ही कारणों के चलते आधुनिक वैज्ञानिक, अनेक साधन, श्रम, बुद्धि तथा गहन शोध द्वारा इन समस्याओं के समाधानों की खोज में निरंतर प्रयासरत रहते हैं। अन्य देशों के, विशेषकर पाश्चात्य देशों के, वैज्ञानिक व नागरिक इन समाधानो के लिए इस कारण प्रयासरत हैं कि उनके पास इसके लिए पूर्व में उपलब्ध कराया गया सिद्ध व विस्तृत ज्ञान-विज्ञान नहीं है। काल के साथ भारत में जो वैज्ञानिक व संस्कारिक पतन आया है, उसने दुर्भाग्यवश, हमें यह देखने से रोक रखा है कि इसके लिए भारत को नए शोध करने की तथा पाश्चात्य शोधों की मुँह बाए प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। इन समस्याओं के समाधान तथा नवीन समाधान ढूँढने की प्रणाली भी आयुर्वेद में निहित है।

भारत का आयुर्वेद एक पूर्ण जीवन स्वस्थ रखने का विज्ञान है, मात्र रोग-निदान का नहीं। चूँकि यह एक पूर्ण विज्ञान है इसलिए व्यक्ति के अस्वस्थ होने की स्थिति में रोग के निदान तथा चिकित्सा का भी प्रावधान है। वह चिकित्सा भी अति विस्तृत व सूक्ष्म है जिसके हर पक्ष पर विचार किया गया है तथा व्याधि/रोग का उपचार कर व्यक्ति की स्वस्थ स्थिति को पुनःलाने के उपाय बताये गए हैं। आयुर्वेद पूर्णतया विकसित है। अनेक कालातीत विचार, नियम, चिकित्सा तथा प्रणालियों को जन-कल्याण के लिए आयुर्वेद के ज्ञाताओं, ऋषि-मुनियों ने संकलित करके हमारे हाथों में एक कुंजी की तरह ही दिया है। किन्तु इस कुंजी को पढ़ने की एक विशेष पद्धति है जो अब सार्वजनिक नहीं रह गयी है अतः हम आयुर्वेद के ग्रंथों के परंपरागत रूप से शिक्षित ज्ञाताओं के मार्गदर्शन में ही ऐसा कर पाते हैं। सौ-दो सौ वर्षों पहले तक स्वास्थ्य का ये सभी प्रायोगिक ज्ञान, नित्य किये जाने वाले कार्यों तथा नित्य पालन किये जाने वाले नियमों के माध्यम से सार्वजनिक था। इसलिए वैयक्तिक स्वास्थ्य की स्थिति अच्छी रहा करती थी परन्तु वर्तमान में स्थिति इस प्रकार नहीं है।

आयुर्वेद के दो उद्देश्य कहे गए हैं। प्रथम स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा तथा द्वितीय रोगी के विकार का शमन यानि उसकी चिकित्सा तथा शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि की सम अवस्था का पुनः स्थापन।

इस आरोग्य तथा स्वस्थता की प्राप्ति के लिए आयुर्वेद का अत्यंत उत्कृष्ट व प्रभावी विचार है स्वस्थवृत्त!

स्वस्थ के लक्षण तथा उनके कारण व साधन का यह स्वस्थवृत्त, आयुर्वेद का, विश्व को दिया गया एक अद्भुत विचार है।

इस शोधपत्र ‘स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार’ के माध्यम से इसी स्वस्थवृत्त को जानने तथा समझने के लिए विवेचना की गयी है। स्वस्थवृत्त क्या है, इसके क्या घटक हैं, इसे कैसे स्थापित किया जाता है तथा इसके द्वारा व्यक्ति के स्वास्थ्य तथा समाज के स्वास्थ्य को कैसे बना के रखा जाता है, इसका विस्तार है। भोजन व आहार अपने आप में अत्यधिक विस्तृत तथा मुख्य विषय है, एक उपविषय के रूप में उसका विस्तार यहाँ नहीं किया गया है।  मात्र उसके मुख्य सैद्धांतिक नियमों को इस शोध-पत्र में सम्मिलित किया गया है।

आधुनिक जीवन में ढले तथा जीवनयापन करते हुए, जन-साधारण क्या तथा किस प्रकार स्वस्थवृत्त का पालन कर स्वस्थ रह सकते हैं, इसकी प्रारंभिक भूमिका इस शोध-पत्र के माध्यम से सूचित की गयी है। इस शोध-पत्र के पश्चात यहाँ बताये सिद्धांतो व नियमो का तथा विशेष रूप से आहार का विस्तृत विश्लेषण जारी रहेगा।

पहला खंड: स्वस्थवृत्त

आयुर्वेद रोग निवारण का नहीं, जीवन स्वस्थ रखने का विज्ञान है। चार पुरुषार्थ से सृष्टि का अस्तित्व है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ! इनमें एक पुरुषार्थ – मोक्ष साध्य है तथा अन्य तीन अर्थात धर्म, अर्थ तथा काम इस चौथे पुरुषार्थ मोक्ष का साधन हैं। इन तीन पुरुषार्थों का साधन है आरोग्य ! तथा इस आरोग्य की प्राप्ति का साधन है ‘स्वस्थवृत्त’! ये स्वस्थवृत्त की संक्षिप्त व्याख्या है।

स्वस्थ वृत्त क्या है?

स्वस्थ वृत्त में पहला शब्द है, ‘स्वस्थ’। ‘स्व’ अर्थात आत्मा, उसमें स्थित रहने वाला स्वस्थ कहा जाता है।  स्वस्थ एक स्थितिवाचक शब्द है, गतिवाचक नहीं। स्वस्थ होना एक स्थिति है। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिये क्या मात्र शरीर आवश्यक है? हाँ! शरीर आवश्यक है, परंतु शरीर के साथ इंद्रिय, मन तथा बुद्धि ये सभी भी उसी स्थिति में हों ये भी आवश्यक है, तभी व्यक्ति स्वस्थ रहता है, अन्यथा नहीं। स्वस्थ रहने के लिये शरीर की क्रियाओं का स्वस्थ रहना आवश्यक है। इंद्रियों की क्रिया व उनकी स्थिति, मन की क्रिया तथा उसकी स्थिति, बुद्धि की क्रिया तथा स्थिति, इन सभीको इस अवस्था में लाना आवश्यक है, यानि स्वस्थता को लाना आवश्यक है। शरीर, इंद्रियों, मन, तथा बुद्धि हेतु जो नियम हैं उनको वृत्त कहा जाता है। इन नियमों का जो परिणाम है उसे नाम दिया गया है – स्वस्थ वृत्त!

ये किसी एक ग्रंथ अथवा संहिता में संकलित या लिखे नहीं है। ये विभिन्न आयुर्वेद व योग के ग्रंथों में विस्तृत हैं तथा भिन्न स्थानों में इसका अनेक प्रकार से विवरण है।

स्वस्मिन् स्थान स्वास्मिन् कर्मणि स्वसु रूपे स्थीयते तत् वृतं स्वस्थवृत्तं।

जो नियम या कर्म या वृत्ति, व्यक्ति के स्वास्थ्य को अपने प्राकृतिक स्थान पर प्राकृतिक रूप में रखें तथा उन कार्यों को करते हुए स्वास्थ्य को बनाये रखें, उसे स्वस्थ-वृत्त कहते हैं।

भारतीय शास्त्रों में स्वास्थ्य तीन प्रकार का बताया गया है – शारिरिक, मानसिक तथा वैचारिक/आध्यात्मिक! शारीरिक स्वास्थ्य शरीर के स्तर पर, मानसिक स्वास्थ्य मन तथा बुद्धि के स्तर पर तथा वैचारिक/आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्रज्ञा तथा आत्मा के स्तर पर विद्यमान माना जाता है।

अब प्रश्न ये आता है कि स्वस्थ किसे कहते है? शरीर, मन, बुद्धि, इंद्रियों का स्वास्थ्य किस तरह का है? इसके लिये आयुर्वेद बताता है कि शरीर क्या है, कैसा है, उसकी स्वस्थ स्थिति कैसी है –

‘समदोष समाग्निश्च समधातु मलक्रिया

सभी दोष, अग्नि, धातु, मलक्रिया सम हों तो शरीर की स्थिति स्वस्थ है।

तीन दोषों की समता – वात , पित्त तथा कफ ;

समस्त १३ अग्नियों की समता- पंचमहाभूतअग्नि (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश), रस रक्त आदि सप्त धातुओं की अग्नि तथा जठराग्नि ;

सप्त धातुओं की समता – रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, ओज (शुक्र अथवा रजस धातु) ;

तथा सभी मलों का पोषण, धारण तथा निर्गमन क्रियाओं की समता –

ये सभी जिसमें विद्यमान हों, उसे स्वस्थ कहते हैं। शरीर के स्तर पर ये चार बातें होनी चाहियें तो स्वास्थ्य बना रहता है।

प्रसन्नात्मेन्द्रियमना: स्वस्थ इत्याभिधीयते

आत्मा, इन्द्रिय तथा मन की प्रसन्नता जिसमें विद्यमान हो उसे स्वस्थ कहा जाता है। इस प्रकार ऊपर बताये गये त्रिदोष, अग्नि, धातु, मलक्रिया सम हों तथा आत्मा, इन्द्रिय तथा मन प्रसन्न अवस्था में हों तो व्यक्ति स्वस्थ है।

यह सर्वाधिक सारगर्भित स्वास्थ्य की परिभाषा सुश्रुत ने दी है। भाव मिश्र ने भाव प्रकाश में स्वस्थ के  चौदह लक्षणों का वर्णन किया है। इसी प्रकार चरक ने भी स्वस्थ की व्यापक परिभाषा दी है:

नरो हिताहार विहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेश्वसक्तः।

दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोवसेवी च भवत्यरोगः।

हितकर आहार-विहार का सेवन करने वाला, सोच-विचार कर उसके अनुसार कर्म करने वाला, जो विषयों में न फँसा हो (अपनी इंद्रियों का दास न हो, अर्थात प्रसन्नचित्त हो), सभी प्राणियों के प्रति एक-समान भाव रखने वाला, मन वचन तथा कर्म से सत्य का सर्वदा पालन करने वाला, क्षमाशील, विद्वानों व सज्जनों का संग करने वाला व्यक्ति स्वस्थ रहता है।

इसके लिये जो नियम बने कि कौन सी क्रियाएं कौन सा आहार-विहार करने से शरीर के दोष, धातु, अग्नि, मलक्रिया सम रहे तथा कौन सी क्रियाएं , कौन सा आहार-विहार करने से आत्मा, मन व बुद्धि प्रसन्न रहे – वे सभी स्वस्थ वृत्त के नियम के अंतर्गत आती हैं। जो क्रियाएं अथवा आहार-विहार इन नियमो के विपरीत होता है, वह निषिद्ध की श्रेणी में आता है। जैसे –

तत्र खलविमान्यष्टाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति: तद्यथा –

प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेश कालोपयोग संस्थोपयोक्त्रष्टमानि। (च. वि. 12)

चरक द्वारा बताये गये अष्टायतन – प्रकृति, करण (संस्कार), संयोग, राशि (मात्रा), देश, काल (समय), उपयोक्त (आहार का सेवन करने वाला) तथा उपयोग संस्था – के विपरीत क्रिया तथा आहार-विहार को विधि-विरुद्ध कहा जाता है।

क्या सामाजिक स्वास्थ्य प्रत्यक्ष रूप में स्वस्थवृत्त का भाग है अथवा सामाजिक स्वास्थ्य परोक्ष रूप से स्वस्थवृत्त का भाग है?

सत्य यह है कि स्वस्थवृत्त के लक्षणों से युक्त सभी स्वस्थ व्यक्ति मिल कर ही स्वस्थ समाज का निर्माण करते हैं। व्यक्ति तथा समाज – इन दोनों में परस्परावलंबन 3  है तथा यह एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस आवलंबन यानि निर्भरता में सृष्टि भी सम्मिलित है। हमें अपने आपको को स्वस्थ रखने के लिये स्वस्थ सृष्टि की आवश्यकता है (पृथ्वी, जल, वायु, वन/वनस्पति, पशु-सृष्टि आदि)। यदि सृष्टि अस्वस्थ होगी तो हम भी अवस्थ होंगे। सृष्टि की सभी रचना उसके अपने उपयोग के लिये नहीं है, दूसरों के लिये ही है। हमारे लिये सृष्टि का स्वस्थ रहना आवश्यक है।

रुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहि न पान।

 कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।

एक व्यक्ति के लिये स्वास्थ्य की व्यापक व्याख्या है तथा उस स्वास्थ्य के बनने के लिये समाज की आवश्यकता है। जब एक व्यक्ति में ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:’ नहीं रहेगा तो दूसरे में भी नहीं रह पाएगा। यदि एक व्यक्ति में ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:’ रहता है तथा पाँच में ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: नहीं रहता है तो उन पाँच के कारण एक में भी नहीं रह पाएगा। अतः स्वस्थवृत्त के लिये एक दूसरे पर निर्भरता है, परस्परावलंबन है, जिसे सामाजिक स्वास्थ्य कहते हैं।

स्वास्थ्य का एक-दूसरे पर असर होता है। एक वैद्य, एक चिकित्सक यदि अस्वस्थ होगा तो उसका प्रभाव पूरे समाज पर होगा, पूरा समाज स्वस्थ नहीं रह पाएगा। किन्हीं पंद्रह व्यक्तियों का स्वास्थ्य बिगड़ गया तो दूसरे पंद्रह व्यक्ति भी स्वस्थ नहीं रह पाएंगे। एक को संक्रमण हुआ तो दूसरे को भी हो सकता है। ऐसे ही, एक स्वस्थ हो गया तो उसका प्रभाव भी दूसरे पर पड़ सकता है  इसीलिए परस्परावलंबन की उपस्थिति बताई गयी है।

स्वस्थवृत्त व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, स्वास्थ्य का एक-दूसरे पर प्रभाव भी उसी का भाग है जिसे सामाजिक स्वास्थ्य कहा जाता है।  

सामाजिक स्वास्थ्य के लिये व्यक्तिगत स्वास्थ्य के साधन-रूपी समाज का भी स्वस्थ होना आवश्यक है, तभी व्यक्तिगत स्वास्थ्य पूर्ण है। समाज यदि स्वस्थ नहीं है तो व्यक्तिगत स्वास्थ्य पूर्ण नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वास्थ्य कभी भी जा सकता है। मान लें कि एक व्यक्ति क्रोधी है तथा दूसरा व्यक्ति शांत है। एक क्रोधी हो (जो एक प्रकार की अस्वस्थता है) तो दूसरा व्यक्ति प्राय: स्वस्थ नहीं रह सकता। इसे एक आधुनिक उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है – आजकल एक प्रचलित व्यक्तिगत नीति है माय लाइफ माय रूल्ज़,  जिसका तर्क स्वस्थवृत्त से विपरीत है। एक के जीवन से दूसरे बहुतों का जीवन प्रभावित होता है। इस तर्क से किसी भी प्रकार का जीवन व्यतीत करना तथा ये समझना कि ऐसा करने से किसी अन्य को कुछ नहीं होता, ठीक नहीं कहा जा सकता। इसका दूसरा उदाहरण देखें कि एक व्यक्ति पशु-मांस खाता है तो उस आहार को उपलब्ध कराने के लिये अनेक साधन व संसाधन लगते हैं क्यूंकि खाने वाला स्वयं तो पशु का शिकार/आखेट कर के नहीं खाता। इन साधनों का होना या न होना दूसरों को भी प्रभावित करता है, अतः एक व्यक्ति के मांसाहारी होने का अन्य व्यक्तियों पर, पशु सृष्टि पर, प्रकृति पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।

यदि स्वास्थ्य मात्र व्यक्तिगत होता तो मात्र व्यक्ति के स्तर पर बात पूरी हो जाती कि वह जो कुछ भी करे, अन्य व्यक्ति बिना प्रभावित हुए रह जाते।  किन्तु ऐसा नहीं है, इसीलिए स्वास्थ्य मात्र व्यक्तिगत नहीं है।

उदाहरण के लिये यदि कोई योगी जंगल में रह रहा है तो वह अन्य व्यक्तियो के बिना भी स्वस्थ रह सकता है। उसे प्राकृतिक वातावरण के कारण कठिनाई होगी जैसे जंगली पशु आक्रमण कर दे , विषैले जीव, वनस्पति द्वारा उसे हानि हो या कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए। ये दुर्घटना हो सकती हैं पर स्वस्थ रहने के लिये उसकी अन्य व्यक्तियों पर निर्भरता की आवश्यकता अधिक नहीं है क्योंकि ऐसा योगी या सन्यासी एक अपवाद है, वह समाज के साथ नहीं, एकांत में जंगल में रहता है। दूसरी ओर जब हम साधारण व्यक्तियों की बात करते हैं तो सामाजिक स्वास्थ्य की ही प्रधानता है तथा उसका आधार है परस्परावलंबन यानि परस्पर एक-दूसरे पर निर्भरता।

एक व्यक्ति तब तक प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: नहीं हो पाएगा जब तक पूरे समाज का व्यवहार आचार-विचार अनुरूप नहीं होगा। तब तक उसकी शरीर की सभी क्रियायें भी सम नहीं हो पायेंगी। इस अनुरूप वातावरण को बनाना स्वस्थवृत्त का कार्य है।

स्वस्थवृत्त का उल्लेख तथा वर्णन आयुर्वेद के किन ग्रंथों में मिलता है ?

आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त का विचार अनेक कोणों से, अनेक पक्षों से किया गया है, इसलिये उसका उल्लेख भी अनेक स्थान पर किया गया है।  यह किसी एक ग्रंथ तक सीमित नहीं है। भाव प्रकाश में इसे दिनचर्या आदि के द्वारा बताया है। चरक संहिता में सभी स्तरों पर सात्विक आहार-विहार-आचार-विचार से स्वस्थवृत्त की स्थापना बताई गयी है, जैसे किस व्यक्ति को रोग नहीं होंगे अतः वह कैसे स्वस्थ रहेगा। किसी ग्रन्थ में यह बताया गया है कि आचरण कैसा होना चाहिए, दिन-रात्रि आदि का विचार कैसे होना चाहिए। इस प्रकार किस तरह से शरीर का, मन का स्वास्थ्य बनाए रखना चाहिए ऐसा अनेक ग्रंथों में बताया गया है।  चरक संहिता के ‘जनपदोध्वंस व्याधियाँ’ अध्याय में सामाजिक स्वास्थ्य क्या होता है, यह बताया गया है। जल, वायु, देश, काल – इन चार तत्वों को लेकर बताया गया है कि जब ये बिगड़ते हैं तो जनपदोध्वंस होता है, अर्थात बड़ी संख्या में लोगों के स्वास्थ्य की तथा प्राणों की हानि होती है। वर्तमान में कोरोना, १९१८ में फैला स्पैनिश प्लेग तथा १९४३ का बंगाल का अकाल, महामारी (pandemics/epidemics) कहे जाने वाले ही जनपदोध्वंस हैं।

इसी प्रकार विभिन्न ग्रंथों में सामाजिक स्वास्थ्य तथा व्यक्तिगत स्वास्थ्य को जोड़ा गया है। इसका विवरण निम्नलिखित स्थानों व ग्रंथों में स्पष्ट रूप में मिलता है:

  • चरक संहिता – सूत्रस्थान, शरीरस्थान
  • भाव प्रकाश – पूर्व खंड – दिनचर्यादि प्रकरण
  • सुश्रुत संहिता – चिकित्सास्थान, उत्तरतंत्रम्
  • डलहनाचार्य की सुश्रुत व्याख्या
  • अष्टांग हृदयम्  – दिनचर्या विभाग
  • पतंजलि योगसूत्र – साधनापाद
  • महाभारत – अनुशासन पर्व

इसके अतिरक्त भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में आहार व आचरण से सात्विक, राजसिक व तामासिक प्रकृति द्वारा व्यक्तिगत व सामाजिक स्वास्थ्य के बारें में परोक्ष रूप से बताया गया है। अन्य भी अनेक स्थानों में इसका प्रत्यक्ष व परोक्ष उल्लेख मिलता है।

सद्-वृत्त यानि सत्य का वृत्त

स्वस्थवृत्त का सामाजिक पक्ष 

उन वृत्तियों का समूह जिसमें आचरण यानि व्यक्ति का वर्तन, व्यवहार तथा विहार ऐसा कार्य करता है जैसे किसी रसायन के गुण कार्य करते हैं अर्थात जो आचार रसायन है – उसे सद्-वृत्त कहा जाता है। सद्-वृत्त स्वस्थवृत्त का सहायक व प्रेरक है। इसे सज्जनों का धर्म कहते हैं। सद्-वृत्त आयुर्वेद का उत्कृष्ट विचार है। किन्तु यह एक ऐसी दूरदर्शी परिकल्पना है जो सरलता से समझ नहीं आती या नहीं दिखती।

स्वस्थवृत्त के अंतर्गत स्थूल रूप से पालन किये जाने वाले नियम हैं परंतु सदवृत्त के अंतर्गत पालन किये जाने वाले धर्म हैं, आचरण हैं। ये प्रत्यक्ष रूप से मात्र ‘गुड टू हैव 4’ कर्तव्य लगते हैं, परंतु इनका लक्ष्य परोक्ष है। व्यक्तिगत स्तर पर यह ‘‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:” अर्थात मानसिक तथा वैचारिक स्वास्थ्य के पोषक हैं तथा सामाजिक स्तर पर ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जो स्वस्थ है तथा स्वास्थ्यवर्धक है।

सतां सज्जनानां वृत्त व्यवहारजातं सदवृत्तम्। (च.सू. 817)

सदा सज्जनों के आचरणों का पालन करना, उनके बीच रहना ही सद्वृत्त है। जैसे

न लोको भूपति न संगश्छेदनास्ति…’

किस व्यक्ति से मित्रता करनी चाहिए, किस व्यक्ति से नहीं – यह सभी भी सद्वृत्त में सम्मिलित है। सद्-वृत्त सामाजिक स्वास्थ्य का अर्थ भी बताता है।

आर्द्रसंतानता त्याग: कायवाक्चेतसां दम:। स्वार्थबुद्धि परार्थेषु पर्याप्तं इति सद्वृतम्।। (अ.हृ.सू.246)

सभी प्राणियों में दयाभाव, त्याग-दान (अपना अधिकार छोड़कर दूसरे को अधिकार देना), शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक चपलता की शांति (निग्रह), दूसरे के कार्य में स्वार्थबुद्धि (दूसरे के कार्य को अपना ही कार्य समझना), ये चारों सम्पूर्ण सदवृत्त (सज्जनों का धर्म) हैं।

सद्-वृत्त समझ जाने से पाप की सटीक परिभाषा, उसका अर्थ भी समझ आता है। आयुर्वेद, दर्शन व अर्थ-शास्त्र बताता है कि पाप वह कर्म या कार्य होता है जो व्यक्ति के विकास तथा समाज की स्थिरता – इन दोनों को घात करता है।

अष्टांग हृदयम्  सूत्र स्थान में ऐसे दस कारण या पाप के लक्षण बताए गए हैं:

हिंसास्तैय अन्यथा कामं पैशुन्यं परूषानृते।। 

 सम्भिन्नालापं व्यापदभिध्यां दृग्विपर्यम्।

 पापं कर्मेति दशधा  कायवांमानसैस्त्यजेत्।।

हिंसा (प्राणियों को मारना); स्तेय (चोरी); अन्यथाकाम (अनैतिक मैथुन संबंध); पैशुन्य (चुगली करना); परूष (कठोर वचन); अनृत (झूठ बोलना); संभिन्न प्रलाप (अनावश्यक बोलना, असंबंधित बोलना); व्यापाद (दूसरे को हानि पहुँचाने का विचार); अभिध्या (ईर्ष्या- दूसरे के गुण को न सह सकना, अथवा दूसरे के धन को लेने की इच्छा); दृग विपर्यय (नास्तिकता, आप्त वाक्यों में अश्रद्धा करना); ये दस प्रकार के पापकर्म हैं; इन पापकर्मों को शरीर, वाणी तथा मन तीनों से छोड़ देना चाहिए।

दशविधपापों का प्रावधान उन कर्मों को निषिद्ध करने के लिए किया गया है जिन्हे ना करने से  समाज का मानसिक व वैचारिक स्वास्थ्य बना रहे। पुनः ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन’ का विचार करें तो – आत्मा,इन्द्रिय तथा मन की प्रसन्नता जिसमें विद्यमान हो वह स्वस्थ है। मनुष्य की ग्यारह इंद्रियाँ हैं – पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा एक मन। पाप के जो दस लक्षण बताए गए  हैं उन्हें ना करना अर्थात उनका आचरण ना करना, इन ग्यारह इंद्रियों की अवस्था को स्वस्थ रखता है।  यह सदवृत्त की दूरदृष्टि है, त्रिस्वास्थ्य बनाए रखने की युक्ति व प्रक्रिया है। सद्वृत्त पालन करने से मानसिक रोगों से बचा जाता है।

आज सर्वत्र समाज की स्थिति देखी जाए तो इन दसों पापकर्मों की सर्वव्यापता है। इन्हे व्यक्तिगत स्तर पर निषिद्ध ना करने का परिणाम आज सामाजिक पतन के रूप में हमारे सामने है। अतः समाज का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है।

चार में से तीन पुरुषार्थ को – धर्म, अर्थ, काम को – आयुर्वेद सक्षम करता है। इन पुरुषार्थों का साधन आरोग्य है तथा इन पुरुषार्थों में बाधा या हानि है पाप! मोक्ष साध्य है, प्राप्तव्य है।  अन्य तीन पुरुषार्थ उसके साधन है तथा आयुर्वेद इन तीन पुरुषार्थों का साधन (अर्थात् मोक्ष का प्रायोजक) है। अतः आयुर्वेद में बताए गए संदेश व निर्देश, विशेषकर स्वस्थवृत्त व सद्वृत्त के नियम तीन पुरुषार्थों को सिद्ध करने का साधन हैं।

मात्र आयुर्वेद में ही नहीं, स्मृतियों तथा धर्मसूत्रों में भी सद्-वृत्त का वर्णन है। वहाँ इसे धार्मिक रूप दिया गया है व कर्म-काण्ड का  भाग बनाया  गया है जिससे इसके पालन में अनिवार्यता आ जाए। इस प्रकार भारतीय सामाजिक स्वस्थ वृत्त में आयुर्वेद व धर्मशास्त्र दोनों का सहयोग है  इसी का रूप हम आज परंपराओं, व्यवहार व संस्कृति के रूप में देखते हैं। जितना हम इनसे दूर जाते हैं, उतना अपने स्वास्थ्य से दूर जाते हैं।

इसे एक उदाहरण के द्वारा समझते हैं :

हमारे यहाँ सूर्योदय पर संध्या कर सूर्य को अर्ध्य या जल देने की परंपरा के समय कुछ मंत्रों का उच्चारण करना होता है तथा जल की धार में से सूर्य के दर्शन करने होते हैं (इसे सूर्य त्राटक कहते हैं)। इस समय सूर्याष्टकम् का पाठ संध्या का भाग होता है। नित्य सूर्य त्राटक करने वालों की दृष्टि कमजोर नहीं होती तथा वृद्धावस्था में मोतियाबिंद नहीं होता। सूर्योदय के पश्चात की एक घड़ी अर्थात पैंतालीस मिनट तक सूर्य स्नान का उपयुक्त समय है क्योंकि इस समय सूर्य से हरिष्ठा किरणें (यू वी रेज़ 5)मिलती हैं तथा उनके सेवन से विटामिन डी तथा केलशियम दोनों प्राप्त होते हैं तथा शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ती है। सूर्याष्टकम् का विधिवत पाठ करने के लिये पाँच से पंद्रह मिनट लगते हैं। अब यदि प्रतिदिन बिना कुछ अन्य गतिविधि के मात्र सूर्य त्राटक करना हो या मात्र सूर्य स्नान करना हो तो अधिक दिन तक यह चर्या नहीं चल पाएगी। किन्तु इसके साथ संध्या-उपासना को जोड़ देने से तथा उसकी अवधि सूर्य त्राटक व सूर्य स्नान के लिये पर्याप्त होने के कारण यह अपने आप नित्य कार्य बन गया जिसका परिणाम उस संध्या-उपासना करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य है।  सूर्याष्टकम् द्वारा सूर्य की स्तुति करने से हमारी एकाग्रता सूर्य की ओर होती है, हमारे शरीर में उपस्थित ऊर्जा व शक्ति-प्रवाह की आवृत्ति 6 सूर्य की ऊर्जा के सम हो जाती है तथा उस ऊर्जा को हमारा शरीर निर्बाध यानि बिना किसी रुकावट के ग्रहण करता है। साथ-साथ सूर्य की ऊर्जा से शरीर की शिराओं तथा रक्त में सात्विक गुण की वृद्धि होती है। अब संध्या वंदन बिना स्नान के तो होगा नहीं इसलिए व्यक्ति ब्राहमुहूर्त में ही उठेगा तथा समय से ही स्नान भी करेगा। प्रातःकाल उठने से मल-क्रिया 7 भी सम रहती है यानि प्राकृतिक रूप से मल-निर्गमन का कार्य ठीक प्रकार होता है, फलस्वरूप कब्ज़ तथा अर्श 8 नहीं होगा।

परंतु ऐसे नित्य चर्या अब कम ही लोग करते हैं। जो करते हैं, उन्हें खोजेंगे तो इनमें से कोई रोग नहीं पाएंगे तथा जो नहीं करते (अधिकतर नगरों तथा शहरों के लोग) तो ऊपर बताई स्वास्थ्य समस्याएं उनमें अब सामान्य रूप से देखने को मिलती हैं। इस एक नित्यकर्म से शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक तीनों स्वास्थ्य की रक्षा होती है व पोषण भी होता है। ये समझते समय ये भी ध्यान रहे कि भारत का ऊर्जा विज्ञान जिस स्तर पर विकसित हो चुका है वहाँ तक आधुनिक भौतिक विज्ञान अभी पहुँचने का प्रयास कर रहा है।

इस तरह हमारे सभी पारंपरिक नित्यकर्म बैंक के आवर्ती खाता 11 की भांति हैं। हम नियमित रूप से थोड़ी-थोड़ी राशि डालते जाते हैं, जो कालांतर में बड़े फल के रूप में हमें प्राप्त होता है।

सदवृत्त मनुष्य का आचार-रसायन है यानि ऐसी औषधि है जो बताती है उसे किस तरह का आचरण करना चाहिए जिससे उसका मानसिक, वाचिक, वैचारिक स्वास्थ्य तो बना रहे तथा उसके साथ व्यक्ति सामाजिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में अपना अंश-दायित्व भी निभा दे। सदवृत्त में रहने से सामाजिक स्वास्थ्य बना रहता है।

आचार-रसायन के अंतर्गत मनुष्य के कर्तव्य, लोकप्रिय होने का निर्देश, इंद्रियों का निग्रह (उन पर नियंत्रण), कार्यों के आरंभ का विधान, त्याज्य कर्म, लोकाचार का पालन, सदवृत्त पालन का परिणाम – ये सभी आते हैं। आहार तथा विहार दोनों ही आचार हैं। क्रिया प्रधान आचार को विहार कहते हैं तथा क्रिया-द्रव्य प्रधान वस्तु को आहार कहते हैं।  आचार रसायन के पालन  से सदाचारी को रसायन फल मिलता है। चरक ने चिकित्सास्थानम् अध्याय में आचार रसायन निम्नलिखित छह सूत्रों में बताया है :

सत्यवादिनमक्रोधं निवृत्तं मद्यमैथुनात् । अहिंसकमनायासं प्रशान्तं प्रियवादिनम्।।३०।।

जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम् । देवगोब्राह्मणाचार्यगुरुवृद्धार्चने रतम्।।३१।।

आनृशंस्यपरं नित्यं नित्यं करुणवेदिनम् । समजागरणस्वप्नं नित्यं क्षीरघृताशिनम्।।३२।।

देशकालप्रमाणज्ञं युक्तिज्ञमनहङ्कृतम् शस्ताचारमसङ्कीर्णमध्यात्मप्रवणेन्द्रियम्।।३३।।

उपासितारं वृद्धानामास्तिकानां जितात्मनाम् । धर्मशास्त्रपरं विद्यान्नरं नित्यरसायनम्।।३४।।

गुणैरेतैः समुदितैः प्रयुङ्क्ते यो रसायनम् । रसायनगुणान् सर्वान् यथोक्तान् स समश्नुते।।३५।।

(इत्याचाररसायनम्)

सत्य बोलना, क्रोध न करना, मद्य तथा मैथुन से दूर रहना, हिंसा न करना, श्रम से अधिक परिश्रम न करना, प्रियवादी, जप तथा पवित्रता का पालन करना, धैर्यशील दानी तथा तपस्वी होना, गो वृद्ध आचार्य जनों का आदर करना, प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव रखना, करूणा रखना, पूर्ण निद्रा लेना, घी दूध का सेवन करना, सदाचार का पालन करना, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना तथा धर्म शास्त्रादि के अनुरूप आचरण करना।

सदवृत्त आचार रसायन पालन न  करने से क्या हानि है ये श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट रूप से बताते हैं :

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्भवति सम्मोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है तथा कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यंत पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मरण-शक्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।

काम, क्रोध, लोभ, मोहादि मानसिक भाव हैं। इनका शमन/निग्रह करने के लिये सत्या बुद्धि होनी चाहिए तथा सत्या बुद्धि सदवृत्त पालन करने से विकसित होती है।  क्रोध का विपरीत भाव क्षमा है तथा राग-द्वेष का विपरीत समता है। यह क्षमा तथा समता दस पालनीय धर्मों में से दो हैं। तो स्वस्थ वृत्त तथा सदवृत्त की स्थापना के लिये इन धर्मों का पालन आवश्यक है।

इस प्रकार क्या करने तथा क्या ना करने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है, इसकी विस्तृत समझ ही स्वस्थवृत्त की व्यापक व्याख्या है। मूलतः जिससे आरोग्य संभला रहे तथा नया कोई रोग पैदा न हो ऐसा वर्तन हमेशा रखे। ऐसा आहार-विहार-आचार निश्चित करे जिससे रोग न हों।  ये पहला तथा मुख्य भाग है।

निष्कर्ष: परंपरागत भारतीय बने रहना स्वस्थ रहने का सर्वोत्तम उपाय है। 

दूसरा खंड – दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या

किन नियमों तथा क्रियाओं के पालन द्वारा हम स्वस्थ रह सकते हैं?

व्यक्तिगत अथवा वैयक्तिक स्वस्थवृत्त के तीन स्तंभ हैं – दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या जिन्हें आम भाषा में आजकल लाइफ-स्टाइल तथा ईटिंग-हैबिट्स के रूप में समझा जाता है। सर्वप्रथम हमें अपनी लाइफ-स्टाइल तथा ईटिंग-हैबिट्स की तुलना स्वस्थवृत्त की दिनचर्या-रात्रिचर्या-ऋतुचर्या से करनी चाहिए तथा देखना चाहिए कि इनमे क्या समानता तथा भिन्नता है। हमें अपनी स्वास्थ्य की अवस्था के अनेक कारण स्वयं ही समझ आ जाएंगे।

स्वस्थ वृत्त को समझने के पश्चात अब उसके उन नियमों को जानना चाहिए जो त्रि-स्वास्थ्य की कुंजी हैं, चाबी हैं। दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या में वह सभी क्रियाएं निहित हैं जिनसे हम स्वस्थ रह सकते हैं।

प्रकृति की दो विशेषताएं हैं – प्रथम, प्रकृति की प्रत्येक क्रिया नियमित है, कुछ भी अकस्मात नहीं होता। द्वितीय, प्रकृति सतत परिवर्तनशील है तथा चलायमान है। खनिज तथा वातावरण से ले कर मनुष्य तक सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन होता है। उसी परिवर्तन व नियमितता के साथ संतुलन बनाकर व्यक्ति स्वस्थ रह सकता है। इस संतुलन को बनाए रखने के लिये दिनचर्या, रात्रिचर्या व ऋतुचर्या का वृत्त है।

दिनचर्यां निशाचर्यां ऋतुचर्यां यथोदितम्। आचारान् पुरुषः स्वस्थ: सदा तिष्ठति नान्यथा।।

(भाव प्र. 513)

अर्थात स्वस्थ व्यक्ति दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या का उसी प्रकार पालन करें जिस प्रकार शास्त्रों में वर्णित किया गया है। इसका आचरण करने से मनुष्य सदा स्वस्थ रहता है, उसके विपरीत आचरण करने से रोग से ग्रस्त हो जाता है।

१ .दिनचर्या 

अष्टांग हृदय में वाग्भट्ट बताते हैं –

उभयलोकहितमाहारविहारचेष्टितामिति यावत् प्रतिदिने यतकर्तव्यम्। (अष्टांग ह. सू 21)

चर्या का अर्थ है चरण (आचरण), प्रतिदिन करने योग्य, प्रतिदिन की चर्या का नाम दिनचर्या है।

उसी प्रकार सुश्रुत का निर्देश है –

उत्थायोत्थाय सततं स्वस्थेनारोग्यमिच्छिता। धीमता यदनुष्ठेयं तत्सर्वं सम्प्रवक्ष्यते।। (सु. चि. 233)

आरोग्य की कामना करने वाले धीमान् व्यक्ति को दिनचर्या में वर्णित कार्यों को प्रतिदिन करना चाहिए। दिनचर्या में क्या कर्तव्य हैं, इन्हे करने के क्या लाभ हैं तथा ना करने से क्या हानि है, यह भावप्रकाश ग्रंथ में भी विस्तार से वर्णित है।

दिनचर्या में आने वाले कर्तव्य इस प्रकार हैं (कार्य जो नियमित रूप से करने चाहियें):

  1. ब्रह्मुहूर्त जागरण – सूर्योदय से दो घड़ी पहले जागरण।

निष्कर्ष- सूर्योदय से पहले उठना। प्रातः काल का सर्वप्रथम भाव कृतज्ञता का होना चाहिए, इसलिये जगते ही सर्वप्रथम प्रातःमंत्र का निर्देश है।

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती। करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम् ॥

ईश्वर का नित्य वंदन कृतज्ञता के भाव का पोषण करता है तथा उसे धीरे-धीरे संस्कार में परिवर्तित करता है।

  1. उषापान: सूर्योदय से पहले खाली पेट जल ग्रहण करना।

ये जल तब पीना जब पिछली रात्रि हल्का सात्विक भोजन करने के तीन घंटे पश्चात सोएँ हों। जैसे पिछली रात यदि सात बजे तक हल्का सात्विक भोजन लिया और दस बजे सोये हैं तो उषापान कर सकते हैं, किंतु यदि पिछली रात नौ बजे भोजन लिया, भारी भोजन लिया और दस बजे सोये हैं तो उषापान नहीं करना है। (सूर्योदय के पश्चात जल ना  पीना क्योंकि ये अग्नि को मंद करता है और लाभ के स्थान पर हानि करता है)

  1. मलत्याग – पेट साफ करना
  2. आचमन – मुख प्रक्षालन, कुल्ला करना
  3. दंत धावन – दाँत साफ करना
  4. जिह्वनिर्लेखन – जीभ साफ करना
  5. मुख व नेत्र प्रक्षालन – आँखें तथा मुँह धोना
  6. अञ्जन कर्म – आँखों में अञ्जन
  7. नस्य कर्म: नाक में नस्य डालना/ नाक की सफाई करना
  8. कवल-गणडूष – औषधियुक्त द्रव्य से कुल्ला करना
  9. धूमपान – धूप के धुएँ का सेवन करना (सिगरेट पीना नहीं)
  10. ताम्बूल सेवन – नागरवेल के पत्ते पर औषधि के कुछ घटक डालकर पान का सेवन करना (तंबाकू वाला/ लज़ीज़ पान नहीं)
  11. अभ्यंग – तेल मालिश
  12. व्यायाम – अर्ध शक्ति व्यायाम करना। अति व्यायाम न करना
  13. उद्वर्तन – उबटन लगाना, कड़वे आदि रसयुक्त द्रव्यों के चूर्ण को शरीर पर रगड़ना
  14. स्नान – ऊपर से नीचे की ओर जल डालकर नहाना (पहले सिर, फिर कंधे, अंत में पाँव, यथा)। सिर गरम जल से न धोना तथा ज्वर एवं ऋतुस्राव 9 में स्नान न करना।
  15. अनुलेपन – औषधीय द्रव्यों के चूर्ण का लेपन अर्थात आयुर्वेदिक पाउडर लगाना
  16.  वस्त्रधारण – ऋतु के अनुकूल तथा स्वच्छ (नित्य धुले हुए) वस्त्र पहनना

प्रकृति के पंचामृत यानि आकाश,वायु, जल, प्रकाश(अग्नि), भूमि – यह प्रातः काल में ही स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित अवस्था मिलते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड में सूर्य ही प्राणस्वरूप तथा शक्ति का निधान है अतः जब तक सूर्य-शक्ति पृथ्वी पर विद्यमान हो अर्थात दिन में, तब तक जाग्रता अवस्था से सूर्य के साथ सम्पर्क रखने से जीव के क्षुद्र प्राण में सूर्य का महाप्राण सञ्चरित होता है तथा जीव पुष्टप्राण तथा दीर्घायु होता है।

२. रात्रिचर्या 

संध्या काल से रात्रि तक करने वाले सभी आचारों का रात्रिचर्या में वर्णन होता है।  रात्रिचर्या में निहित हैं :

  1. संध्या
  2. सांयकाल भोजन
  3. शयन व निद्रा
  4. शयन स्थान
  5. शयन/ रात्रि निद्रा की विधि
  6. शयन दिशा
  7. शयन की अवधि

संध्या-

ऋषयो दीर्घ संध्यत्वाद्दीर्घमायुर वाप्नुयु:।  प्रज्ञां यशश्च कीतिश्च ब्रह्मवर्चसमेव च।।

(मनुस्मृति)

संध्या काल में स्वस्थ व्यक्ति उपासना में स्वयं को तल्लीन करें। यहाँ उपासना का अर्थ जप तथा अभीष्ट देवताओं का अर्चन, दिन भर में अज्ञानवश जो  पापकर्म हो गए हों उनका प्रायश्चित, पूजन, अग्निहोत्र, आदि है।

यहाँ पुनः नित्यकर्म का उदाहरण लेते हैं-

नित्य उपासना से कैसे स्वास्थ्य बनाये रखने की युक्ति करी गयी है?

दिन में संधि काल अर्थात जिस समय दिन तथा रात मिलते हैं उस समय पर अधिकांश व्याधियाँ होती हैं, उस समय अधिकतर कीटाणु व रोगाणु उत्पन्न होते हैं जिससे शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्थिति प्रभावित होती है। अतःदिन के दोनों संधिकाल सूर्योदय तथा सूर्यास्त समय संध्या का विधान है। संध्या द्वारा प्रायश्चित आदि की प्रक्रिया से मानसिक तथा वैचारिक शुद्धि होती है। अग्निहोत्र द्वारा वातावरण का निर्जन्तुकिकरण 10 होता है। संधि समय वायु की गुणवत्ता में बदलाव होने के कारण सर्वाधिक हानिकारण कीटाणु-जीवाणु उत्पन्न होते हैं। अग्निहोत्र से उत्पन्न गैस या वायुरूप द्रव्य इन कीटाणु-जीवाणु का नाश करते हैं या उन्हें उत्पन्न ही नहीं होने देते।

सायंकाल भोजनरात्रि के प्रथम पहर में लघु तथा सुपाच्य भोजन करना चाहिए। भोजन तथा शयन में तीन घंटे का अंतर होना चाहिए।

शयन व निद्रा – जागरण काल में मनुष्य निरंतर कार्यरत होने के कारण शारीरिक तथा मानसिक रूप से थक जाता है। इस थकान को दूर कर नयी शक्ति तथा स्फूर्ति प्राप्त करने का सहज साधन ‘शयन’ है। शरीर को स्वस्थ तथा सुरक्षित रखने के लिए भोजन की तरह नियमानुसार शयन करना आवश्यक है।

चरक का कथन है कि निद्रा के सम्यक् योग से शरीर में आरोग्य, पौष्टिकता, बल की वृद्धि, पौरुषशक्ति, समुचित ज्ञान तथा पूर्णायु  की प्राप्ति होती है। सम्यक निद्रा ना होने से शरीर में अनेक तरह के रोग, कृशता (पतलापन), निर्बलता, नपुंसकता एवं विषयों का सम्यक् ज्ञान ना होना आदि लक्षण होते हैं तथा जीवन का नाश हो जाता है।

सुश्रुत के कथनानुसार समय पर निद्रा का सेवन शरीर की पुष्टि तथा वर्ण, बल तथा उत्साह की वृद्धि करता है, अग्नि को बढ़ाता है, आलस्य को दूर करता है तथा धातुओं को साम्यावस्था में लाता है। प्राणी की सहज वृत्तियों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में निद्रा की गणना है अतः नींद अनिवार्य है। अनिद्रा से पीडित व्यक्ति शारीरिक व मानसिक विश्रान्ति के अभाव में तनाव से भर शनैः शनैः मानसिक सन्तुलन खो बैठता है क्योंकि उसका स्नायुतन्त्र तथा प्रतिरक्षा तन्त्र क्षीण हो जाता है। ये मानसिक रोगों जैसे तनाव, अवसाद, चिंता, क्रोध और मनोवैज्ञानिक विकार की उत्पत्ति का कारण बनता है।

यही नहीं भोजन के सुपाचन के लिए भी अच्छी नींद जरूरी है। निद्रा हेतु रात्रि तथा जागरण हेतु दिन का विभाजन प्राकृतिक रूप से हमें प्राप्त है। शिशु तथा रोगी तथा कुछ एक अवस्था के व्यक्तियों को छोड़कर दिन में शयन निषेध बताया गया है क्योंकि दिन में शयन से कफ, आलस्य तथा जड़ता बढ़ती है एवं आयु क्षीण होती है। इसके विपरीत आजकल व्यक्ति रात्रि में शयन से पहले अधिकतर वह कार्य करता है जो विचलित करने वाले, मन तथा विचार  को अस्थिर करने वाले तथा श्वास आदि में  व्यवधान उत्पन्न करने वाले होते हैं।

उदाहरण के लिये शयन से पहले विश्व/राजनीति आदि के समाचार, सिनेमा, धारावाहिक आदि टेलिविज़न पर देखना; शांति के स्थान पर उद्विग्नता उत्पन्न करने वाला साहित्य/उपन्यास आदि पढ़ना; मौन धारण तथा चिंतन के स्थान पर दिन भर की आवश्यक-अनावश्यक  बातें करना, तर्क-वितर्क  करना; देर से तथा गुरु अर्थात पचने में भारी भोजन करना; देर से शयन; कृत्रिम रूप से वातानुकूलित वायु में शयन, आदि। यदि ऐसा ही नित्य कर्म हो तो ये सभी करते समय इतना स्मरण रखना है कि यह सभी कार्य व गतिविधि हमारे स्वास्थ्य के प्रतिकूल है तथा हमें स्वस्थ रखने में सहायक नहीं है। यह सभी धीरे-धीरे हमारी धातुओं को घिसकर उनका नाश करते हैं। फलस्वरूप वृद्धावस्था अधिक संवेदनशील होती है तथा रोगों से भरी रहती है।

शयन स्थान

  1. शयन स्थल शांत तथा स्वच्छ हो।
  2. शय्या की लंबाई-चौड़ाई पर्याप्त हो।
  3. शय्या कोमल व सुखप्रद हो।
  4. पलंग जानुतुल्य अर्थात घुटने तक की ऊँचाई वाला हो।
  5. शय्या टेढ़ा-मेढ़ा न हो।
  6. तकिये से युक्त अच्छे गद्दे पर चादर बिछाकर सुखपूर्वक शयन करना चाहिये।

शयन/ रात्रि निद्रा की विधि  मनु ने शयन-विधि का वर्णन करते हुए कहा है कि शयन के पूर्व मुखशुद्धि करके कवोष्ण दुग्धपान करके, मूत्र-त्याग कर हाथ-पैर अच्छी तरह धोकर उन्हें वस्त्र से सुखाकर इष्टदेवता का स्मरण करते हुए शयन चाहिये। शयन करते समय, सोते से पहले अपने को सम अवस्था में लाना चाहिए। वह सम अवस्था इस प्रकार आती है :-

निशि स्वस्थ मनास्तिष्ठेन्मौनी दण्डी सहायवान्। एवं दिनानि मे यान्तु चिंतयेदिति सर्वदा।

रात्रि चर्या में शयन से पूर्व,,मन को सभी चिंताओं से दूर रखते हुए स्वस्थ व्यक्ति मौन धारण कर धर्म चिंतन करते हुए, दिनभर के क्रियाकलापों का गुण-दोष पूर्वक विचार कर ध्यान करें कि शेष दिन भी इसी प्रकार सुखपूर्वक व्यतीत हों।

शयन की दिशा – आयुर्वेद के ग्रंथ तथा शास्त्र पूर्व अथवा दक्षिण दिशा की ओर सिर करके शयन का निर्देश देते हैं। इसके विपरीत होने पर व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है। याज्ञवल्क्य ने भी पश्चिमदिशा की ओर सिर ना करके शयन का निर्देश दिया है। यह शास्त्रीय निर्देश भी वैज्ञानिक है। भौतिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक पिण्ड में एक चुम्बकीय शक्ति होती है। इस पृथ्वी पिण्ड की भी चुम्बकीय शक्ति के दोनों सिरे उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव हैं। अतः पृथ्वी के अन्दर की विद्युद्धारा का प्रवाह दक्षिण दिशा से उत्तर की ओर है। दूसरे, चुम्बक का गुण है कि उसके समान ध्रुव एक दूसरे को विपरीत दिशा में धकेलते हैं तथा विपरीत ध्रुव परस्पर आकर्षित होते हैं।

मनुष्य के शरीर में उसके सिर की ओर उत्तरी ध्रुव तथा पैर दक्षिण ध्रुव हैं। अतः उत्तर की ओर सिर करके शयन पर पृथ्वी तथा मनुष्य के समान ध्रुव परस्पर विपरीत प्रभाव डालेगें। पृथ्वी की अपार चुम्बकीय शक्ति का विपरीत प्रभाव शरीर के नगण्य चुम्बकत्व पर पड़ने से शारीरिक क्रियाशक्ति क्षीण होगी तथा पार्थिव विद्युत् भी दक्षिण ध्रुव वाले पैरों से होकर सिर की ओर प्रवाहित हो शिरोवेदना (सिरदर्द) या स्नायुपुञ्जों में अस्वाभाविक उत्तेजना बढ़ा देगी। इसके विपरीत शयन पर विद्युत् सिर से पैरों की ओर जायेगी, जो स्वाभाविक है। यदि कोई व्यक्ति दक्षिण की ओर पैर करके सोता हो तो निद्रा के अशांत होने की अत्यधिक संभावना रहती है, ऐसा व्यक्ति यदि एक सप्ताह भी दिशा परिवर्तन कर दक्षिण की ओर सिर करके सोये तो उसे अपनी निद्रा की गुणवत्ता में अंतर अनुभव होगा। यदि कोई अन्य रोग नहीं है, तो नींद शांत तथा बिना बाधा के आने लगेगी।

इसी प्रकार सूर्य की प्राणमयी शक्ति भी पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। अतः पश्चिम की ओर सिर करके शयन से भी मस्तिष्क तथा स्नायुमण्डल में व्यथा उत्पन्न होती है।

शयन की अवधि – दक्षस्मृति के अनुसार रात्रि के प्रारंभ का समय तथा रात्रि के अंत के समय (ब्रह्ममुहूर्त) में वेदाभ्यास का निर्देश है तथा शेष दो प्रहर अर्थात छह घंटे शयन करना चाहिए, ऐसा बताया गया है। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए छह से सात घंटे की नींद पर्याप्त होती है। यदि इससे अधिक शयन पर भी नींद, थकान या सुस्ती लगती है तो या तो शरीर में कोई रोग है या तमोगुण अधिक मात्रा में है।

३. ऋतुचर्या

आरोग्यमायुरर्थो वा नासद्भि: प्राप्यते नृभि:।

सु. सं. २४।३३

विश्व के अनेक अन्य देशो की तुलना में भारत की विशेषता यह है कि वह आयुर्वेद की दॄष्टि से साधारण या मिश्रलक्षण (अनूप तथा जांगल लक्षणों से युक्त) देश है। साधारण देश में शीत, वर्षा, गर्मी तथा वायु समान रूप से होते हैं। इसलिये वात, पित्त तथा कफ इन तीन दोषों की वहन पर समता होने से यह देश उत्तम कहा जाता है। साधारण या मिश्रलक्षण देश होने के कारण भारत के वातावरण में प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रहना सुगम है। इसी ॠतु भिन्नता के कारण हमारे अन्न में, शाक, फल-फूलो में रस होता है, गंध होती है तथा अनेक स्वास्थ्यवर्धक गुण होते हैं।

ऋतु, काल का पर्याय भी है तथा काल का विभाग भी है। ऋतुओं में वर्षा, शरत, हेमंत को सूर्य दक्षिणायन अर्थात दक्षिण दिशा से गमन करता है तथा शिशिर, वसंत, ग्रीष्म में सूर्य उत्तरायण अर्थात उत्तर दिशा से गमन करता है। यह छह ऋतुएं माघ से लेकर दो-दो महीने के एक-एक ऋतु के क्रम से होती हैं। प्रत्येक ऋतु का काल अलग होता है, उस समय वातावरण की स्थिति अलग होती है तथा उसी प्रकार हमारे शरीर में त्रिदोष अर्थात वात-पित्त-कफ की स्थिति भी ऋतु के साथ बदलती है।

भाव प्रकाश में भाव मिश्र बताते हैं:

क्षयकोपशमा यस्मिन्दोशाणां संभवन्ति हि। ऋतुशट्कं तदाख्यातं रवे राशिषु संक्रमात्।।

अर्थात जिस समय दोषों की वृद्धि, कोप तथा शमन हुआ करता है, उस समय को ऋतु कहते हैं तथा इसलिये ऋतुसंधि यानि ऋतु परिवर्तन पर अधिकांश यज्ञ होते हैं। तथा इसी प्रकार सभी ऋतुसन्धि काल में स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष बातों का ध्यान देना होता है। आजकल “रूटीन” या “हेल्थ रेजीम” के रुझान के चलते चर्या में बड़ी जड़ता आ गयी है तथा इन सैद्धांतिक ऋतु नियमों का पालन हम अज्ञान, झंझट या इन्हें अवैज्ञानिक समझ कर नहीं करते। इस तरह जीवनभर अपने स्वास्थ्य का क्षय करते हैं, अपने कोशों को घिसते हैं तथा उनकी पुनःपूर्ति, भरपाई नहीं करते।

ऋतुचर्या के नियमों के अंतर्गत मुख्य रूप से आहार का चयन करना आवश्यक है, उसमें भी रस का चयन मुख्य है। तथा विहार पर ध्यान देना आवश्यक हैं। मुख्य बातों को संक्षिप्त रूप में व सूची रूप में यहाँ सम्मिलित किया गया है।

हेमंतवर्ष शिशिरेक्ष वायो: पितस्य तोयान्तनिदाधयोच्च। ककस्य कोष: कुसुभागमे स्यात् कुर्वीत यद्यद विहित तधैषाम्।।

(योगशतक)

 हेमंतऋतु (कार्तिक- मार्गशीर्ष) वर्षा (आषाढ – श्रवण)  तथा शिशिर (पौष – माघ) में वायु का प्रकोप होता है। शरद (भाद्रपद – आश्विन) तथा ग्रीष्म (वैशाख – ज्येष्ठ) में पित्त का प्रकोप होता है तथा वसंत (फाल्गुन – चैत्र) में कफ का प्रकोप होता है, इसलिये उस उस ऋतु में दोषों का निवारण करने वाली चर्या निश्चित करें।

शीतेऽग्न्यं वृष्टिधर्मेऽल्पं बलं मध्यं तु शेषयो।

शीत ऋतु (हेमंत तथा शिशिर) में मनुष्य का बल श्रेष्ठ होता है, बरसात तथा ग्रीष्म में न्यून बल होता है तथा शेष(शरद एवं वसंत) ऋतुओं में मध्यम बल होता है।

रसेजीतं जिते सर्वम्।

रस को जीत लिया तो सभी जीत लिया। आयुर्वेद में षडरस अर्थात ६ प्रकार के रस बताए गए हैं:

  1. मधुर ( मीठा)
  2. अम्ल ( खट्टा)
  3. लवण (नमकीन)
  4. कटु (चरपरा/तीखा)
  5. तिक्त (कड़वा, नीम जैसा)
  6. कषाय (कसैला/तूरा)

विभिन्न ऋतुओं में अलग-अलग रसों के सेवन की प्रधानता है। यह रस मुख्यतः उनके स्वाद के आधार पर बाटें गए हैं तथा भोजन के सभी पदार्थों में एक या एक से अधिक रस विद्यमान होते हैं।

हेमन्त – शिशिरचर्या :

  1. मधुर, अम्ल व लवण रस वाला, स्निग्ध, गुरु, उष्ण (गरम) तथा पर्याप्त आहार लें।
  2. प्रातः सरसों या तिल के तेल से अभ्यंग अर्थात मालिश करें तथा प्रातः काल सूर्य की कोमल धूप में बैठें।
  3. रात्रि में तथा प्रातःकाल अग्नि की आंच लें।
  4. गरम जल से नहायें।
  5. गरम, मोटे, पर्याप्त वस्त्र पहने।
  6. गरम बिछौना बिछाएं।
  7. ओढ़ने में भी गरम कपड़े ओढ़ें तथा
  8. घर में सोएं (बाहर न सोएं)।

वसन्तचर्या :

  1. तूरा या कषाय, कड़वे व तीखे रस वाला, हल्का, सूखा, कम तथा गरम आहार लें।
  2. प्रातः काल ठंड से बचें।
  3. दोपहर में धूप से बचें।
  4. दिन में ना सोएं।
  5. अधिक आराम ना करें तथा अत्याधिक कार्य भी ना करें।
  6. सैर के लिये और पर्यटन स्थलो आदि को घूमने न जाएँ और अधिक प्रवास न करें ।
  7. मालिश न करें।
  8. दही, बर्फ, गुड़, शक्कर, तिल तथा मिठाईओं का त्याग करें।

ग्रीष्मचर्या :

  1. मधुर, तूरा व कड़वे रस वाला, ठंडा, हल्का तथा प्रवाही आहार लें।
  2. ठंडे जल से स्नान करें।
  3. अनेक बार हाथ मुहँ धोएं।
  4. ज्यादा श्रम या व्यायाम न करें।
  5. ब्रह्मचर्य का पालन करें।
  6. ताप में न घूमें, अग्नि के पास अधिक न रहें।
  7. पैर, सर तथा आँखों को गर्मी न लगे इसका ध्यान रखना है।
  8. कम, पतले तथा सफेद वस्त्र पहने।
  9. दोपहर के समय आराम करें तथा
  10. रात को पर्याप्त नींद लें।

वर्षाचर्या :

  1. नमकीन, खट्टा/अम्ल रस वाला , चिकना, हल्का तथा मधुर आहार लें।
  2. कब्ज़ न होने दें।
  3. जठराग्नि का विशेष ध्यान रखें।
  4. नया जल तथा नए साकभाजी त्याग दें
  5. श्रम करें।
  6. संयमी रहें।
  7. विशेष व्यायाम ना करें।
  8. वायुकारी आहार ना लें।

शरदचर्या :

  1. कड़वा, तूरे रस वाला, हल्का तथा ठंड आहार लें।
  2. धूप मे ना घूमें।
  3. नंगे पैर या सिर से धूप में नहीं निकलना है।
  4. ठंडे जल से नहायें।
  5. जलाशय तथा कुदरती स्थानों के पास रहे।
  6. चाँदनी की शीतलता में घूमे।
  7. अधिक जागरण ना करे।
  8. दही, तिल, तेल, भीडी छाछ, आचार इत्यादि गरम, तीक्ष्ण या खट्टा तीखा नमकीन आहार अधिक ना लें।

चल रही ऋतु का अंतिम सप्ताह तथा अग्रिम ऋतु का पहला सप्ताह – ये चौदह दिन ऋतुसंधि कहे जाते हैं। इनमें पूर्व ऋतु की विधि (पूर्वाहार) क्रमशः छोड़नी चाहिए तथा आने वाली ऋतु की विधि (उत्तराहार) क्रमशः ग्रहण करनी चाहिए।

ऋतु के बदलने पर आहार मे परिवर्तन की यह विधि इस प्रकार है:

अचानक परिवर्तन करने पर असंतुलन से होने वाले रोग हो जाते हैं।

घी, आँवला, त्रिफला, मधु तथा दूध (सावन को छोड़कर) का सेवन सभी मास/ऋतुओं में किया जा सकता है।

ऋतुचर्या के अंतर्गत पालन योग्य एक मुख्य सिद्धांत है वर्तमान ऋतु में उत्पन्न हुए फल व शाक का सेवन करना। उसी प्रकार स्थानीय फल व शाक का सेवन करना। स्थान व ऋतु के वातावरण के अनुरूप ही प्रकृति खाने योग्य पदार्थों को उत्पन्न करती है। प्रत्येक प्रकार के वातावरण में जिन पोषक तत्वों की तथा जिन खनिजों की आवश्यकता होती है, उस स्थान के सभी प्राणियों के लिये नैसर्गिक प्रकृति वही उत्पन्न करती है, यह उसका एक मूलभूत वैज्ञानिक गुण है।  मनुष्य के लिये सभी से बड़ा सुख स्वास्थ्य है तथा प्रकृति के अनुरूप आचरण करने से ही स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

दिनचर्या, रात्रिचर्या व ऋतुचर्या के अतिरिक्त चर्या के क्या नियम हैं?

दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या के अतिरिक्त कुछ तथा क्रियाएं हमारे आचरण का भाग हैं जिनका हमारी नित्य चर्या में ही पालन होता है। ये क्रियाएं या नियम हमारे व्यवहार तथा आचार के नियम कहे जा सकते हैं तथा इन्हें हम धर्म के नाम से भी जानते हैं।

सत्पुरुषों के आचरण भावप्रकाश के दिनचर्यादि प्रकरण में उल्लेखित है कि-

  1. किस से मित्रता करनी चाहिए किससे नहीं,
  2. कैसे व्यक्तियों का संग करना चाहिए,
  3. किसकी सेवा करनी चाहिए,
  4. किस प्रकार बैठना चाहिए,
  5. किस प्रकार कार्य करना चाहिए,
  6. किस प्रकार बोलना चाहिए,
  7. क्या बोलना चाहिए, आदि।

इन सभी आचरणों से व्यक्ति में उन लक्षणों की वृद्धि होती है जिन्हे धर्म के दस लक्षण कहा गया है। इन लक्षणों में वृद्धि से सत्व गुण में वृद्धि होती है। किस प्रकार व्यक्ति के अंतर में स्थित सूक्ष्म तत्व यानि तीनों गुणों में वृद्धि हो इसका भी विधान है, बताए गए आचरणों से अपेक्षित गुणों में वृद्धि कर सकते हैं तथा किस प्रकार के आचार से रजोगुण व तमोगुण बढ़ाने हैं उसका भी वर्णन है।

धृति क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥

  1. धृति – कठिनाइयों से ना घबराना।
  2. क्षमा – शक्ति होते हुए भी दूसरों को माफ करना।
  3. दम – मन को वश में करना।
  4. अस्तेय – चोरी न करना। मन, वचन तथा कर्म से किसी भी पर-पदार्थ या धन का लालच न करना।
  5. शौच – शरीर, मन एवं बुद्धि को पवित्र रखना।
  6. इंद्रिय-निग्रह – इंद्रियों अर्थात आँख, वाणी, कान, नाक तथा त्वचा को अपने वश में रखना तथा वासनाओं से बचना।
  7. धी – बुद्धिमान बनना अर्थात प्रत्येक कर्म को सोच-विचारकर करना तथा अच्छी बुद्धि धारण करना।
  8. विद्या – सत्य वेद ज्ञान ग्रहण करना।
  9. सत्य – सच बोलना, सत्य का आचरण करना।
  10. अक्रोध – क्रोध ना करना। क्रोध को वश में करना।

इसी प्रकार पतंजलि अष्टांग योग के पहले दो अंग – यम तथा नियम- ऐसे ही दस लक्षणों की बात करते हैं जो सदवृत्त के घटक हैं।

यम के अंतर्गत पाँच सामाजिक नैतिक नियम हैं:-

  1. अहिंसा – वाणी से, विचारों से तथा कर्मों से किसी भी जीव जगत को हानि नहीं पहुँचाना।
  2. सत्य – मन, वचन तथा कर्म से सत्यता का पालन करना।
  • अस्तेय – चौर्य प्रवृत्ति से निवृत्ति।
  1. ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:

चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना अर्थात ब्रह्म की चर्या में रहना।

सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना या पूर्णतः सहज, मुक्त रहना।

  1. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक का संचय नहीं करना तथा दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करना।

नियम के अंतर्गत पाँच व्यक्तिगत नैतिक नियम हैं :

  1. शौच– शरीर तथा मन की शुचिता
  2. संतोष– जो कुछ जीवन में प्राप्त हैं उसमें संतुष्ट रहना तथा जो प्राप्त करने योग्य है उसके लिए पुरुषार्थ करना न कि उसके लिए दुःख मनाना
  • तप– द्वन्दों को सहन करना, स्व अनुशासन में रहना, सर्दी, गर्मी, लाभ-हानि , जय-पराजय आदि में सम रहना
  1. स्वाध्याय– सत्साहित्य, मोक्ष शास्त्रों एवं आप्त पुरुषों तथा गुरुओं द्वारा रचित ग्रंथों को पढ़ना तथा आत्मचिंतन, आत्म निरीक्षण करना
  2. ईश्वर-प्रणिधान– मन, वचन से समस्त शुभ तथा अशुभ कर्मों को ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित करना , पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण विश्वास तथा निष्ठा के साथ ईश्वर को ही अपना सर्वस्व मानना, फलाकांक्षा से मुक्त रहकर अपने स्वधर्म, वर्णाश्रम विहित कर्मो में निरत रहना।

धर्म के दस लक्षण व पतंजलि अष्टांग-योग के यम-नियम एक ही आचार संहिता की बात करते हैं जो वास्तव में सदवृत्त है। इसी प्रकार महर्षि पतंजलि ने पाँच क्लेश भी बताए हैं :

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥

  1. अविद्या,
  2. अस्मिता (अहंकार),
  3. राग,
  4. द्वेष तथा
  5. अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता)

राग तथा द्वेष रक्त को गरम करते हैं, जो स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालता है। हिंसा, असत्य बोलना, चोरी करना, आलस्य, अहंकारमय आचरण, असंतोष आदि हृदय की गति पे प्रभाव डालते हैं तथा उससे श्वास अव्यवस्थित होती है। ये पुनः स्वास्थ्य पर होने वाला सीधा असर है।

काले हितं मितं सत्यं संवादि मधुरं वदेत्। भुंजीत मधुरप्रायं स्निग्धं काले हितं मितम्।।

जब बोलने का समय उपस्थित हो तब हितकर, सत्य, प्रसंग के अनुकूल व मधुर वचन थोड़े शब्दों में बोलना चाहिए। जब भोजन का समय उपस्थित हो तब मधुर रस युक्त, स्निग्ध व हितकर थोड़ी मात्रा में भोजन करना चाहिए।

इस एक सूत्र में यहाँ सदवृत्त के घटक- आचार तथा स्वस्थवृत्त के घटक- आहार का एक साथ निरूपण तथा वर्णन है। इस सूत्र में बताया गया है कि कैसे एक क्रमिक प्रक्रिया के द्वारा सत्वगुण में वृद्धि कर सकते हैं तथा कैसे आहार से दोषों की सम स्थिति प्राप्त होती है। मधुर रस कौन सा है तथा किसमें पाया जाता है अथवा कहाँ नहीं पाया जाता है, इसका उल्लेख दिनचर्या प्रकरण के भोजन वाले भाग में मिलता है। इसी प्रकार स्निग्ध भोजन के द्रव्य कौन से हैं इसका भी वर्णन है। भोजन की मात्रा चरक के मात्राशीतीय अध्याय में व्यापक रूप से अंकित हैं।

निष्कर्ष:-

उपर्युक्त दैनिकचर्या, रात्रिचर्या व ऋतुचर्या  की उपयोगिता को भौतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से समझते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान काल में भी यह सर्वथा प्रासंगिक है। आज भी व्यक्ति को आयु, आरोग्य तथा धन की अत्यधिक अपेक्षा है। जैसा कि सुश्रुत का भी कथन है कि इनको आचार-रहित मनुष्य नहीं प्राप्त कर सकता है। अतः प्राचीन दैनिक आचार-संहिता का महत्त्व सार्वकालिक व सार्वदेशिक है।

ये दैनिक आचार आज सिद्धान्त रूप में प्रासंगिक तो अवश्य हैं पर व्यवहार में पालन नहीं किए जाते क्योंकि लोगों के पास  समय का अभाव है तथा अत्यधिक व्यस्तता है। ध्यानपूर्वक देखा जाये तो पूर्वाह्न के सभी कार्य  लगभग दो घण्टे में सम्पन्न किये जा सकते हैं। ब्रह्म मुहूर्त में जागरण से आज की व्यस्त परिस्थिति में भी उक्त कार्यों के लिए समय निकाला जा सकता है। इनमें से अधिकांश कर्तव्यों को आज किया भी जा रहा है किन्तु शास्त्रविधि के अनुसार नहीं। इसलिए मनुष्य पूर्णतः लाभान्वित नहीं हो पा रहा।

अतः निष्कर्ष में भावप्रकाश के मतानुसार यथासम्भव शास्त्रानुसार दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या का आचरण करने का प्रयास करना चाहिए जिससे मनुष्य सदा स्वस्थ रह सके। सामान्य धर्म, करदर्शन, दन्त-धावन, स्नान आदि पूर्वाह्न से लेकर रात्रिचर्या तक के नित्य कृत्यों को करने की शास्त्र-विधि की चर्चा द्वारा व्यक्तिगत स्वास्थ्य आदि लाभ सिद्ध होते हैं जिससे परोक्ष रूप में समाज भी लाभान्वित होता है।

तीसरा खंड – आधुनिक समय में पालनीय मूलभूत सिद्धांत

सदवृत्त की स्थापना के लिये क्या कोई उपाय है ?

आज के समय में कुछ मुख्य सिद्धांतों का पालन कर के तथा निषिद्ध बातों, कार्यों को ना करके हम सदवृत्त व स्वस्थवृत्त की पुनर्स्थापना का आरंभ कर सकते हैं।  दिनचर्या ऋतुचर्या के नियम के लाभ तथा न करने की हानि लगभग सभी मुख्य ग्रंथों व उनकी टीकाओं/व्याख्यायों में कही गयी है। इन नियमों को आहार-विहार-व्यवहार की तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है जिनका आज के समय में पालन हो तो हम स्वस्थ रह सकते हैं तथा रोगों से बच सकते हैं।

आज के समय में किन नियमों का पालन कर स्वस्थ रहा जा सकता है तथा स्वस्थवृत्त में रहा जा सकता है ?

आहार-विहार-व्यवहार के नियमों में विहार की चर्चा ऋतुचर्या के माध्यम से दूसरे खण्ड में तथा व्यवहार की चर्चा पहले तथा दूसरे खंड में ही सद्वृत्त के रूप में की गयी है। इस तीसरे खण्ड में मात्र आहार से संबंधित सिद्धांतों का विस्तार किया जा रहा है। आयुर्वेद ने स्वस्थ रहने के लिये आहार को औषधि से भी श्रेष्ठ बताया है। यह एक व्यापक तथा आवश्यक विषय है, इस शोधपत्र के अत्यधिक विस्तृत होने की आशंका के कारण यहाँ मात्र मुख्य सिद्धांतों तथा मूलभूल नियमों की ही चर्चा की जा रही है।

आयुर्वेद द्वारा बताये गए आहार के मूलभूत सिद्धांतों को पथ्यापथ्य, समता-विषमता, आहार तत्व व आहार विधि-विधान के माध्यम से जाना जा सकता है।

पथ्यापथ्य

पथ्यापथ्य का अर्थ है परहेज तथा विधिनिषेध। क्या करना है और क्या नहीं करना है ऐसी सूचनाओं को पथ्य अपथ्य कहा जाता है। इनका पालन मात्र रोग होने पर ही करना है ऐसा नहीं है। स्वस्थ लोगों के लिये आचरण योग्य नियम पथ्य तथा आचरण योग्य न हों ऐसे नियम अपथ्य कहलाते हैं। ऋतु, प्रकृति, देश, काल, पथ, रोग का प्रकार, मनोबल, परिस्थिति इत्यादि का विचार करके पथ्यापथ्य का निर्धारण किया जाता है।  पथ्य त्रिगुण में समता लाता है तथा अपथ्य उसमें विषमता उत्पन्न करता है। उसी प्रकार पथ्य, विशेषकर आहार का पथ्य शरीर के त्रिदोषों में समता लाता है तथा अपथ्य आहार उनमें विषमता उत्पन्न करता है जिसकी परिणामस्वरूप रोग होते है।

समता तथा विषमता

आहार के लिये यह समझना आवश्यक है कि किस अवस्था में रोग होते हैं या दोषों में विषमता होती है।

रोगस्तु दोषवैषम्य दोषसाम्यमरोगता

त्रिदोष अर्थात वात-पित्त-कफ, रोग तथा आरोग्य का लक्षण है। इन दोषों की विषमता का नाम रोग है तथा दोषों की समता का नाम आरोग्य है। तत्वों की प्राकृतिक वास्तविक अवस्था को समता कहते हैं तथा विषमता का अर्थ है वास्तविक रूप का नष्ट होना। रोग शरीर तथा मन में होते हैं तथा मन को दूषित करती है रज तथा तम की विषमता। हमारा आहार शरीर में त्रिगुण – सत्व, रज तथा तम – को अत्यधिक तथा निरंतर प्रभावित करता है। उसी प्रकार शरीर में त्रिदोषों – वात, पित्त तथा कफ – को भी आहार सर्वाधिक प्रभावित करता है।

आहार के संदर्भ में ये समझना आवश्यक है कि कौन से अथवा किस प्रकार के आहार सत, रज तथा तम को बढ़ाते हैं। उसी प्रकार किस प्रकार के तथा कौन से आहार वात-पित्त-कफ को प्रभावित करते हैं। पथ्यापथ्य का प्रावधान भी इसी लिये है कि देश, काल, ऋतु तथा अपनी प्रकृति के अनुरूप सम्यक आहार विहार करके व्यक्ति शरीर में स्थित वात-पित्त-कफ ये तीनों दोष सम यानि प्राकृतिक अवस्था में रख सकता है ; जठराग्नि भी सम रख सकता है (अर्थात वह कम या ज्यादा नहीं होती), धातुओं (रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र ) तथा मल (पसीना, मूत्र व विष्ठा) की क्रिया सम यानि अविकृत रख सकता है तथा ऐसे आत्मा-इंद्रिय-मन सदैव प्रसन्न रहते हैं। जब शरीर की सभी क्रियाएं प्राकृतिक रूप से पूरी होती हैं, शरीर में किसी प्रकार की विषमता नहीं रहती तो वह विकारग्रस्त नहीं हो सकता तथा सदैव स्वस्थ रहता है।

आहार-विहार-विचार का अपथ्य करने से शरीर में (गुणों में, दोषों में तथा धातुओं में) विषमता उत्पन्न होती है, जिससे स्वास्थ्य बिगड़ता है तथा रोग होते हैं। सभी प्रकार के विरुद्धाहार तथा व्यसन अपथ्य की श्रेणी में अथवा निषेध की श्रेणी में आते हैं। इस संदर्भ में कुछ चेतावनी इस प्रकार हैं:

  • कब्ज़ का उपाय नहीं करने से पूरा शरीर रोगी हो जाता है।
  • अजीर्ण को नहीं मिटाने से हैजा, ज्वरताप या अल्सर  हो जाता है।
  • आये हुए नए ज्वर या ताप को लंघन (अर्थात भोजन न करना या बहुत कम भोजन करना) से नहीं उतारें तो टाइफाइड का ठंडी के ज्वर में रूपांतर होता है।
  • दस्त होने पर ध्यान नहीं दिया तो उसमें से संग्रहणी(अल्सरेटिव कोलाइटिस )शुरू होगी।
  • विषम ज्वर को दबाएंगे तो लिवर तथा स्प्लीन की वृद्धि होगी, जलोदर या पीलिया होगा।

(ज्वर अपने आप में कोई रोग नहीं है अपितु किसी रोग या विषमता का लक्षण है। इसलिये ज्वर होने पर एक अलोपथी की गोली खा लेने से हम मात्र लक्षण को, ज्वर को दबाते हैं, विषमता का समाधान नहीं करते। इसी विषम ज्वर को दबाने का परिणाम यहाँ बताया जा रहा है।)

  • कृमि (कीड़ों) का उपचार नहीं करेंगे तो त्वचा के रोग होंगे।
  • जुकाम/ श्लेष्म की चिकित्सा नहीं करेंगे तो खाँसी या दमा होकर क्षय रोग तक ले जाएगा।
  • ज्वर/बुखार में दूध पीने से पीलिया हो जाता है, यह आमाशय को हानि पहुँचाता है।
  • मेद/चर्बी को कम नहीं करेंगे तो प्रमेह-मधुमेह, हृदयरोग हो जाएगा।
  • पेट की वायु को दूर नहीं करेंगे तो हृदयरोग हो जाएगा।
  • भूख लगी हो तब अधिक जल पी लेने से मंदाग्नि जुकाम या जलोदर हो जाएगा।
  • अधिक चाय तथा तंबाकू (बीड़ी, सिगरेट) भूख को मारते हैं अर्थात जठराग्नि का नाश करते हैं, फेफड़ों को दुर्बल करते हैं, दांत को हानि करते हैं तथा नींद को कम करते हैं।
  • अधिक उड़द शुक्रस्त्राव करने वाले हैं। बुद्धि को मंद करते हैं।
  • अधिक पान विषयेच्छा बढ़ाते हैं। आँख तथा दाँत को हानि पहुँचाते हैं।
  • अधिक भैंस का दूध मंदाग्नि करने वाला है, नींद को बढ़ाने वाला है तथा शरीर में जड़ता लाने वाला है। ये सभी तमोगुण के लक्षण हैं।
  • अधिक वनस्पति घी हृदय के पाचन के श्वासनतंत्र तथा रुधिराभिसरण तंत्र (circulatory system) के रोग करता है।
  • अधिक सुपारी गले तथा फेफड़े के रोग करती है। रक्त का जल करती है। ओज का नाश करती है।

इसी प्रकार आचार का अपथ्य भी सूत्रबद्ध है :

कुसंगति सद्याऽलस्यमास्येन श्वसनं तथा। जिह्वालौल्याधिक्यं स्वास्थ्य सौरभनाशकम्।।

बुरे लोगों की संगति, सद्य आलसी बनकर पड़ा रहना, मुँह से साँस लेना तथा जीभ की अतिशय लोलुपता, ये सभी कारण तन-मन की स्वास्थ्य सौरभ का विनाश करते हैं।

आहार निर्धारण

शरीर में स्थित त्रिदोषों में अनुचित आहार-विहार या देश-काल-ऋतु के कारण विषमता उत्पन्न हो जाती है तो वे धातुओं को दूषित कर उनमें भी विषमता उत्पन्न कर देते हैं। इससे शरीर में विकार या रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अनेक बार प्रज्ञापराध के कारण भी विविध प्रकार के रोगों की उत्पत्ति शरीर में हो जाती है। उनका उपचार या रोग निवृत्ति औषधि, लंघन उपवास आदि कर्म, मंत्र चिकित्सा आदि के द्वारा किया जाता है। क्योंकि मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा रोगी के रोग का, विकार का शमन करना ये दोनों कार्य धातुओं की समता पर निर्भर हैं।

धातु को सम रखने के उपाय चरक संहिता के शारीरस्थानम् अध्याय में बताए गए हैं:

देशकालात्मगुणविपरीतानां हि कर्मणामाहारविकाराणां च क्रियोपयोगः सम्यक्, सर्वातियोगसन्धारणम्, असन्धारणमु- दीर्णानां च गतिमतां, साहसानां च वर्जनं, स्वस्थवृत्तमेतावद्धातूनां साम्यानुग्रहार्थमुपदिश्यते।।

ऐसे खाद्य पदार्थों का चयन किया जाना चाहिए जिनमें ऐसे गुण हों जो देश, काल जैसे बाहरी कारकों से उत्पन्न गड़बड़ी को संतुलित कर सकें तथा जो शारीरिक घटकों के संतुलन को बनाए रखने के लिए उपयुक्त हों। यह स्वास्थ्य तथा कल्याण को बनाए रखने में सहायता करता है। खाद्य पदार्थों की श्रेष्ठता उनके समता बढ़ाने के गुणों से निर्धारित होती है। जो पदार्थ सत्व-गुण बढ़ाते हैं वो श्रेष्ठ माने जाते है। प्राण ऊर्जा देने तथा बढ़ाने वाले आहार तथा लघु (पचने में हल्के) पदार्थ श्रेष्ठ व सात्विक भोजन की श्रेणी में आते हैं।

उसी प्रकार गुरु (भारी) व तले हुए तथा अधिक मसाले वाले भोज्य पदार्थ रजोगुण को बढ़ाते हैं, ऐसे भोजन को राजसिक कहा जाता है। बासी, प्राणहीन, कृत्रिम पदार्थ, मांसाहार तथा कुछ विशेष पदार्थ जैसे प्याज, लहसुन, जर्सी गाय का दूध तमोगुण को बढ़ाते हैं, ऐसे भोजन को तामासिक कहा जाता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने भी सत्रहवें अध्याय में भी सात्विक आहार, राजसिक आहार तथा तामासिक आहार की बात की है।

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌। उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌

जो भोजन आयु को बढाने वाले, मन, बुद्धि को शुद्ध करने वाले, शरीर को स्वस्थ कर शक्ति देने वाले, सुख तथा संतोष को प्रदान करने वाले, रसयुक्त चिकना तथा मन को स्थिर रखने वाले तथा हृदय को भाने वाले होते हैं, ऐसे भोजन सतोगुणी मनुष्यों को प्रिय होते हैं। कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्यधिक गरम, चटपटे, रूखे, जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी मनुष्यों को रुचिकर होते हैं, जो कि दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले होते हैं। जो भोजन अधिक समय का रखा हुआ, स्वादहीन, दुर्गन्धयुक्त, सड़ा हुआ, अन्य के द्वारा झूठा किया हुआ तथा अपवित्र होता है, वह भोजन तमोगुणी मनुष्यों को प्रिय होता है।

आहार के प्रकार के साथ आहार के वर्ग भी होते हैं :

  1. शूकधान्य – Monocotyledons/Cereals
  2. शमीधान्य – Dicotyledon/Pulses
  3. मांस – Class of Meats
  4. शाक – Green Leafy Vegetables
  5. फल – Fruits
  6. हरित – Class of Fresh Condiments
  7. मद्य – Class of Alcohol
  8. जल – Class of Water
  9. गोरस – Class of Milk & its Products
  10. इक्षुविकार – Sugarcane & its Products
  11. कृतान्न – Class of Cooked Foods
  12. आहारोपयोगी – Class of Adjuvants of Foods

चरक के प्रसिद्ध आहार-सूत्र बताते हैं प्रत्येक वर्ग में कौन सा आहार-पदार्थ श्रेष्ठ है तथा कौन सा निकृष्ट है। आहार-पदार्थों की श्रेष्ठता कुछ इस प्रकार सूचित है :

  • जल में                अंतरिक्ष जल (वर्षा का जल) श्रेष्ठ है।
  • दूध में                गाय का दूध                    श्रेष्ठ है।
  • दही में                गाय का दही                    श्रेष्ठ है।
  • छाछ में              गाय की छाछ                  श्रेष्ठ है।
  • घी में                  गाय का घी                     श्रेष्ठ है।
  • फल में               काले अंगूर                     श्रेष्ठ है।
  • अन्न में              लाल चावल                    श्रेष्ठ हैं।
  • सब्जी में             जीवन्ती, परवल               श्रेष्ठ है।
  • कंदमूल में           कोमल मूली                    श्रेष्ठ है।
  • तेल में                तिल का तेल                   श्रेष्ठ है।
  • गुड़ में                मटके का गुड़                  श्रेष्ठ है।
  • मुखवास में          लौंग (लविंग)                  श्रेष्ठ है।
  • पेय में                 दूध                                श्रेष्ठ है।
  • दातुन में              करंज                             श्रेष्ठ है।
  • औषध में            शिलाजीत                       श्रेष्ठ है।

तथा

  • विहार में             ब्रह्मचर्य                          श्रेष्ठ है।

उसी प्रकार विशेष रूप से शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य बढ़ाने के लिये औषधियों की श्रेष्ठता को इस तरह सूचित किया है:

  • बुद्धि बढ़ाने में ब्राह्मी श्रेष्ठ है।
  • मेधा बढ़ाने में शंखावली श्रेष्ठ है।
  • स्मृति बढ़ाने में वच श्रेष्ठ है।
  • दृष्टि बढ़ाने में त्रिफला श्रेष्ठ है।
  • स्वर बढ़ाने में यशयष्टिमधु श्रेष्ठ है।
  • वर्ण बढ़ाने में सफेद दूर्वा श्रेष्ठ है।
  • बाल बढ़ाने में भृंगराज श्रेष्ठ है।
  • वजन बढ़ाने में अश्वगंधा श्रेष्ठ है।
  • आयुष्य बढ़ाने में आँवला श्रेष्ठ है।
  • बल बढ़ाने में माखन श्रेष्ठ है।
  • उत्साह बढ़ाने में गाय का दूध श्रेष्ठ है।
  • वीर्य बढ़ाने में कौंचा श्रेष्ठ है।
  • आरोग्य बढ़ाने में हरीतकी (हरड़) श्रेष्ठ है।
  • स्तन्य बढ़ाने में शतावरी श्रेष्ठ है।
  • स्थिरता बढ़ाने में व्यायाम श्रेष्ठ है।
  • रुचि बढ़ाने में सैन्धव (सेंधा नमक) श्रेष्ठ है।
  • वातघ्न (बढ़ी हुई वात या वायु का शमन करने वाला) द्रव्यों में तिल का तेल श्रेष्ठ है।
  • पितघ्न (बढ़े हुए पित्त का शमन करने वाला) द्रव्यों में घी श्रेष्ठ है।
  • कफघ्न (बड़े हुए कफ का शमन करने वाला) द्रव्यों में मधु यानि शहद श्रेष्ठ है।
  • जीवनीय द्रव्यों में दूध श्रेष्ठ है।
  • विरेचक  द्रव्यों में नसतिर श्रेष्ठ है।
  • स्निध द्रव्यों में तिल का तेल श्रेष्ठ है।
  • रसायन द्रव्यों में दूध – घी श्रेष्ठ है।
  •  वातवर्धक (वात बढ़ाने वाला) द्रव्यों में जामुन श्रेष्ठ है।
  • ज्वरघ्न (ज्वर का शमन करने वाला) द्रव्यों में लंघन श्रेष्ठ है।

आहार-तत्व

चरक संहिता के एक ही श्लोक में व्यक्ति के लिए आवश्यक सभी आहार तत्वों का निर्देश कर दिया गया है। यथा –

षष्टिकाञ्छालिमुद्गांश्च सैन्धवामलके यवान् आन्तरीक्षं पयः सर्पिर्जाङ्गलं मधु चाभ्यसेत्

तच्च नित्यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत्।।

आधुनिक विज्ञान की भाषा के घटकों के रूप में समझने पर भी इन खाद्य पदार्थों में सभी आवश्यक पोशक तत्वों की प्राप्ति होती है :

  • षष्टिक शालि

(60 दिन में पका हुआ  चावल )       = कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate)

  • मुद्ग (मूँग)                                    = प्रोटीन (protein)
  • सैंधव (सेंधा नमक)                       = क्षार ( alkaline)
  • आमलक (आँवला)                      = विटामिन (सी)
  • यव (जौ, malt)                           = सेल्युलोज (cellulose)
  • आंतरीक्ष(जल)                              =  शुद्ध जल (जिसमें पृथ्वी का मिश्रण न हो) (water content)
  • दुग्ध, घृत (दूध, घी)                       =  मेद (good fat, stickiness)
  • मधु (शहद )                                =  शर्करा (glucose)

आहार तत्व के महत्व को समझते हुए आप यह कर सकते हैं :-

  • भैंस के दूध के स्थान पर गाय के दूध का सेवन करें।
  • भैंस के दूध के घी के स्थान पर गाय के घी का सेवन करें।
  • वनस्पति घी के स्थान पर शुद्ध घी का सेवन करें।
  • रिफाइंड ऑइल के स्थान पर मूंगफली के तेल का/ तिल के तेल का सेवन करें।

(इसे समझने का बड़ा सरल सिद्धांत है – जिस पदार्थ को हम खाते हैं, उसी का तेल प्रयोग कर सकते हैं जैसे मूंगफली, तिल, सरसों हम खाते हैं तो उनका तेल हम प्रयोग कर सकते हैं। सूरजमुखी, करडी, ताड़ (palm), कपास आदि हम नहीं खाते हैं इसलिये इनका तेल भी प्रयोग नहीं करना चाहिए , ये शरीर में, धातु की विषमताएं बढ़ाते हैं तथा हानि करते हैं।)

  • चाय-कॉफी-कृत्रिम शीतल पेय के स्थान पर दूध-छाछ का सेवन करें।
  • तुअर (अरहर) के स्थान पर मूंग की दाल का सेवन करें।
  • आलू के स्थान पर सूरन/ जिमीकंद का सेवन करें।
  • लाल मिर्च के स्थान पर काली मिर्च का सेवन करें।
  • आम नमक के स्थान पर सैन्धव/सेंधा नमक का सेवन करें।
  • मांस-अंडे के स्थान पर कला का सेवन करें।
  • बाहर/बाजार के बने आहार के स्थान पर घर के आहार का सेवन करें।
  • कृत्रिम आहार के स्थान पर प्राकृतिक आहार का सेवन करें।

आहार तथा आहार-तत्व को लेकर कुछ भ्रांतियाँ, वहम 

  • रोग के समय पेट में जो पोषक आहार जाए उससे पोषण मिलता है – ऐसा मानना भ्रांति है, वहम है क्योंकि भोजन/आहार का पाचन हो तब ही तो पोषण मिलेगा। रोग में जठराग्नि मंद हो जाती है,। जठराग्नि की मंदता में खाया गया आहार पच नहीं पाता तथा शरीर को पोषण देने की बजाय रोग को पोषण देता है।
  • अधिक विटामिन खाने से आरोग्य प्राप्त होता है – यह भ्रांति है क्योंकि अधिक विटामिन भी कुछ रोगों को उत्पन्न करते हैं।
  • जीवाणु से ही सभी रोग फैलते हैं। यह सही नहीं है क्योंकि मंदाग्नि तथा मिथ्या /अपथ्य आहार ही मुख्य कारण हैं।
  • कच्चा आहार खाने से अधिक लाभ होता है ऐसा मानना एक भ्रांति है। कच्चा आहार पचने में भारी तथा जड़ होने से यह मंदाग्नि करके अजीर्ण करता है। पकी हुई, सुपाच्य तथा लघु (आसानी से पचने वाला)  करा हुआ भोजन खाने का अभ्यस्त हमारा शरीर कच्चे आहार को अनुकूल नहीं बना सकता।
  • रोगी या स्वस्थ व्यक्ति को अधिक पवन में रहना अच्छा है –  यह मान्यता सही नहीं है क्योंकि ऐसा करने वाले को वायु के रोग होते हैं तथा आयुष्य कम होता है। शुद्ध हवा वाला निर्वात स्थान ही अधिक पथ्य है।
  • अधिक प्रमाण में, ज्यादा मात्रा में हरी सब्जी-शाक खाने से आरोग्य बढ़ता है – ऐसा मानना भ्रांति है क्योंकि अधिक हरी सब्जी कब्ज़ करने वाली तथा नेत्र के रोग करने वाली होती है।
  • अधिक जल पीना सेहत के लिये अच्छा है – यह एक वहम है क्योंकि जैसे अधिक आहार, अधिक निद्रा हानिकारक है, वैसे ही अधिक जल पीना भी मंदाग्निजन्य सर्दी, जलोदर, अरुचि, सूजन, दस्त आदि रोग करता है।
  • जितना अधिक दूध-दही का सेवन करेंगे उतना अच्छा होता – ये भी एक कालांतर में आयी भ्रांति है। मात्रा से अधिक कुछ भी लेने पर तत्वों की अधिकता के कारण वह धातुओं में विषमता उत्पन्न करता है तथा शरीर की पाचन प्रणाली पर हानिकारक प्रभाव डालता है।
  • अर्श, भगन्दर, कर्णपूय, अपेन्डिसाइटिस, पथरी आदि की सामान्य प्राथमिक अवस्था में भी ऑपरेशन एकमात्र उपाय है – ये मान्यता ठीक नहीं है। आयुर्वेद में ऐसे रोग सामान्य औषध, पथ्यापथ्य या लंघन जैसे क्रियाओं से मिट जाते हैं।
  • सदैव अधिक व्यायाम करने वाला स्वस्थ रहता है ऐसा मानना वहम है क्योंकि स्वस्थ, तंदुरुस्त व्यक्ति थोड़ा चले, घर का काम करे तो पाचन यथायोग्य होने से आनंद मिलने से स्फूर्ति बढ़ाने से तबीयत अच्छी हो जाती है।

(आयुर्वेद अर्धशक्ति (बलार्द्ध तक) व्यायाम करने का निर्देश देता है। व्यायाम करते हुए व्यक्ति के हृदय में स्थित वायु जब मुख को आने लगे, ये अर्धशक्ति समझना चाहिए। सुश्रुत के अनुसार इसके लक्षण हैं माथे पर, नासिका छिद्र में,शरीर संधि (जोड़ों) बगल आदि स्थानों में पसीना आने लगे, मुख सूख जाए, ये सभी अर्धशक्ति के लक्षण हैं।अति व्यायाम से अनेक रोग व दोष उत्पन्न होते हैं। विशेष रूप से जिम जाने वाले लोगों को इसका ध्यान रखना चाहिए।)

आहार विधि-विधान

चरक ने आहार के आठ विधानों का या आठ भावों का वर्णन किया है तथा इसी प्रकार वाग्भट्ट ने सप्त आहार की कल्पना की है। आहार का हित या अहित इन पर निर्भर करता है। इन विधानों का सम्यक रूप से पालन करने पर शरीर को लाभ मिलता है, वहीं असम्यक रूप से पालन करने पर शरीर को हानि होती है।

ये अष्टायतन हैं –

  1. प्रकृति,
  2. करण(संस्कार),
  3. संयोग,
  4. राशि(मात्रा),
  5. देश,
  6. काल (समय),
  7. उपयोक्त (आहार का सेवन करने वाला) तथा
  8. उपयोग संस्था ! आहार को उपयोग करने के नियमों को उपयोग संस्था कहा जाता है।

आहार के उपयोग नियमों तथा आहार-रस-क्रम को आहार विधि-विधान कहा है। इसका वर्णन चरक संहिता में किया गया है:-

तत्रेदमाहारविधिविधानमरोगाणामातुराणां चापि केषाञ्चित् काले प्रकृत्यैव हिततमं भुञ्जानानां भवति-उष्णं स्निग्धं मात्रावत् जीर्णे वीर्याविरुद्धं इष्टदेशे इष्टसर्वोपकरणं नातिद्रुतं नाति विलंबितं अजल्पन् अहसन् तन्मना भुन्जीत आत्मनभिसमीक्ष्य सम्यक्।।

(च. स. वि. १/२४)

ये आहार के उपयोग नियम हैं।

  • उष्ण अर्थात गरम आहार का सेवन करें
  • स्निग्ध आहार का सेवन करें
  • मात्रा पूर्वक आहार लें
  • जीर्ण होने पर यानि पहले का खाया हुआ पूरी तरह पचने के पश्चात ही भोजन करें
  • वीर्य विरुद्ध, कार्य विरुद्ध भोजन न करें। उदाहरण: पका हुआ तथा कच्चा भोजन एक साथ लेना वीर्य विरुद्ध भोजन है।
  • मन के अनुकूल स्थान तथा मन के अनुकूल सामग्री का सेवन करें। जैसे किसी स्थान पर अत्यधिक गर्मी/सर्दी लग रही हो या अधिक गीला हो तो वह स्थान मन के अनुकूल नहीं है।
  • अति शीघ्रता तथा अत्यधिक धीरे-धीरे भोजन ना करें।
  • बातें ना करते हुए तथा ना हँसते हुए यानि शांत रहकर तथा भोजन में पूरा मन लगाकर भोजन करें।

(आजकल के समय में टी वी ना देखते हुए भोजन करने का नियम भी इसी श्रेणी में आएगा। भोजन के हित-अहित को तथा लाभ-हानि को जानकार भोजन करना चाहिए। )

अंतिम दो सिद्धांत पहली बार में साधारण लगते हैं किन्तु ये अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। आधुनिक काल में हमने अपने जीवन को पूरी तरह अपनी आजीविका के अनुसार बाँधा हुआ है। उनमें मुख्य है – ऑफिस/कार्यालय में समय ना होने के कारण भोजन के समय से बहुत देर से भोजन करना तथा शीघ्रता से सेवन करना। इसी प्रकार कार्यालय में कुछ अन्य कार्य करते हुए तथा घर पर टी वी पिक्चर आदि देखते हुए भोजन करना अब एक आम बात हो गयी है।

ऐसा करने पर अत्यधिक हानि होती है – खाद्य नली से तथा पेट से आवश्यक तत्त्वों तथा अग्नि का पर्याप्त संपर्क नहीं होता तो पचाने के द्रव्यों से रहित भोजन आगे मार्ग पर नहीं बढ़ता, खाने के मार्ग से ऊपर की ओर आता है। उचित रूप से आमाशय आदि अपने स्थान में नहीं ठहरता है। भोजन में विद्यमान अखाद्य पदार्थ जैसे बाल, पत्थर के कण आदि निगल जाता है। आहार द्रव्य के उत्तम गुण व दोषों की प्राप्ति नहीं होती , खाने से तृप्ति नहीं होती, अधिक मात्रा में आहार का सेवन होता है, आहार ठंडा हो जाता है तथा पाक विषम यानि पचने में भारी तथा कठिन हो जाता है।

आहार क्रम

सुश्रुत ने आहार के क्रम का उत्तरतंत्रम् स्थान के स्वस्थवृत्ताध्याय में बताया है :

विसृष्टे विण्मूत्रे विशदकरणे देहे च सुलघौ विशुद्धे चोद्गारे हृदि सुविमले वाते च सरति

तथाऽन्नश्रद्धायां क्लमपरिगमे कुक्षौ च शिथिले प्रदेयस्त्वाहारो भवति भिषजां कालः स तु मतः।।

  1. मल तथा मूत्र त्याग करने के पश्चात
  2. इंद्रियाँ निर्मल होने के पश्चात
  3. शरीर हल्का होने का अनुभव होने पर
  4. डकार शुद्ध होने पर
  5. हृदय भाग हल्का लगने पर
  6. अपान वायु ठीक से निकलने पर
  7. भोजन की इच्छा होने पर
  8. शरीर व मन में किसी प्रकार का भारीपन न लगने पर
  9. उदर ढीला प्रतीत होने पर ही व्यक्ति को भोजन करना चाहिये। ऐसा ना कर के भोजन करना क्रमविरुद्ध कहलाता हैं।
  10. भोजन करते समय पहले मधुर रस वाला पदार्थ खाना चाहिए, बीच में अम्ल रस प्रधान तथा लवण रस प्रधान पदार्थ तथा अंत में कटु, तिक्त, कषाय रस प्रधान पदार्थ करना चाहिए। फल को भोजन के पहले तथा पेय (छाछ आदि) पश्चात में लेना है।

खाना खाते समय पेट के दो भाग अन्न से तथा एक भाग जल से भरने चाहिए तथा एक भाग वायु संचार के लिये खाली छोड़ देना चाहिए। यह भोजन की योग्य मात्रा है। 

उसी प्रकार योगरत्नाकर तथा चक्रपाणि की सुश्रुत व्याख्या ग्रंथ में भोजन के समय का निर्णय, अकालभोजन तथा अकालभोजन से होने वाली हानि का विस्तार से उल्लेख है। इसका एक मुख्य सूत्र है :

याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत्।।

इसके दो अर्थ हैं :

  1. पहले भोजन के तीन घण्टे (एक याम) बीतने के बाद ही अगला भोजन करें तथा छह घण्टे बीतने से पहले अगला भोजन कर ले।
  2. प्रातः कम से कम एक प्रहर (याम) बीतने से पहले तथा दो प्रहर (लगभग दोपहर 12 बजे) के पश्चात भोजन ना करें।

एक प्रहर में भोजन करने से रस की उत्पत्ति होती है तथा दो प्रहर के पश्चात भोजन करने से बल का क्षय होता है। इससे अलग समय किये गए भोजन को अकाल भोजन कहते हैं। उससे मुख्य रूप से जठराग्नि मंद हो जाती है तथा उसके मंद होने से यानि मंदाग्नि से अपच होता है, खाना पचता नहीं है तथा अजीर्ण व आम (यानि कच्चा रस) तो सभी रोगों के कारण है। जठराग्नि जब प्रज्वलित है तथा उसे आहार न मिले तो वह वातादि दोषों को पचाती है, दोषों के क्षय हो जाने पर रस-रक्तादि धातुओं को पचाती है तथा धातु के भी क्षय हो जाने के पश्चात प्राणों को पचाती है अर्थात भूख लगने पर भोजन ना करने से प्राण तक नष्ट हो जाता है।

इसी प्रकार अकाल भोजन जठराग्नि की विषमता तथा मंदाग्नि दोनों का कारण है जिसके फलस्वरूप अजीर्ण होता है तथा आम यानि कच्चा रस बनता है।

(इस संदर्भ में पुनः आधुनिक आहार प्रणाली की एक बात का मूल समझ लेना चाहिए। एक साथ पर्याप्त मात्रा में भोजन करने  के बजाय थोड़ी थोड़ी देर में कुछ कुछ खाते रहना तथा प्रातः काल उठते ही कुछ खा लेना या बेड-टी आदि लेना, तथा दो समय के भोजन के अलावा भी इधर-उधर किसी भी समय खाते रहना आजकल एक आम व्यवहार है। यह इस नियम के बिल्कुल विपरीत है तथा अकाल-भोजन की श्रेणी में ही आता है। अकाल भोजन का हानिकारक प्रभाव तुरंत नहीं दिखता, वह धीरे-धीरे शरीर की धातुओं में तथा दोषों में विषमता उत्पन्न करता है। इसे एक प्रकार का धीमा विष भी कहा जा सकता है। इस अपथ्य का आजकल अधिक प्रभाव दिखता है।)

ऋतुसम्यक आहार

ऋतुओं के अनुसार आहार तथा व्यवहार में परिवर्तन का आदी होने को ऋतुसात्मय कहते हैं। यदि कोई बाहरी वातावरण में परिवर्तन के अनुसार आहार तथा जीवन शैली या गतिविधियों को संशोधित कर सकता है, तो वह अच्छा स्वास्थ्य तथा कल्याण प्राप्त कर सकता है – ऐसा चरक बताते हैं।

तस्याशिताद्यादाहाराद्बलं वर्णश्च वर्धते यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेष्टाहारव्यपाश्रयम्।।

जो व्यक्ति ऋतुसात्मय को, ऋतुओं के अनुसार आहार तथा व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, तथा ऐसे व्यवहार का समय पर अभ्यास करता है, तथा जिसके आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, उसका बल तथा ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, तथा वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है। ऋतु के अनुरूप आहार-विहार की चर्चा दूसरे खंड में ऋतुचर्या में की गयी है।

पाचन व जठराग्नि का महत्व तथा अपथ्य के परिणाम

आजकल के समय की व्यापक स्वास्थ्य-समस्या का मूल है – अजीर्ण अर्थात अपच – भोजन का न पचना। भाव प्रकाश में उसके कारण स्पष्ट रूप से बताए गए हैं:

आहार-

अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च संधारणात् स्वप्नविपर्ययाच्च। कालेsपि सात्मयं लघु चापि भुक्तमन्नं पाकं भजते नरस्य।। 

ज्यादा जल पीने से, विषम – थोड़ा या अधिक, जल्दी या देर से भोजन करने से, मलमूत्रादि के वेग रोकने से, शयन का विपर्यय से अर्थात दिन में शयन तथा रात में जागने से अथवा जिसको जिस समय शयन या जागना अभ्यस्त हो उस समय न शयन तथा न जागने से – तथा लघु तथा ठीक समय पर भोजन न करने से खाया हुआ अन्न नहीं पचता है।

व्यवहार-

ईर्ष्याभयक्रोधसमन्वितेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन।।  विद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्परिपाकमेति।।

जो ईर्ष्या, भय तथा क्रोध से युक्त तथा लोभी है एवं रोग तथा दीनता से पीड़ित तथा द्वेष से युक्त रहते हैं उनका भी भोजन किया हुये अन्न का भली-भांति पाचन नहीं होता, अतः अजीर्ण न हो इसके लिये इन सभी कर्मों का त्याग करना चाहिए।  जठराग्नि को बचाना तथा उसे सम रखना सभीसे अधिक आवश्यक है।

जठराग्नि मंद होने से अजीर्ण व आम (बिना पचा, कच्चा रस जो रक्त बनता है) होता है तथा यदि अग्नि का असंतुलन हो तो मन स्थिर नहीं रहता, व्यक्ति व्यथित तथा उद्विग्न रहता है। अतः व्यक्ति का सभीसे अधिक ध्यान अपने आहार को पूर्ण रूप से पचाने पर तथा अपनी जठराग्नि को सम रखने पर होना चाहिए। आहार, विहार तथा व्यवहार ऐसा होना चाहिए जिससे भोजन के पचने में बाधा न आये तथा भोजन को पचाने में सहायता हो।

ऋतुचर्या में भी हेमंत ऋतु में अधिक व गुरु खाने के लिये इसलिये बताया गया है कि काल स्वभाव के कारण यानि ठंड के कारण रोम-छिद्र अवरुद्ध हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं, जिसके कारण शरीर में अग्नि अधिक हो जाती है तथा जठराग्नि अधिक बलवान हो जाती है। अतः शरीर अधिक आहार ग्रहण कर सकता है तथा पचा सकता है। शरीर का प्राकृतिक तंत्र इतना अद्भुत है कि शीत ऋतु में लिये गये आहार के बल को पूरे वर्ष संचित करके रखता है तथा समय पड़ने पर (जैसे ग्रीष्म, वर्षा ऋतु में) शरीर को पोषण व ऊर्जा देने में उस संचित बल का प्रयोग करता है।

विरुद्ध आहार

साधारण रूप से किसी भी भोजन के खाने के पश्चात पचकर उसके  दो भाग हो जाते हैं – सार व कीट। पोषक द्रव्य के रूप में उसका रूपांतरण हो जाता है वो सार होता है (जिसका रस धातु बनती है) तथा जिस भाग का पोषक द्रव्य के रूप में रूपांतरण नहीं हो पाता है वह (कीट भाग) मल के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है।

उदाहरण के लिये : जब जल को उबालते हैं तब या तो उसका भाप के रूप में परिवर्तन/ रूपांतरण हो जाता है या वह उबलकर बाहर निकल जाता है। कुछ ऐसे आहार होते हैं जिनका या तो रूपांतरण नहीं हो पाता, वह पकते/पचते नहीं हैं तथा दूसरा वो शरीर में पड़े रहते है, शरीर से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसा शरीर में पड़ा हुआ आहार विष बनता है तथा इसके कारण शरीर में विषमताएं आती हैं, बहुत-से रोग होते हैं। ऐसे आहार को विरुद्धाहार कहते हैं। ये दोष को प्रकुपित करते हैं, शरीर की प्रणाली को अस्त-व्यस्त करते हैं (शरीर को कष्ट देते हैं) तथा दूसरे वो शरीर से बाहर नहीं निकल पाते।   न तो ये पच कर शरीर में समा पाते हैं तथा न निकल पाते हैं। विरुद्धाहार पूरी तरह अपथ्य है। अधिकतर त्वचा के रोग, रक्त के रोग तथा उदर के रोग विरुद्धाहार के कारण होते हैं।

ऐसे कौन से आहार हैं जो विरुद्धाहार कहलाते हैं? बहुत से आहार द्रव्य होते हैं, ये अलग-अलग तो साम्य होते हैं सही होते हैं, किन्तु प्राकृतिक रूप से एक-दूसरे के साथ मेल नहीं खाते हैं, उन्हे यदि साथ में लिया जाए तो ये विरुद्धाहार हो जाते हैं। जैसे मनुष्य का मन मुख्य होता है, उसी तरह आहार का तन (उसका प्रभाव मुख्य होता है।

चरक संहिता में ऐसे आहार सूत्रबद्ध हैं-

  1. जो एक साथ नहीं लेने हैं ;
  2. दूसरी विधि से नहीं लेने हैं तथा
  3. एक के पश्चात एक नहीं लेने हैं , आदि।

ऐसे 18 प्रकार के विरुद्धाहार हैं :

उदाहरण के लिये:

  1. रात को दही खाना काल विरुद्ध है।
  2. भोजन के पश्चात जल पीना क्रमविरुद्ध है तथा पहले पीना अग्निविरुद्ध है क्योंकि पहले पिया जल जठराग्नि को मंद कर देता है।
  3. घी तथा मधु को समान मात्रा में मिलाना (ये विष बन जाता है) ये संयोगविरुद्ध है।
  4. जठराग्नि के बुझ जाने पर, भोजन के समय में देरी से भोजन करना कालविरुद्ध है।
  5. मिल्क्शेक एक ऐसा विरुद्धाहार है जो आजकल सर्वाधिक लोकप्रिय आहार है। फल और दूध साथ लेना संयोगविरुद्ध है।

इसके प्रत्येक प्रकार के विरुद्धाहार पर संस्कृति आर्य गुरुकुलम् के संशोधन-व्याख्यान उपलब्ध हैं, इस अति महत्वपूर्ण विषय के विस्तार के लिये उन्हे देखा जा सकता है।

आरोग्य के सूत्र

वाराणसी के परमविद्वान आयुर्वेदाचार्य पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी ने आधुनिक काल की आवश्यकताओं के लिये आजीवन आयुर्वेद के अनेक ग्रंथों का संशोधन किया। उनके संशोधन उनके ऋषिपरंपरा आधारित गुरुकुल द्वारा उनके शिष्यों को दिए गए ज्ञान व ग्रंथों के रूप में सुरक्षित हैं। उनमें से सरल रूप से पालन करने योग्य व ध्यान रखने योग्य आरोग्य सूत्रों का एक संकलन इस प्रकार हैं :

व्यक्तिगत आरोग्य

  • लाभानां श्रेष्ठमारोग्यम्। सर्व लाभ में, श्रेष्ठ लाभ आरोग्य का है।
  • आमं हि सर्वरोगाणां मूलम्। ‘आम’ (कच्चा रस) ही सर्व रोगों का कारण है।
  • लंघनं परमौषधम्। लंघन श्रेष्ठ औषध है।
  • वावे मित्रवत् भाचरेत्। बढ़ी वायु में शरीर के साथ मित्र समान व्यवहार करे।
  • पित्ते नामावृवत् आचरेत्। बढ़े पित्त में शरीर के साथ दामाद जैसा व्यवहार करें।
  • कफे शत्रुवत् भाचरेत्। बढ़े कफ में शरीर के साथ शत्रु जैसा व्यवहार करना चाहिए।
  • न वेगान् धारयेत् धीमान्। समझदार मनुष्य (शारीरिक) वेग को ना रोके।
  • मनोवेगान विधारयेत्। मनके आवेगों को रोके।
  • दक्षतीर्थात् शास्त्रार्थो द्रष्टकर्मा शुचिभिषग्। बुद्धिमान, व्यवस्थित शास्त्रज्ञान प्राप्त किया हुआ, अनुभवी, पवित्र वैद्य रोगीको रोगमुक्त कर सकता है।
  • बहुगुणं बहुकल्पं संपन्नं योग्यमौषधम्। अनेक गुणोवाला, अनेक योजना कर सके ऐसा, अच्छा-सच्चा तथा योग्य रीतिसे दिया गया औषध परिणाम दे सकता है।
  • विषमस्वस्थ वृत्तानामेवे रोगास्वथाड परे। नायन्ते नातुरस्वस्मात् स्वस्थवृत्तपरो भवेत् ॥ जो मनुष्य स्वस्थवृतके नियम अनुसार नही चलते, वे ही शारीरिक-मानसिक रोगोसे पीडित होते है इसलिए स्वस्थ रहने के लिये स्वस्थवृत के नियमो का पालन करे।

सामाजिक आरोग्य

सुखार्था: सर्वभूतानां मता: सर्वा: प्रवृत्तय:। सुखं च न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत्।।

सभी प्राणियों की सभी प्रवृत्तियाँ सुख के लिये होती हैं तथा सुख बिना धर्म के नहीं मिलता, इसलिये मनीषी को धर्म पारायण होना चाहिए। आयुर्वेद का सुख आरोग्य है।

आरोग्य बड़ा सुख है यह पिछले दो वर्ष के कोरोना प्रभावित काल में हमने भली-भांति अनुभव किया है। इसमें हमें स्वास्थ्य के दोनों पक्ष- निजी या व्यक्तिगत तथा सामाजिक – दोनों अच्छे से अनुभव करने को मिले।  समाज का स्वास्थ्य अच्छा नहीं होने से प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूप से प्रभावित हुआ, दुखी हुआ।

अतः सामाजिक स्वास्थ्य मात्र शासन का ही नहीं हम सभी का दायित्व है। इस वातावरण को हम निरंतर हानि पहुँचा रहे हैं। इसका संतुलन बिगाड़ रहे हैं। भाग्य से (पुन्य कर्मों के फल से) भारत में जन्म मिलता है जहाँ हमारे पास अपने त्रि-स्वास्थ्य को प्राप्त कर अपने पुरुषार्थ से अपना विकास करने का अवसर होता है। वह किसी झुग्गी बस्ती में जन्मे निर्धन तथा किसी श्रेष्ठी के घर में चाँदी की चम्मच लेकर जन्मे साधन सम्पन्न व्यक्ति, दोनों को मिलता है।

बड़े सामाजिक स्तर पर स्वास्थ्य को कैसे क्रियान्वित किया जा सकता है?

कोरोना जैसा वैश्विक संक्रमण को आयुर्वेद में जनपदोध्वंस कहा जाता है। चरकसंहिता के जनपदोध्वंसनीय अध्याय में इसका सम्यक वर्णन है। भूमि, वायु, जल तथा काल के दूषित हो जाने के कारण मरक अथवा बड़े स्तर पर प्राणहानि करने वाले रोग फैलते हैं। इसका मूल कारण अधर्म बताया गया है। जनता अपने स्वास्थ्य-संबंधी उपदेशों, बताए नियमों पर ध्यान नहीं देती तथा राज्य (शासन) भी अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य-संबंधी कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता तभी ऐसी दुःस्थिति उत्पन्न होती है। ऐसा होने पर व्यापक क्षेत्र के लिये जल के शोधन की, भूमि तथा वायु के शोधन की विधियाँ भी आयुर्वेद में बताई गयी हैं। संक्रामक रोग की धारणा स्पष्ट है तथा उन संसर्गज दोषों की शांति के विधान भी बताए गए हैं। ऐसे रोगों को छिपाने पर पहले दण्ड दिए जाने का प्रावधान था।

वायु के शोधन का एक मुख्य उपाय सामूहिक यज्ञ बताए गए हैं जिससे कीटाणुओं का नाश होता है तथा वायुशुद्धि होती है। इस प्रकार से व्यापक स्तर पर समाज के स्वस्थवृत्त को सुरक्षित रखा  जाता था। जो आज के समय में भी करना संभव है। उसके लिए सामूहिक रूप से पुरुषार्थ की तथा तत्परता की आवश्यकता है तथा ये शासन की नहीं हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।

वात-पित्त-कफ ये तीनों शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं इसलिये इन्हे त्रि-स्तम्भ कहा गया है। आहार, शयन (निद्रा) तथा ब्रह्मचर्य इन तीनों को उपस्तंभ कहा गया है। चक्रपाणि के अनुसार जो प्रधान स्तम्भ (वातादि दोष) के समीप रहकर शरीर को धारण करता है उसे उपस्तंभ कहते हैं। इन तीनों के उचित प्रकार से सेवन से शरीर का बल तथा वर्ण पोषित होता है। इसमें आहार मुख्य है। शुद्ध आहार सेवन करने से सत्व गुण की वृद्धि होती है। यह सतवगुण, स्मृति में स्थिरता लाता है। हित तथा सात्विक आहार से मानसिक स्वास्थ्य बनता है। इसमें भी अधिक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि पथ्य आहार (हिताहार) सेवन करने वाले व्यक्तियों को औषधियों का (तथा आज के समय  में सप्लीमेंट्स का) उपयोग आवश्यक नहीं होता।

निष्कर्ष : सामाजिक आरोग्य तथा व्यक्तिगत स्वास्थ्य से बनता है स्वस्थवृत्त !

ऐसे में दो मूलभूत बातें ध्यान देने योग्य हैं।

प्रथम:- मनुष्य एक प्राकृतिक कृति है। वह जितना प्रकृति व प्राकृतिक वस्तुओं के बीच में तथा सपंर्क में रहेगा, उसमें उतनी अधिक समता रहेगी। तथा उनसे जितना दूर जाएगा, मानव-निर्मित कृत्रिम वस्तुओं का प्रयोग करेगा व संपर्क में रहेगा उतना अधिक विषम यानि अस्वस्थ रहेगा।

द्वितीय:- स्वस्थ रहने के लिए हम आजकल इतना कुछ करते हैं, किन्तु कुछ मौलिक सिद्धांतों को पूरी तरह से अनदेखा करते हैं, जिसके फलस्वरूप अत्यधिक प्रयत्न करते रहने पर भी पूर्व स्वस्थ नहीं रह पाते हैं। कुछ न कुछ समस्या, कोई व्याधि सताती ही रहती है।

इस पत्र में हमने स्वस्थ रहने के लिए पालन करने योग्य नियमों तथा उपायों को आहार के सिद्धांतों तथा आचार रसायन के आहार-विहार-व्यवहार के नियमों के माध्यम से भली प्रकार जाना। इन्हें अपनाने के लिये  अपनी जीवनशैली में कई सारे परिवर्तनों की आवश्यकता हो सकती है। इनमें से अनेक नियम/सिद्धांत  असाध्य, मुश्किल, अप्रायोगिक लग सकते हैं तो हमारी ऐसी इच्छा हो सकती है कि इसमें से कुछ एक चुन कर उनका पालन कर लें। ये ध्यान रखने वाली बात है कि इनको अपने अनुसार अपनी सहजता से चुनना हमें पूर्ण स्वास्थ्य की ओर नहीं ले जाएगा। आजकल की सबसे बड़ी भ्रांति ये है कि हम अपनी मर्ज़ी से चुनते हैं कि मै अपनी जीवन शैली के कारण ये कर सकता हूँ तथा ये नहीं कर सकता। या जो मैं करता  हूँ वह पर्याप्त है या अपनी इस परिस्थिति में मैं इतना ही कर सकता हूँ – अपने को दिए ऐसे तर्क हमें  स्वस्थ रखने में सहायक नहीं होंगे।

समझने की सरल बात है कि स्वस्थ रहने के लिये जो करना चाहिए यदि वो नहीं करेंगे तो स्वस्थ नहीं रहेंगे।

यदि हम स्वस्थ रहना चाहते हैं तथा स्वस्थवृत्त की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं, उसे फैलाना चाहते हैं तो व्यक्तिगत स्वास्थ्य के आयुर्वेद के कालातीत दिशा-निर्देशों के माध्यम से हम सभी को स्वस्थ रहना होगा। यह दिशा-निर्देश किसी देश, समुदाय, वर्ग-विशेष के लिये नहीं है बल्कि सभी लोगों के लिये, मानव-जाति के लिये हैं। व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य पहला लक्ष्य है।

उसी प्रकार आचार-रसायन तथा चर्या का पालन तथा उसके द्वारा मानसिक व वैचारिक स्वास्थ्य की प्राप्ति दूसरा लक्ष्य है। व्यक्तिगत मानसिक स्वास्थ्य से परस्पर सदवृत्त का निर्माण होता है जो सामाजिक वातावरण को शुद्ध करता है, सँवारता है। सामाजिक स्वास्थ्य, व्यापक सृष्टि के स्वास्थ्य तथा उसकी समता को बनाए रखने के लिये कार्यरत रहते हैं। एक-एक व्यक्ति करके हम सभीसे समाज बनाता है तथा इन्हीं व्यक्तियों का सामूहिक स्वास्थ्य सामाजिक स्वास्थ्य का निर्धारण करता है। विषमताओं तथा बाधाओं को ठीक करना समाज के सभी व्यक्तियों व शासन दोनों का धर्म व उत्तरदायित्व है। इस प्रकार हम सामाजिक स्तर पर भी स्वस्थवृत्त की स्थापना कर सकते हैं।

संदर्भ:

  • पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी (वाराणसी) के उपलब्ध आयुर्वेद ग्रंथ संशोधन
  • संस्कृति आर्य गुरुकुलम द्वारा आयोजित आयुर्वेद सत्र व प्रशिक्षण
  • स्वाध्याय
  • सुश्रुत संहिता
  • चरक संहिता
  • अष्टांग हृदयम्
  • भाव प्रकाश
  • योगरत्नाकर
  • आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास – आचार्य प्रियव्रत शर्मा
  • स्वस्थवृत्त सुधा – डॉ.काशीनाथ समगंडी व डॉ.जागृति शर्मा

 शब्दकोष :

  1. Health Industry
  2. Jigsaw puzzle
  3. Interdependency
  4. Good to have
  5. UV rays
  6. Frequency
  7. Bowl movement
  8. Piles
  9. Menstruation
  10. Disinfection
  11. Recurring-account

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