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वाराणसी और मंदिर

बनारस इतिहास से पुराना है, परम्पराओं से पुराना है, दंतकथाओं से पुराना है, और इन सबको एक साथ जोड़ भी दें तो भी उनसे दोगुना पुराना है! ऐसा मार्क ट्वेन ने बनारस के बारे में लिखा है। इसके वाबजूद अगर विदेशियों द्वारा बनारस के बारे में क्या लिखा गया है, ये देखेंगे तो हर बात पढ़ने में अच्छी नहीं लगेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि इसाई यात्रियों और धर्म परिवर्तन करवाने निकले मिशनरी भारत में ब्राह्मणों की वजह से खुद को असफल मानते थे। थॉमस ज़ेवियर (जिसके नाम पर करीब-करीब हर शहर में कोई सैंट ज़ेवियर स्कूल या कॉलेज होता ही है) अपनी चिट्ठियों में भारत के ब्राह्मणों को धर्म परिवर्तन की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बताता, पानी पी पी कर कोसता दिखता है। मगर फिर वो इकलौता भी कहाँ था? सर काटकर सवा मन जनेऊ तौलने के किस्से, सुरंग जेब, माफ कीजियेगा, औरंगजेब के भी कम कहाँ हैं?

जिन फिरंगियों के लिखे का जिक्र होता है उनमें जीन बैप्टिस्ट टैवर्निअर का जिक्र अक्सर आता है। वो हीरे-जवाहरात का व्यापारी (और मूर्तियों जवाहरातों का चोर) था। उसने भारत में 1636 से 1668 के बीच छह यात्राएं की थी। बनारस के जिक्र के साथ ही वो बिंदु माधव के मंदिर का उल्लेख करता हुआ उसे पैगोडा बताने लगता है। ये ज़िक्र महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि कुछ ही दिन पहले जब प्रधानमंत्री मोदी ने इसी बिंदु माधव के मंदिर की बात कर दी थी तो सुरंग जेब, माफ कीजियेगा, औरंगजेब के समधियों-सालों को बुरा लग गया था। बुरा लगने लायक बात भी है क्योंकि बनारस पर शोध करने के लिए विख्यात डायना एल एक्क भी अपनी किताब की शुरुआत जीन बैप्टिस्ट टैवर्निअर के इसी मंदिर की चर्चा के साथ करती हैं और बताती हैं कि जीन बैप्टिस्ट टैवर्निअर के ये मंदिर देखने और उसके बारे में लिखने के कुछ ही दिनों बाद सुरंग जेब, माफ़ कीजियेगा, औरंगजेब ने इसे तुड़वा डाला था।

जीन बैप्टिस्ट टैवर्निअर ने जो इस मंदिर बारे में लिखा उससे पता चलता है कि वो संभवतः सुबह की किसी आरती के समय वहाँ पहुँचा था। उसने लिखा है कि जैसे ही पर्दा उठा लोग जमीन पर लेट कर, दोनों हाथ सिर के ऊपर जोड़ते हुए मूर्ति को प्रणाम करने लागे। लोगों ने कई फूलों के गुच्छे और मालाएं मूर्ति की ओर बढ़ाई जिसे पुजारी मूर्ति का स्पर्श करवाकर श्रद्धालुओं को वापस दे देते थे। एक वृद्ध पुजारी मूर्ति के चरणों के पास बैठा हुआ था। उसके हाथ में नौ ज्योति वाली आरती का दिया था जिसे वो घुमाता जाता था और समय समय पर उसमें कोई सुगंधी छिड़कता जाता था। लोगों को जीन बैप्टिस्ट टैवर्निअर का विवरण विचित्र लग सकता है, लेकिन न तो टैवर्निअर को ये पता था कि मूर्ति विष्णु-कृष्ण की हो सकती है, न ही उसे कपूर जैसी चीजों से आरती के बारे में पता था, इसलिए जितना उसने लिखा है, वो भी काफी है। गौर करने लायक ये भी है कि वो इतने पास से आरती देख रहा था कि नौ दिए गिन ले। इससे ये प्रश्न उठता है कि क्या उस दौर तक मंदिरों में आने वाले व्यक्ति से उसकी जाति-धर्म पूछकर उसे बाहर नहीं करते थे?

बिंदु माधव के मंदिर को सुरंग जेब, माफ़ कीजियेगा, औरंगजेब द्वारा तुड़वा दिए जाने के बाद उसके मूल स्थान पर दोबारा कभी बनवाया नहीं जा सका। ऐसा क्यों हुआ होगा? ये प्रश्न हमें रामधारी सिंह दिनकर की लिखी “संस्कृति के चार अध्याय” पर ले आता है। शेख हमदानी और आरसी मजुमदार के उद्धरण से रामधारी सिंह दिनकर ने “हिन्दू मुस्लिम सम्बन्ध” नाम के अध्याय में जो मुस्लिम राज्य के नियम कानून लिखे हैं उनमें स्पष्ट लिखा है –

  1. मुस्लिम-राज्य में कोई भी प्रतिमालय नहीं बनाया जा सकता।
  2. जो प्रतिमालय तोड़ दिये गये हैं, उनका नव-निर्माण नहीं किया जा सकता।
  3. कोई भी मुस्लिम यात्री प्रतिमालय में ठहरना चाहे तो बेरोक-टोक ठहर सकता है।

इसके अलावा भी उन्होंने कई बातें लिखी हैं, मगर इन तीन से ही स्थापित इतिहास की किताबों में पढ़ाई गयी एक बात पर प्रश्न फिर से खड़े हो जाते हैं। तथाकथित इतिहास हमें शेखुलरिज्म के नाम पर ये बताता है कि मुस्लिम शासक हिन्दुओं के धार्मिक कार्य कलापों से अलग रहते थे, उसमें कोई दखलंदाजी नहीं करते थे। आरसी मजूमदार जैसे इतिहासकार, शेख हमदानी की “जखिरातुल-मुलुक” जैसे मूल स्रोत और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जैसे विद्वान भी इससे सहमती रखते तो नहीं दिखते।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ऐसे दूसरे उदाहरण भी देते हैं – “हिमालय के पास साम्बल में एक बौद्ध मंदिर था, जहाँ चीनी भक्त काफी संख्या में आते थे। चीनी सम्राट ने एक बार चाहा कि वे उस मंदिर का जीर्णोद्धार करवा दें। निदान, मुहम्मद-बिन-तुगलक को उपहार भेजकर उन्होंने अनुमति की याचना की। तुगलक ने उपहार तो रख लिये, लेकिन, चीनी सम्राट को जवाब यह भेजा कि मुस्लिम-राज्य में मंदिर वही बनवा सकता है जो जिजिया देने को तैयार हो। फिरोज़ शाह तुगलक जिजिया देनेवालों को भी मंदिर बनाने की अनुमति नहीं देता था।” इतने के बाद तथाकथित इतिहासकारों का ये कहना कि मुस्लिम शासक हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में दखल नहीं देते थे, स्पष्ट रूप से झूठ सिद्ध होता है। इसके बाद लीपापोती जारी रखते हुए तथाकथित इतिहासकार हमें ये भी बताते हैं कि फिरंगियों ने ये नीति अपनाई कि लोगों के धार्मिक मामलों में दखल न दिया जाये तो हिन्दू विद्रोह नहीं करेंगे, इसलिए दखलंदाजी से दूर रहे। मंदिरों को सरकारी कब्जे में लेने के लिए फिरंगियों ने “रिलीजियस इंडोमेंट्स एक्ट, 1863” बनाया था। इसमें सिर्फ मंदिरों को कब्जे में लेने की बात थी, चर्च, गुरूद्वारे, मस्जिद, सभी इस एक्ट से बाहर थे। तो जाहिर है अंग्रेजों की भी दखल न देने की कोई नीति नहीं थी।

अब प्रश्न उठता है कि इन सबकी चर्चा आज क्यों? इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से आज क्या लाभ होगा? आज इनपर बात करनी चाहिए, क्योंकि जैसा एकाउंटिंग में व्यापार को “गोइंग कंसर्न” मानकर चला जाता है, वैसे ही संस्कृति के साथ भी है। संस्कृति एक दिन बनी और पांच वर्ष बाद अप्रासंगिक हो गयी, ऐसा तो होता नहीं। मंदिर और उससे जुड़ी परम्परा पर बात करते समय ऐसे सांस्कृतिक हमलों की भी बात करनी होगी, जब बाहरी घुसपैठ से, किसी और ने परम्पराओं को अपने हिसाब से बदल दिया। ऐसे जो भी बदलाव आये, उनमें से कौन से प्रागातिशील थे, कौन से निकृष्ट उसके हिसाब से हमें काट छांट भी करनी होगी। सतत परिवर्तनशील हिन्दू संस्कृति का जो मुख्य लक्षण है, समय के हिसाब से बदलते जाना, वो जबरन सरकार बहादुर द्वारा थोप दिए गए कानूनों के ज़रिये तो हो नहीं सकता। न ही हम आज मुस्लिम या इसाई शासकों के अधीन हैं, जो बिलकुल शेख हमदानी की “जखिरातुल-मुलुक” के कानून में टूटे देवालय के जीर्णोद्धार न करने या नया न बनाने जैसे ही क़ानून “उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991” को बिना प्रश्न किये मान लें।

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