सद्-वृत्त यानि सत्य का वृत्त
स्वस्थवृत्त का सामाजिक पक्ष
उन वृत्तियों का समूह जिसमें आचरण यानि व्यक्ति का वर्तन, व्यवहार तथा विहार ऐसा कार्य करता है जैसे किसी रसायन के गुण कार्य करते हैं अर्थात जो आचार रसायन है – उसे सद्-वृत्त कहा जाता है। सद्-वृत्त स्वस्थवृत्त का सहायक व प्रेरक है। इसे सज्जनों का धर्म कहते हैं। सद्-वृत्त आयुर्वेद का उत्कृष्ट विचार है। किन्तु यह एक ऐसी दूरदर्शी परिकल्पना है जो सरलता से समझ नहीं आती या नहीं दिखती।
स्वस्थवृत्त के अंतर्गत स्थूल रूप से पालन किये जाने वाले नियम हैं परंतु सदवृत्त के अंतर्गत पालन किये जाने वाले धर्म हैं, आचरण हैं। ये प्रत्यक्ष रूप से मात्र ‘गुड टू हैव 4’ कर्तव्य लगते हैं, परंतु इनका लक्ष्य परोक्ष है। व्यक्तिगत स्तर पर यह ‘‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:” अर्थात मानसिक तथा वैचारिक स्वास्थ्य के पोषक हैं तथा सामाजिक स्तर पर ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जो स्वस्थ है तथा स्वास्थ्यवर्धक है।
सतां सज्जनानां वृत्त व्यवहारजातं सदवृत्तम्। (च.सू. 8।17) –
सदा सज्जनों के आचरणों का पालन करना, उनके बीच रहना ही सद्वृत्त है। जैसे
‘न लोको भूपति न संगश्छेदनास्ति…’
किस व्यक्ति से मित्रता करनी चाहिए, किस व्यक्ति से नहीं – यह सभी भी सद्वृत्त में सम्मिलित है। सद्-वृत्त सामाजिक स्वास्थ्य का अर्थ भी बताता है।
आर्द्रसंतानता त्याग: कायवाक्चेतसां दम:। स्वार्थबुद्धि परार्थेषु पर्याप्तं इति सद्वृतम्।। (अ.हृ.सू.2।46)
सभी प्राणियों में दयाभाव, त्याग-दान (अपना अधिकार छोड़कर दूसरे को अधिकार देना), शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक चपलता की शांति (निग्रह), दूसरे के कार्य में स्वार्थबुद्धि (दूसरे के कार्य को अपना ही कार्य समझना), ये चारों सम्पूर्ण सदवृत्त (सज्जनों का धर्म) हैं।
सद्-वृत्त समझ जाने से पाप की सटीक परिभाषा, उसका अर्थ भी समझ आता है। आयुर्वेद, दर्शन व अर्थ-शास्त्र बताता है कि पाप वह कर्म या कार्य होता है जो व्यक्ति के विकास तथा समाज की स्थिरता – इन दोनों को घात करता है।
अष्टांग हृदयम् सूत्र स्थान में ऐसे दस कारण या पाप के लक्षण बताए गए हैं:
हिंसास्तैय अन्यथा कामं पैशुन्यं परूषानृते।।
सम्भिन्नालापं व्यापदभिध्यां दृग्विपर्यम्।
पापं कर्मेति दशधा कायवांमानसैस्त्यजेत्।।
हिंसा (प्राणियों को मारना); स्तेय (चोरी); अन्यथाकाम (अनैतिक मैथुन संबंध); पैशुन्य (चुगली करना); परूष (कठोर वचन); अनृत (झूठ बोलना); संभिन्न प्रलाप (अनावश्यक बोलना, असंबंधित बोलना); व्यापाद (दूसरे को हानि पहुँचाने का विचार); अभिध्या (ईर्ष्या- दूसरे के गुण को न सह सकना, अथवा दूसरे के धन को लेने की इच्छा); दृग विपर्यय (नास्तिकता, आप्त वाक्यों में अश्रद्धा करना); ये दस प्रकार के पापकर्म हैं; इन पापकर्मों को शरीर, वाणी तथा मन तीनों से छोड़ देना चाहिए।
दशविधपापों का प्रावधान उन कर्मों को निषिद्ध करने के लिए किया गया है जिन्हे ना करने से समाज का मानसिक व वैचारिक स्वास्थ्य बना रहे। पुनः ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन’ का विचार करें तो – आत्मा,इन्द्रिय तथा मन की प्रसन्नता जिसमें विद्यमान हो वह स्वस्थ है। मनुष्य की ग्यारह इंद्रियाँ हैं – पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा एक मन। पाप के जो दस लक्षण बताए गए हैं उन्हें ना करना अर्थात उनका आचरण ना करना, इन ग्यारह इंद्रियों की अवस्था को स्वस्थ रखता है। यह सदवृत्त की दूरदृष्टि है, त्रिस्वास्थ्य बनाए रखने की युक्ति व प्रक्रिया है। सद्वृत्त पालन करने से मानसिक रोगों से बचा जाता है।
आज सर्वत्र समाज की स्थिति देखी जाए तो इन दसों पापकर्मों की सर्वव्यापता है। इन्हे व्यक्तिगत स्तर पर निषिद्ध ना करने का परिणाम आज सामाजिक पतन के रूप में हमारे सामने है। अतः समाज का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है।
चार में से तीन पुरुषार्थ को – धर्म, अर्थ, काम को – आयुर्वेद सक्षम करता है। इन पुरुषार्थों का साधन आरोग्य है तथा इन पुरुषार्थों में बाधा या हानि है पाप! मोक्ष साध्य है, प्राप्तव्य है। अन्य तीन पुरुषार्थ उसके साधन है तथा आयुर्वेद इन तीन पुरुषार्थों का साधन (अर्थात् मोक्ष का प्रायोजक) है। अतः आयुर्वेद में बताए गए संदेश व निर्देश, विशेषकर स्वस्थवृत्त व सद्वृत्त के नियम तीन पुरुषार्थों को सिद्ध करने का साधन हैं।
मात्र आयुर्वेद में ही नहीं, स्मृतियों तथा धर्मसूत्रों में भी सद्-वृत्त का वर्णन है। वहाँ इसे धार्मिक रूप दिया गया है व कर्म-काण्ड का भाग बनाया गया है जिससे इसके पालन में अनिवार्यता आ जाए। इस प्रकार भारतीय सामाजिक स्वस्थ वृत्त में आयुर्वेद व धर्मशास्त्र दोनों का सहयोग है इसी का रूप हम आज परंपराओं, व्यवहार व संस्कृति के रूप में देखते हैं। जितना हम इनसे दूर जाते हैं, उतना अपने स्वास्थ्य से दूर जाते हैं।
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