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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार भाग V

सदवृत्त एक उदाहरण के द्वारा समझते हैं :

हमारे यहाँ सूर्योदय पर संध्या कर सूर्य को अर्ध्य या जल देने की परंपरा के समय कुछ मंत्रों का उच्चारण करना होता है तथा जल की धार में से सूर्य के दर्शन करने होते हैं (इसे सूर्य त्राटक कहते हैं)। इस समय सूर्याष्टकम् का पाठ संध्या का भाग होता है। नित्य सूर्य त्राटक करने वालों की दृष्टि कमजोर नहीं होती तथा वृद्धावस्था में मोतियाबिंद नहीं होता। सूर्योदय के पश्चात की एक घड़ी अर्थात पैंतालीस मिनट तक सूर्य स्नान का उपयुक्त समय है क्योंकि इस समय सूर्य से हरिष्ठा किरणें (यू वी रेज़ 5)मिलती हैं तथा उनके सेवन से विटामिन डी तथा केलशियम दोनों प्राप्त होते हैं तथा शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ती है। सूर्याष्टकम् का विधिवत पाठ करने के लिये पाँच से पंद्रह मिनट लगते हैं। अब यदि प्रतिदिन बिना कुछ अन्य गतिविधि के मात्र सूर्य त्राटक करना हो या मात्र सूर्य स्नान करना हो तो अधिक दिन तक यह चर्या नहीं चल पाएगी। किन्तु इसके साथ संध्या-उपासना को जोड़ देने से तथा उसकी अवधि सूर्य त्राटक व सूर्य स्नान के लिये पर्याप्त होने के कारण यह अपने आप नित्य कार्य बन गया जिसका परिणाम उस संध्या-उपासना करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य है।  सूर्याष्टकम् द्वारा सूर्य की स्तुति करने से हमारी एकाग्रता सूर्य की ओर होती है, हमारे शरीर में उपस्थित ऊर्जा व शक्ति-प्रवाह की आवृत्ति 6 सूर्य की ऊर्जा के सम हो जाती है तथा उस ऊर्जा को हमारा शरीर निर्बाध यानि बिना किसी रुकावट के ग्रहण करता है। साथ-साथ सूर्य की ऊर्जा से शरीर की शिराओं तथा रक्त में सात्विक गुण की वृद्धि होती है। अब संध्या वंदन बिना स्नान के तो होगा नहीं इसलिए व्यक्ति ब्राहमुहूर्त में ही उठेगा तथा समय से ही स्नान भी करेगा। प्रातःकाल उठने से मल-क्रिया 7 भी सम रहती है यानि प्राकृतिक रूप से मल-निर्गमन का कार्य ठीक प्रकार होता है, फलस्वरूप कब्ज़ तथा अर्श 8 नहीं होगा।

परंतु ऐसे नित्य चर्या अब कम ही लोग करते हैं। जो करते हैं, उन्हें खोजेंगे तो इनमें से कोई रोग नहीं पाएंगे तथा जो नहीं करते (अधिकतर नगरों तथा शहरों के लोग) तो ऊपर बताई स्वास्थ्य समस्याएं उनमें अब सामान्य रूप से देखने को मिलती हैं। इस एक नित्यकर्म से शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक तीनों स्वास्थ्य की रक्षा होती है व पोषण भी होता है। ये समझते समय ये भी ध्यान रहे कि भारत का ऊर्जा विज्ञान जिस स्तर पर विकसित हो चुका है वहाँ तक आधुनिक भौतिक विज्ञान अभी पहुँचने का प्रयास कर रहा है।

इस तरह हमारे सभी पारंपरिक नित्यकर्म बैंक के आवर्ती खाता 11 की भांति हैं। हम नियमित रूप से थोड़ी-थोड़ी राशि डालते जाते हैं, जो कालांतर में बड़े फल के रूप में हमें प्राप्त होता है।

सदवृत्त मनुष्य का आचार-रसायन है यानि ऐसी औषधि है जो बताती है उसे किस तरह का आचरण करना चाहिए जिससे उसका मानसिक, वाचिक, वैचारिक स्वास्थ्य तो बना रहे तथा उसके साथ व्यक्ति सामाजिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में अपना अंश-दायित्व भी निभा दे। सदवृत्त में रहने से सामाजिक स्वास्थ्य बना रहता है।

आचार-रसायन के अंतर्गत मनुष्य के कर्तव्य, लोकप्रिय होने का निर्देश, इंद्रियों का निग्रह (उन पर नियंत्रण), कार्यों के आरंभ का विधान, त्याज्य कर्म, लोकाचार का पालन, सदवृत्त पालन का परिणाम – ये सभी आते हैं। आहार तथा विहार दोनों ही आचार हैं। क्रिया प्रधान आचार को विहार कहते हैं तथा क्रिया-द्रव्य प्रधान वस्तु को आहार कहते हैं।  आचार रसायन के पालन  से सदाचारी को रसायन फल मिलता है। चरक ने चिकित्सास्थानम् अध्याय में आचार रसायन निम्नलिखित छह सूत्रों में बताया है :

सत्यवादिनमक्रोधं निवृत्तं मद्यमैथुनात् । अहिंसकमनायासं प्रशान्तं प्रियवादिनम्।।३०।।

जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम् । देवगोब्राह्मणाचार्यगुरुवृद्धार्चने रतम्।।३१।।

आनृशंस्यपरं नित्यं नित्यं करुणवेदिनम् । समजागरणस्वप्नं नित्यं क्षीरघृताशिनम्।।३२।।

देशकालप्रमाणज्ञं युक्तिज्ञमनहङ्कृतम् शस्ताचारमसङ्कीर्णमध्यात्मप्रवणेन्द्रियम्।।३३।।

उपासितारं वृद्धानामास्तिकानां जितात्मनाम् । धर्मशास्त्रपरं विद्यान्नरं नित्यरसायनम्।।३४।।

गुणैरेतैः समुदितैः प्रयुङ्क्ते यो रसायनम् । रसायनगुणान् सर्वान् यथोक्तान् स समश्नुते।।३५।।

(इत्याचाररसायनम्)

सत्य बोलना, क्रोध न करना, मद्य तथा मैथुन से दूर रहना, हिंसा न करना, श्रम से अधिक परिश्रम न करना, प्रियवादी, जप तथा पवित्रता का पालन करना, धैर्यशील दानी तथा तपस्वी होना, गो वृद्ध आचार्य जनों का आदर करना, प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव रखना, करूणा रखना, पूर्ण निद्रा लेना, घी दूध का सेवन करना, सदाचार का पालन करना, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना तथा धर्म शास्त्रादि के अनुरूप आचरण करना।

सदवृत्त आचार रसायन पालन न  करने से क्या हानि है ये श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट रूप से बताते हैं :

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्भवति सम्मोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है तथा कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यंत पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मरण-शक्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।

काम, क्रोध, लोभ, मोहादि मानसिक भाव हैं। इनका शमन/निग्रह करने के लिये सत्या बुद्धि होनी चाहिए तथा सत्या बुद्धि सदवृत्त पालन करने से विकसित होती है।  क्रोध का विपरीत भाव क्षमा है तथा राग-द्वेष का विपरीत समता है। यह क्षमा तथा समता दस पालनीय धर्मों में से दो हैं। तो स्वस्थ वृत्त तथा सदवृत्त की स्थापना के लिये इन धर्मों का पालन आवश्यक है।

इस प्रकार क्या करने तथा क्या ना करने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है, इसकी विस्तृत समझ ही स्वस्थवृत्त की व्यापक व्याख्या है। मूलतः जिससे आरोग्य संभला रहे तथा नया कोई रोग पैदा न हो ऐसा वर्तन हमेशा रखे। ऐसा आहार-विहार-आचार निश्चित करे जिससे रोग न हों।  ये पहला तथा मुख्य भाग है।

निष्कर्ष: परंपरागत भारतीय बने रहना स्वस्थ रहने का सर्वोत्तम उपाय है। 

सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं.

Feature Image Credit: istockphoto.com

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