वाराणसी के स्थानीय अख़बारों के लिए 20 अप्रैल 2006 (गुरुवार) की सुबह हुई तो उसमें कोई ऐसी विशेष बात नहीं थी। इस दिन एक बड़ी घटना हुई थी। राष्ट्रीय महत्व की नहीं, ये स्थानीय स्तर पर महत्वपूर्ण थी। बीती रात (बुधवार) को स्थानीय कोतवाली के स्टेशन इंचार्ज और एक सब इंस्पेक्टर को सस्पेंड कर दिया गया था। कोतवाली थाना क्षेत्र में आने वाले हरतीर्थ इलाके में एक शिवलिंग की स्थापना से जुड़े मुद्दे पर स्टेशन इंचार्ज अजय प्रकाश श्रीवास्तव और सब इंस्पेक्टर रामवृक्ष को सस्पेंड किया गया था। कहा गया था कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों से सलाह मशवरा किये बिना, अपने स्तर पर ही मामले को निपटा देने की उनकी कोशिशों की वजह से ये कार्रवाई हुई थी। इस इलाके में बीते कुछ दिनों से एक शिवलिंग की स्थापना को लेकर तनाव था। शिवलिंग जहाँ स्थापित किया जाना था, वो कथित रूप से एक मस्जिद की भूमि थी। वहाँ पहले से मौजूद शिवलिंग किसी आंधी में पेड़ गिर जाने की वजह से (सोमवार को) क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसपर हिन्दू समुदाय नया शिवलिंग स्थापित करना चाहता था और मुस्लिम समुदाय पुराने शिवलिंग के टूट जाने पर नया शिवलिंग लगाने नहीं देना चाहता था। बीते एक दो दिनों से ये सदियों पुराना विवाद फिर से उठ खड़ा हुआ था।
मुफ़्ती-ए-बनारस मौलाना अब्दुल बातिन नोमानी और संकट मोचन मंदिर के मुख्य पुजारी प्रोफेसर वीर भद्र मिश्र के नेतृत्व में दोनों समुदायों के प्रमुख लोगों की बैठक हुई और फिर तय हुआ कि कोई नयी परंपरा शुरू नहीं की जाएगी। पुराने समय से हिन्दू टूटे शिवलिंग की कृतिवासेश्वर महादेव के रूप में पूजा उपासना करते रहे हैं। कृतिवासेश्वर महादेव मंदिर के महंत सुधीर गौड़ की मानें तो मुगल बादशाह औरंगजेब ने काशी में सबसे पहले कृत्तिवासेश्वर मंदिर पर हमला किया था। इसके बाद औरंगजेब ने श्री काशी विश्वनाथ, बिंदु माधव और काल भैरव मंदिरों पर अनेक हमले किये लेकिन पूरी तरह जीत नहीं पाया। इन हमलों के क्रम में औरंगजेब ने मंदिरों का बुरी तरह विध्वंस अवश्य कर दिया। कृत्तिवासेश्वर मंदिर पर अंग्रेजों ने भी हमला किया था ऐसा माना जाता है। राजा पटनीमल ने 1656 में इस मंदिर का पुनः निर्माण करवाया। इसके सम्बन्ध में माना जाता है कि राजा पटनीमल की माता को स्वप्न में ये आदेश मिला था। जब राजा पटनीमल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया तो नर्मदा से स्वप्न के अनुरूप शिवलिंग मंगवाया गया। पुराना खंडित शिवलिंग पास के ही मंदिर परिसर में पड़ा रहा। अब वहाँ सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस तैनात रहती है।
पौराणिक कथाओं की दृष्टि से देखना हो तो शिव तांडव स्त्रोत के दसवें श्लोक का “गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे” वाला हिस्सा याद कर लीजिये। शिव पुराण के अनुसार महिषासुर के पुत्र गजासुर को जब मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखा तो उसने अपने सिखाने वालों से सलाह मशविरा किया। उसे पता चला कि भगवान उसका वध कर दें तो मुक्ति मिल सकती है, या फिर भक्ति-तपस्या का कठिन मार्ग है ही। इतना मालूम होते ही गजासुर काशी आया और ऋषियों-साधुओं की हत्या करने लगा। आखिर भक्तों की पुकार पर शिव प्रकट हुए और उन्होंने गजासुर का वध किया। अंत समय में गजासुर ने अपनी मंशा बताई थी, इसलिए भगवान शिव ने उसे वरदान दिया और गज चर्म को अपना वस्त्र बनाया। इसी कारण ये शिवलिंग (आकार-प्रकार में) गज के समान है (था)। नर्मदा से राजा पटनीमल के आदेश पर जो शिवलिंग 1656 में लाया गया था, वो भी आकार में विशाल है, और जो पुराना भग्न शिवलिंग औरंगजेब के आक्रमणों में टूटा, मस्जिद परिसर में पड़ा है, वो भी।
वाराणसी क्षेत्र के शिवलिंगों की अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार अलग-अलग शिवलिंगों को काशी विश्वनाथ के अलग अलग अंगों का स्वरुप माना जाता है। इस मान्यता के अनुसार कृतिवासेश्वर शिवलिंग, काशी विश्वनाथ का मस्तक (सिर) है। इस कारण ऐसा माना जाता है कि इसमें चौबीसों घंटे भगवान शिव का वास होता है और इसके दर्शन मात्र से जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिलती है। यहाँ उत्तरी भारत के बदले दक्षिणी भारत के भक्तों की संख्या अधिक होती है।
यहाँ के भग्न शिवलिंग का मस्जिद के अन्दर होना फिर से हमें इस प्रश्न पर ले आता है कि अपराधी और आक्रान्ता में अंतर क्या होता है? अपराधी अपने कुकृत्य को छुपाने का प्रयास करता है। उसे दंड का भय होता है, अपराध सिद्ध होने पर प्रतिष्ठा जाने का खतरा होता है। आक्रान्ता अपनी विजय को प्रदर्शित करना चाहता है। वो विजय स्तम्भ बनवाता है, जोर शोर से अपनी जीत और किसी की हार की घोषणा करता फिरता है, छुपाता नहीं है। यही वजह थी कि चित्तौड़ में अकबर कटे सरों की मीनार बना देता है, या आज भी फिरोजशाह कोटला (नयी दिल्ली) में ऐसी मीनार दिख जाती है जो कटे सरों के प्रदर्शन के लिए बनायीं गयी थी। आपकी समस्या ये है कि आप अपनी नैतिकता के पैमाने पर, अपने युद्ध के नियमों के स्तर पर शत्रु को तौलने चले हैं। आप आईएसआईएस और तालिबान हुकूमत की करतूत देखने के बाद भी अपनी (मैकले मॉडल की) शिक्षा और संस्कारों की वजह से मान नहीं पा रहे कि सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में इस आक्रान्ता का व्यवहार कैसा रहा होगा। आप उसे आक्रान्ता भी नहीं केवल एक अपराधी समझे, हाथ पर हाथ धरे बैठ हैं।
सोच में परिवर्तन की जरुरत है, शब्द सिखाने होंगे, आक्रान्ता और अपराधी का व्यवहार अलग होगा ये भी याद दिलाना होगा। अपराधी और आक्रान्ता का अंतर समझाने के लिए मंदिर से बेहतर उदाहरण क्या होता? आक्रान्ता ने कभी इन्हें तोड़ा था, और अपराधी आज मूर्तियाँ चुराकर विदेशों में बेच आते हैं। यही कारण है कि हमें फिर से अपने मंदिरों कि बात करनी होगी। मंदिरों की बात करनी ही होगी!
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