“क्रांतिदूत” नाम से ही जाहिर था कि किताब क्रांतिकारियों पर लिखी गयी है। सवाल था कि कौन से क्रांतिकारी? झाँसी नाम सुनते ही सबसे पहले तो रानी लक्ष्मीबाई याद आती हैं, और उनपर पहले ही काफी कुछ लिखा जा चुका है। किसी नयी किताब में झाँसी से जुड़ा कोई कुछ नया क्या लिख देगा? कुछ ऐसा ही सोचते हुए जैसे है मैंने पन्ने पलटने शुरू किये, दो वहम तो फ़ौरन टूट गए। झाँसी का जुड़ाव केवल एक क्रांतिकारी से नहीं है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कई सशस्त्र क्रांतिवीरों से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ भी झाँसी में ही हुई हैं। पुस्तक के पहले भाग का नाम “झाँसी फाइल्स” था तो मेरा दूसरा वहम था कि शायद हालिया घटनाओं से फायदा मिलता हो इसलिए “फाइल्स” नाम में जोड़ दी गयी है। शुरूआती पन्नों में ही ये वहम भी टूट गया क्योंकि एक तो ये पुस्तक “फाइल्स” के चर्चित होने से काफी पहले लिख दी गयी थी। ऊपर से जिस तरीके से लालफीताशाही फाइलों में सत्य को दबाती है, वैसे ही अगर सशस्त्र क्रांतिकारियों का नाम भारतीय इतिहास में दबाया गया हो तो श्रृंखला की पहली किताब का नाम “फाइल्स” रखना तो बनता ही है।
कुछ पन्ने और पलटे तो “रौशन सिंह” नाम याद आया। कभी स्कूल के ज़माने में एक कहानी पढ़ी थी जिसमें एक क्रांतिकारी, रौशन सिंह, जिन्हें फांसी हो गयी थी, उनके परिवार की मदद एक न्यायाधीश करते हैं। किस्से-कहानियों में ही एक बार उनका नाम पढ़ा, और दोबारा इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में कभी नहीं देखा। न जाने ऐसे कितने क्रांतिकारी रहे होंगे जिनका नाम इतिहास की किताबों से “अहिंसा” के नाम पर पोंछकर मिटा दिया गया। मास्टर जी यानि मास्टर रुद्रनारायण सिंह का नाम हमें शुरुआत के कुछ ही पन्नों में पता चल चुका था। कहानी सरकारी खजाने की लूट, किसी आम आदमी के घर डकैती को लेकर क्रांतिकारियों के मन में उपजते सवालों पर आपसी बातचीत से शुरू होती है। ये हमने कभी अंग्रेजी लेखन के सम्बन्ध में पढ़ा था कि “फर्स्ट पर्सन अकाउंट” पाठकों के लिए कहीं अधिक रोचक होता है। जिस “थर्ड पर्सन अकाउंट” की तरह इतिहास अक्सर लिखा जाता है, वो पाठकों के लिए उबाऊ हो सकता है। लेखक मनीष श्रीवास्तव ट्रेन लूट की घटना के दौरान जब बिस्मिल, अशफाक और क्विक सिल्वर कहलाने वाले चंद्रशेखर आजाद की बातचीत पेश करते हैं तो लिखने की शैली का ये अंतर खूब स्पष्ट हो जाता है।
अकेले बैठे भी खुद से सवाल करने की मेरी आदत अभी छुटी नहीं, तो शुरुआती सवालों-वहमों का निष्पादन होते-होते हम एक नए सवाल पर पहुँच गए थे। जैसे पहले कुछ पन्ने पाठक को बाँध लेते हैं, क्या लेखक वही गति पूरी पुस्तक में कायम रख पाएंगे? ये सवाल मन में आते ही ध्यान गया कि करीब सौ-सवा सौ पन्नों की पुस्तक में से पचास तो मैं पार कर चुका हूँ! अबतक मास्टर जी की क्रांतिकारियों से बातचीत के क्रम में केवल घटनाएँ नहीं बीत रही थीं। अब जो हिस्से सामने थे उनमें विचारधारा से जुड़े प्रश्न भी आ रहे थे। ये कुछ ऐसा था जैसे किसी ने पूरे स्कूल-कॉलेज के दौर में अहिंसा महान बताती पुस्तकें पढ़ने वाले को भगवती चरण वोहरा की लिखी “फिलोसोफी ऑफ द बोम्ब” पढ़ने को दे दी हो! अक्सर लोग ऐसा मान लेते हैं की फलसफा-दर्शन केवल गांधीवादी-कांग्रेसी नेताओं के पास था। क्रांतिकारियों के पास भी नैतिकता, दर्शन, भविष्य की योजनाओं, समाज की व्यवस्था, जैसे विषयों पर कहने के लिए कुछ होगा, ऐसा सोचना ही मुश्किल है। शायद ऐसा इस वजह से होता होगा, क्योंकि भगत सिंह के असेंबली में बम फेंकने की घटना, या आज़ाद का अपनी पिस्तौल को “बमतुल बुखारा” बुलाना तो आम जानकारी है, मगर “फिलोसोफी ऑफ द बम” जैसे पर्चे जो गाँधी के “कल्ट ऑफ़ द बम” के जवाब में लिखे गए थे, वो आम नागरिकों के लिए सहज उपलब्ध नहीं हैं।
अहिंसा से जुड़े मिथकों को मास्टर जी की बातचीत का वो हिस्सा तोड़ देता है, जहाँ वो महाभारत के उदाहरणों के जरिये अपनी बात समझाते हैं। नहीं, जो अक्सर सोशल मीडिया पर “अहिंसा परमो धर्मः” को अधूरा श्लोक बताता दिखता है, ये वैसा हिस्सा नहीं है। विदुर नीति के जिस “शठे शाठ्यं समाचरेत्” वाले हिस्से को मूर्खों के साथ समझदारी नहीं दिखानी चाहिए के अर्थ में प्रयोग किया जाता है, उस श्लोक में भी हिंसा-अहिंसा पर ही बात हो रही होती है। ये हिस्सा बताता है कि लेखक ने केवल उन जगहों पर जाने का प्रयास नहीं किया जहाँ क्रांतिकारी कभी छुपे-रहे थे, या फिर उनसे जुड़ी घटनाओं की जो जगहें गवाह रही थीं। उन्होंने पुस्तकों से भी इस विषय में प्रयाप्त शोध किया है। अक्सर इतिहासकार अपने कमरों तक सीमित रहकर शोध करते हैं। उन स्थलों तक जाना, और किताबों से भी शोध करना, ये बातें “क्रांतिदूत” को सिर्फ एक उपन्यास की श्रेणी से निकालकर, जानकारी बढ़ाने वाली प्रमाणिक इतिहास की पुस्तकों के करीब पहुंचा देती है।
“क्रांतिदूत” एक श्रृंखला की तरह लिखी जा रही है और “झाँसी फाइल्स” इस श्रृंखला का पहला भाग मात्र है। जैसी रूचि इस पुस्तक में दिखाई जा रही है, आशा की जा सकती है कि पाठक इसके आगे के भागों को भी वैसे ही हाथों-हाथ लेंगे। भारत की आजादी की लड़ाई के सशस्त्र क्रांतिकारियों पर लिखे जाने वाले साहित्य में “क्रांतिदूत” संभवतः मील का पत्थर सिद्ध होगी।
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