आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की लिखी “बाणभट्ट की आत्मकथा” (https://amzn.to/2VNVrQi) संस्कृतनिष्ठ हिंदी में लिखी गई किताब है। इसका प्रकाशन करीब सत्तर साल पुराना है, लेकिन आज भी हिंदी साहित्य और भाषा के प्रेमी इसे पढ़ते हैं। कुछ ऐतिहासिक पात्रों के साथ कल्पना मिलकर इसे एक मिथक की तरह गढ़ा गया है। इसके मुख्य चरित्र बाणभट्ट का आधार वही पुराने हर्षवर्धन के दरबार के कवी हैं। वो राजा के विश्वस्त हैं और कई ऐसे अभियानों से जुड़े हैं जिनमें उनकी भेंट अविश्वसनीय से किरदारों से होती रहती है।
इस उपन्यास का मुख्य विषय प्रेम है, अपने भिन्न-भिन्न रूपों में वो थोड़ी थोड़ी देर में प्रकट होता रहता है। समाज की संरचना हर्षवर्धन के काल वाली ही रखी गई है तो लोग विष्णु के वराह अवतार की उपासना करते हैं। कथा में आचार्य हजारीप्रसाद का भारतीय शास्त्रों का अध्ययन ही नहीं झलकता बल्कि ये भी पता चलता है कि एक लेखक की दृष्टि कैसी कालजयी हो सकती है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि एक समाज के रूप में जो सोच पत्रों के प्रति लोगों की होगी, उसका अंदाजा होते ही लगता है कि अगर आज कुछ लोगों के काम ऐसा हो, तो लोग उनके बारे में अलग कहाँ सोचते हैं?
उपन्यास में एक प्रसंग है जहाँ बाणभट्ट की भेंट एक अघोरी से होती है। अघोरी चमत्कारी सिद्धियों का स्वामी है, लेकिन अहंकार उसे नहीं छूता। बाणभट्ट भी उस से कुछ सीखने का, ज्ञान प्राप्ति जैसा कुछ सोच रहे होते हैं। उनके असमंजस को सुलझाने के लिए अघोरी, बाणभट्ट को आँखें बंद कर के सोचने कहता है। अघोरी का प्रश्न था कि अगर भट्टिनी और बाणभट्ट किसी नदी को पार करने का प्रयास कर रहे हों और अचानक नाव डूबने लगे तो क्या होगा ? आँखे बंद किये बैठे बाणभट्ट को अचानक वो दृश्य जो एक साधारण प्रश्न था, वो जीवंत प्रतीत होने लगता है। वो सचमुच खुद को नदी में पाते हैं, और लगता है नाव सचमुच डूब रही है।
अब बाणभट्ट के पास मूर्ती और भट्टिनी में से किसी एक को बचाना होता है। बाणभट्ट पत्थर के भारी महावराह के विग्रह और भट्टनी दोनों को एक साथ डूबने से नहीं बचा पाता। दोनों में से एक को छोड़ना ही था, किसे छोड़ेगा बाणभट्ट ? घबरा कर आँखे खोलते बाणभट्ट कहते हैं वो महावराह को बचायेंगे। राजाज्ञा के पालन के उनके प्रयास पर अघोरी ठठाकर हंस पड़ा। बोला, मूर्ख किसे बनाता है? महावराह को बचाएगा तू? शर्मिंदा बाणभट्ट समझ गए कि अघोरी उनका उत्तर पहले ही जानता है। वो लज्जित से कुछ कहते, उसके बदले अघोरी ही उन्हें बताता है, त्रिभुवनमोहिनी के जिस रूप ने तुझे मोहा हो तू उसी की उपासना कर। यहाँ-वहां कहाँ भागा फिर रहा है?
‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ एक ऐसा उपन्यास है जो मध्यकालीन भारत के इतिहास पर रचा गया गल्प है। ये किताब शायद पाठ्यक्रमों का हिस्सा भी है और कुछ लोग इसे नेट (जेआरई) जैसी परीक्षाओं के लिए भी पढ़ते हैं, इसलिए भी ये महत्वपूर्ण है। इसमें बाणभट्ट, हर्ष और कृष्णवर्धन जैसे ऐतिहासिक पात्र लिए गए हैं तो विरतिवज्र, चंडमंडना महामाया और अघोरभैरव जैसे काल्पनिक पात्र भी हैं। सन 1946 में जब ये पुस्तक पहली बार छपी तो भारत आजाद नहीं हुआ था। ये हिन्दी लेखन का वो दौर था जब हिंदी में बिम्बों का प्रयोग शुरू ही हुआ था। बरसते बदल तब आंसुओं के, बिजली-झंझावत मानसिक उद्वेलन के, और वसंत सौन्दर्य का प्रतीक हो जाता था। ऐसे में भट्टिनी सिर्फ भट्टिनी थी, या परतंत्र भारत का प्रतीक, और बाणभट्ट केवल कवी था, या उस युवा वर्ग का प्रतिनिधि जो स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहूति देने को भी तत्पर था, ये कह पाना कठिन हो जाता है।
यही वजह है कि जब इस उपन्यास में प्रेम की चर्चा होती है तो कई बार ऐसा लगता है कि नायिका – भट्टिनी है कौन? बाणभट्ट जिसकी आजादी के लिए मृत्यु तक का सामना करने को तैयार हो जाता है, वो नायिका है या आजादी की दुल्हन की बात हो रही है? जो प्रसंग भट्टिनी और महावारह की मूर्ती में से किसी एक की रक्षा का आता है उसमें बाणभट्ट सोचता है कि ईश्वर अपनी रक्षा में स्वयं समर्थ हैं, वो महावारह की मूर्ती (यानि धर्म) को छोड़कर, भट्टिनी को (स्वतंत्रता का प्रतीक) बचा लेता है। ऐसे ही उसके सामने जो उपलब्ध है, वो निउनिया होती है। लेकिन न तो वो उसकी ओर बढ़ता है, न ही निउनिया उसे अपने पाश में बांधकर, केवल अपने लिए रखने को उत्सुक है। निउनिया भी उसे अपने प्रेम के बदले राष्ट्रहित का मार्ग ही दिखाती है।
इसका नायक बाणभट्ट कथानक की शुरुआत में कोई बड़ा आदमी नहीं होता, वो आज के साहित्यकारों जैसा ही होता है। एक से अधिक स्त्रियों में उसकी रूचि स्पष्ट तो नहीं है, लेकिन झलकती जरूर है। नायिकाओं में से एक निपुणिका एक गरीब और वंचित-शोषित की सी स्थिति में है। इसे दर्शाने के लिए लेखक बताते हैं कि वो विवाह के थोड़े समय बाद ही विधवा हो गयी थी। वो बाणभट्ट की नाटक मण्डली में है और कैद में पड़ी भट्टिनी को छुड़ाने के लिए बाणभट्ट को प्रेरित करती है। उसे पता होता है कि वो बाणभट्ट से ये काम करवा सकती है। बिना उसकी प्रेरणा के शायद बाणभट्ट ऐसे काम में कोई रूचि नहीं लेता। यहाँ लेखक कवी के जीवन में प्रेरणा का महत्व बता रहे हैं, या राष्ट्रहित के लिए अपने प्रियजनों को भी प्रेरित करने कह रहे हैं, ये सोचना पड़ता है। “भगत सिंह देश में होने चाहिए, मगर मेरे घर नहीं पड़ोसी के घर पैदा हों”, वाली सोच क्या उस काल में नहीं रही होगी?
इस पुस्तक की घटनाएँ स्थानेस्वर से लेकर वाराणसी के आस-पास तक के इलाके में घटित होती हैं। घटनाएँ कहाँ घटी, इसके हिसाब से कुछ आलोचक इस पुस्तक को पांच भागों में बांटते हैं। अगर बहिरंग परिक्षण (जो संस्कृत साहित्य को परखने की विधियों में से एक है) की दृष्टि से देखें तो एक महाकाव्य में नगर, ग्राम और वनों की भी चर्चा आनी चाहिए। क्या आचार्य किसी महाकाव्य जैसे उपन्यास की रचना का प्रयास कर रहे थे, आप इस विषय में भी सोच सकते हैं। अगर परीक्षा में उपयोग की दृष्टि से न पढ़ रहे हों, तो भी लोग इस पुस्तक को लोकरुचि के कारण पढ़ते हैं। प्रेम के नए आयामों के अलावा इसमें हर्षवर्धन के काल, यानी उत्तर-बौधिक काल की करीब-करीब हर भारतीय उपासना पद्दति का जिक्र है। अघोरभैरव, महामाया जैसे किरदार इसे दर्शाते हैं।
भाषा और शैली की दृष्टि से सोचेंगे तो ये कोई हिन्दी अख़बार के पहले पन्ने पर आने वाली तो छोड़िये, ये सम्पादकीय वाले पन्ने से भी ऊँचे स्तर की भाषा है। इसलिए सिर्फ रोचक उपन्यास के लिए ही नहीं, हिंदी साहित्य की समझ बढ़ाने के लिए भी इसे पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा अगर आप साहित्य की रचना में रूचि रखते हैं तो भावों और भाषा का स्तर क्या हो सकता है, उसे समझने के लिए भी इसे पढ़िए। अगर किसी अलग काल (जैसे इसे हर्षवर्धन काल के आधार पर रचा गया) के आधार पर, उस समय की घटनाओं पर लिखना हो, तो शोध का स्तर क्या होना चाहिए, उसका अंदाजा भी इसे पढ़ने से मिलता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य समझना हो तो एक पढ़ने लायक किताब ये भी है।
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