आयुर्वेद द्वारा बताये गए आहार के मूलभूत सिद्धांतों को पथ्यापथ्य, समता-विषमता, आहार तत्व व आहार विधि-विधान के माध्यम से जाना जा सकता है।
पथ्यापथ्य
पथ्यापथ्य का अर्थ है परहेज तथा विधिनिषेध। क्या करना है और क्या नहीं करना है ऐसी सूचनाओं को पथ्य अपथ्य कहा जाता है। इनका पालन मात्र रोग होने पर ही करना है ऐसा नहीं है। स्वस्थ लोगों के लिये आचरण योग्य नियम पथ्य तथा आचरण योग्य न हों ऐसे नियम अपथ्य कहलाते हैं। ऋतु, प्रकृति, देश, काल, पथ, रोग का प्रकार, मनोबल, परिस्थिति इत्यादि का विचार करके पथ्यापथ्य का निर्धारण किया जाता है। पथ्य त्रिगुण में समता लाता है तथा अपथ्य उसमें विषमता उत्पन्न करता है। उसी प्रकार पथ्य, विशेषकर आहार का पथ्य शरीर के त्रिदोषों में समता लाता है तथा अपथ्य आहार उनमें विषमता उत्पन्न करता है जिसकी परिणामस्वरूप रोग होते है।
समता तथा विषमता
आहार के लिये यह समझना आवश्यक है कि किस अवस्था में रोग होते हैं या दोषों में विषमता होती है।
रोगस्तु दोषवैषम्य दोषसाम्यमरोगता
त्रिदोष अर्थात वात-पित्त-कफ, रोग तथा आरोग्य का लक्षण है। इन दोषों की विषमता का नाम रोग है तथा दोषों की समता का नाम आरोग्य है। तत्वों की प्राकृतिक वास्तविक अवस्था को समता कहते हैं तथा विषमता का अर्थ है वास्तविक रूप का नष्ट होना। रोग शरीर तथा मन में होते हैं तथा मन को दूषित करती है रज तथा तम की विषमता। हमारा आहार शरीर में त्रिगुण – सत्व, रज तथा तम – को अत्यधिक तथा निरंतर प्रभावित करता है। उसी प्रकार शरीर में त्रिदोषों – वात, पित्त तथा कफ – को भी आहार सर्वाधिक प्रभावित करता है।
आहार के संदर्भ में ये समझना आवश्यक है कि कौन से अथवा किस प्रकार के आहार सत, रज तथा तम को बढ़ाते हैं। उसी प्रकार किस प्रकार के तथा कौन से आहार वात-पित्त-कफ को प्रभावित करते हैं। पथ्यापथ्य का प्रावधान भी इसी लिये है कि देश, काल, ऋतु तथा अपनी प्रकृति के अनुरूप सम्यक आहार विहार करके व्यक्ति शरीर में स्थित वात-पित्त-कफ ये तीनों दोष सम यानि प्राकृतिक अवस्था में रख सकता है ; जठराग्नि भी सम रख सकता है (अर्थात वह कम या ज्यादा नहीं होती), धातुओं (रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र ) तथा मल (पसीना, मूत्र व विष्ठा) की क्रिया सम यानि अविकृत रख सकता है तथा ऐसे आत्मा-इंद्रिय-मन सदैव प्रसन्न रहते हैं। जब शरीर की सभी क्रियाएं प्राकृतिक रूप से पूरी होती हैं, शरीर में किसी प्रकार की विषमता नहीं रहती तो वह विकारग्रस्त नहीं हो सकता तथा सदैव स्वस्थ रहता है।
आहार-विहार-विचार का अपथ्य करने से शरीर में (गुणों में, दोषों में तथा धातुओं में) विषमता उत्पन्न होती है, जिससे स्वास्थ्य बिगड़ता है तथा रोग होते हैं। सभी प्रकार के विरुद्धाहार तथा व्यसन अपथ्य की श्रेणी में अथवा निषेध की श्रेणी में आते हैं। इस संदर्भ में कुछ चेतावनी इस प्रकार हैं:
- कब्ज़ का उपाय नहीं करने से पूरा शरीर रोगी हो जाता है।
- अजीर्ण को नहीं मिटाने से हैजा, ज्वरताप या अल्सर हो जाता है।
- आये हुए नए ज्वर या ताप को लंघन (अर्थात भोजन न करना या बहुत कम भोजन करना) से नहीं उतारें तो टाइफाइड का ठंडी के ज्वर में रूपांतर होता है।
- दस्त होने पर ध्यान नहीं दिया तो उसमें से संग्रहणी(अल्सरेटिव कोलाइटिस )शुरू होगी।
- विषम ज्वर को दबाएंगे तो लिवर तथा स्प्लीन की वृद्धि होगी, जलोदर या पीलिया होगा।
(ज्वर अपने आप में कोई रोग नहीं है अपितु किसी रोग या विषमता का लक्षण है। इसलिये ज्वर होने पर एक अलोपथी की गोली खा लेने से हम मात्र लक्षण को, ज्वर को दबाते हैं, विषमता का समाधान नहीं करते। इसी विषम ज्वर को दबाने का परिणाम यहाँ बताया जा रहा है।)
- कृमि (कीड़ों) का उपचार नहीं करेंगे तो त्वचा के रोग होंगे।
- जुकाम/ श्लेष्म की चिकित्सा नहीं करेंगे तो खाँसी या दमा होकर क्षय रोग तक ले जाएगा।
- ज्वर/बुखार में दूध पीने से पीलिया हो जाता है, यह आमाशय को हानि पहुँचाता है।
- मेद/चर्बी को कम नहीं करेंगे तो प्रमेह-मधुमेह, हृदयरोग हो जाएगा।
- पेट की वायु को दूर नहीं करेंगे तो हृदयरोग हो जाएगा।
- भूख लगी हो तब अधिक जल पी लेने से मंदाग्नि जुकाम या जलोदर हो जाएगा।
- अधिक चाय तथा तंबाकू (बीड़ी, सिगरेट) भूख को मारते हैं अर्थात जठराग्नि का नाश करते हैं, फेफड़ों को दुर्बल करते हैं, दांत को हानि करते हैं तथा नींद को कम करते हैं।
- अधिक उड़द शुक्रस्त्राव करने वाले हैं। बुद्धि को मंद करते हैं।
- अधिक पान विषयेच्छा बढ़ाते हैं। आँख तथा दाँत को हानि पहुँचाते हैं।
- अधिक भैंस का दूध मंदाग्नि करने वाला है, नींद को बढ़ाने वाला है तथा शरीर में जड़ता लाने वाला है। ये सभी तमोगुण के लक्षण हैं।
- अधिक वनस्पति घी हृदय के पाचन के श्वासनतंत्र तथा रुधिराभिसरण तंत्र (circulatory system) के रोग करता है।
- अधिक सुपारी गले तथा फेफड़े के रोग करती है। रक्त का जल करती है। ओज का नाश करती है।
इसी प्रकार आचार का अपथ्य भी सूत्रबद्ध है :
कुसंगति सद्याऽलस्यमास्येन श्वसनं तथा। जिह्वालौल्याधिक्यं स्वास्थ्य सौरभनाशकम्।।
बुरे लोगों की संगति, सद्य आलसी बनकर पड़ा रहना, मुँह से साँस लेना तथा जीभ की अतिशय लोलुपता, ये सभी कारण तन-मन की स्वास्थ्य सौरभ का विनाश करते हैं।
सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं.
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