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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार भाग IX

दिनचर्या, रात्रिचर्या व ऋतुचर्या के अतिरिक्त चर्या के क्या नियम हैं?

दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या के अतिरिक्त कुछ तथा क्रियाएं हमारे आचरण का भाग हैं जिनका हमारी नित्य चर्या में ही पालन होता है। ये क्रियाएं या नियम हमारे व्यवहार तथा आचार के नियम कहे जा सकते हैं तथा इन्हें हम धर्म के नाम से भी जानते हैं।

सत्पुरुषों के आचरण भावप्रकाश के दिनचर्यादि प्रकरण में उल्लेखित है कि-

  1. किस से मित्रता करनी चाहिए किससे नहीं,
  2. कैसे व्यक्तियों का संग करना चाहिए,
  3. किसकी सेवा करनी चाहिए,
  4. किस प्रकार बैठना चाहिए,
  5. किस प्रकार कार्य करना चाहिए,
  6. किस प्रकार बोलना चाहिए,
  7. क्या बोलना चाहिए, आदि।

इन सभी आचरणों से व्यक्ति में उन लक्षणों की वृद्धि होती है जिन्हे धर्म के दस लक्षण कहा गया है। इन लक्षणों में वृद्धि से सत्व गुण में वृद्धि होती है। किस प्रकार व्यक्ति के अंतर में स्थित सूक्ष्म तत्व यानि तीनों गुणों में वृद्धि हो इसका भी विधान है, बताए गए आचरणों से अपेक्षित गुणों में वृद्धि कर सकते हैं तथा किस प्रकार के आचार से रजोगुण व तमोगुण बढ़ाने हैं उसका भी वर्णन है।

धृति क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥

  1. धृति – कठिनाइयों से ना घबराना।
  2. क्षमा – शक्ति होते हुए भी दूसरों को माफ करना।
  3. दम – मन को वश में करना।
  4. अस्तेय – चोरी न करना। मन, वचन तथा कर्म से किसी भी पर-पदार्थ या धन का लालच न करना।
  5. शौच – शरीर, मन एवं बुद्धि को पवित्र रखना।
  6. इंद्रिय-निग्रह – इंद्रियों अर्थात आँख, वाणी, कान, नाक तथा त्वचा को अपने वश में रखना तथा वासनाओं से बचना।
  7. धी – बुद्धिमान बनना अर्थात प्रत्येक कर्म को सोच-विचारकर करना तथा अच्छी बुद्धि धारण करना।
  8. विद्या – सत्य वेद ज्ञान ग्रहण करना।
  9. सत्य – सच बोलना, सत्य का आचरण करना।
  10. अक्रोध – क्रोध ना करना। क्रोध को वश में करना।

इसी प्रकार पतंजलि अष्टांग योग के पहले दो अंग – यम तथा नियम- ऐसे ही दस लक्षणों की बात करते हैं जो सदवृत्त के घटक हैं।

यम के अंतर्गत पाँच सामाजिक नैतिक नियम हैं:-

  1. अहिंसा – वाणी से, विचारों से तथा कर्मों से किसी भी जीव जगत को हानि नहीं पहुँचाना।
  2. सत्य – मन, वचन तथा कर्म से सत्यता का पालन करना।
  3. अस्तेय – चौर्य प्रवृत्ति से निवृत्ति।
  4. ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:                                                                                                            चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना अर्थात ब्रह्म की चर्या में रहना।                                    सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना या पूर्णतः सहज, मुक्त रहना।
  5. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक का संचय नहीं करना तथा दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करना।

नियम के अंतर्गत पाँच व्यक्तिगत नैतिक नियम हैं :

  1. शौच– शरीर तथा मन की शुचिता
  2. संतोष– जो कुछ जीवन में प्राप्त हैं उसमें संतुष्ट रहना तथा जो प्राप्त करने योग्य है उसके लिए पुरुषार्थ करना न कि उसके लिए दुःख मनाना
  3. तप– द्वन्दों को सहन करना, स्व अनुशासन में रहना, सर्दी, गर्मी, लाभ-हानि , जय-पराजय आदि में सम रहना
  4. स्वाध्याय– सत्साहित्य, मोक्ष शास्त्रों एवं आप्त पुरुषों तथा गुरुओं द्वारा रचित ग्रंथों को पढ़ना तथा आत्मचिंतन, आत्म निरीक्षण करना
  5. ईश्वर-प्रणिधान– मन, वचन से समस्त शुभ तथा अशुभ कर्मों को ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित करना , पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण विश्वास तथा निष्ठा के साथ ईश्वर को ही अपना सर्वस्व मानना, फलाकांक्षा से मुक्त रहकर अपने स्वधर्म, वर्णाश्रम विहित कर्मो में निरत रहना।

धर्म के दस लक्षण व पतंजलि अष्टांग-योग के यम-नियम एक ही आचार संहिता की बात करते हैं जो वास्तव में सदवृत्त है। इसी प्रकार महर्षि पतंजलि ने पाँच क्लेश भी बताए हैं :

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥

  1. अविद्या,
  2. अस्मिता (अहंकार),
  3. राग,
  4. द्वेष तथा
  5. अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता)

राग तथा द्वेष रक्त को गरम करते हैं, जो स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालता है। हिंसा, असत्य बोलना, चोरी करना, आलस्य, अहंकारमय आचरण, असंतोष आदि हृदय की गति पे प्रभाव डालते हैं तथा उससे श्वास अव्यवस्थित होती है। ये पुनः स्वास्थ्य पर होने वाला सीधा असर है।

काले हितं मितं सत्यं संवादि मधुरं वदेत्। भुंजीत मधुरप्रायं स्निग्धं काले हितं मितम्।।

 जब बोलने का समय उपस्थित हो तब हितकर, सत्य, प्रसंग के अनुकूल व मधुर वचन थोड़े शब्दों में बोलना चाहिए। जब भोजन का समय उपस्थित हो तब मधुर रस युक्त, स्निग्ध व हितकर थोड़ी मात्रा में भोजन करना चाहिए।

इस एक सूत्र में यहाँ सदवृत्त के घटक- आचार तथा स्वस्थवृत्त के घटक- आहार का एक साथ निरूपण तथा वर्णन है। इस सूत्र में बताया गया है कि कैसे एक क्रमिक प्रक्रिया के द्वारा सत्वगुण में वृद्धि कर सकते हैं तथा कैसे आहार से दोषों की सम स्थिति प्राप्त होती है। मधुर रस कौन सा है तथा किसमें पाया जाता है अथवा कहाँ नहीं पाया जाता है, इसका उल्लेख दिनचर्या प्रकरण के भोजन वाले भाग में मिलता है। इसी प्रकार स्निग्ध भोजन के द्रव्य कौन से हैं इसका भी वर्णन है। भोजन की मात्रा चरक के मात्राशीतीय अध्याय में व्यापक रूप से अंकित हैं।

सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं.

Feature Image Credit: youtube.com

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