पिछले भाग में हम आपसे चर्चा कर रहे थे कि कैसे तन्त्रयुक्ति का अखिल भारतीय प्रसार था तथा तन्त्रयुक्ति में एक व्यवस्थित ग्रन्थ की संरचना के लिए सभी मूलभूत पहलू शामिल हैं।
अब हम तंत्र-युक्ति सिद्धांत के चौथे मुख्य विशेषता पर विचार करेंगे जो कहता है कि तन्त्रयुक्ति को ग्रन्थ की आवश्यकताओं के अनुसार अपनाया जा सकता है।
ग्रंथ की गात्र और प्रकृति के अनुकूल युक्तियां
आचार्य चरक के निम्नलिखित वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं (८.१२.४५-४६)
तन्त्रे समासव्यासोक्ते भवन्त्येता हि कृत्स्नशः।
एकदेशेन दृश्यन्ते समासाभिहिते तथा॥
“इन सभी (तन्त्रयुक्तियों) का उपयोग ग्रंथ में संक्षिप्त और विस्तार से किया जा सकता है। लेकिन संक्षेप में लिखे गए ग्रंथ में केवल कुछ युक्तियां ही होती हैं।”
के.वी.शर्मा इसी विषय पर बताते हैं कि – “ऐसा नहीं है कि उपरोक्त (तन्त्रयुक्तियों की) सूची की प्रत्येक वस्तु को हर ग्रंथ के मामले में लागू किया जाना चाहिए, ना ही उसी क्रम में। इसका अर्थ केवल यह है कि ये एक ग्रंथ में विचारों की प्रस्तुति के तरीके हैं और इन्हें सन्दर्भानुसार उचित रूप से उपयोग किया जाना चाहिए।.” (Sharma, 2006, p.31-32)
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ग्रंथ की गात्र और विचारों की स्वरूप के आधार पर, उपयोग की जाने वाली युक्तियों की संख्या लेखक निर्धारित कर सकतें हैं। तन्त्रयुक्तियों की इस अनुकूलनीय प्रकृति, लगभग १५०० वर्षों तक ग्रंथ निर्माण पद्धति के रूप में इसकी स्वीकार्यता के कारणों में से एक कहा जा सकता है। इसके अलावा, भारतीय साहित्य को वैज्ञानिक ग्रंथो से समृद्ध होने में, इन तन्त्रयुक्तियां सबसे प्रबल कारणों में से एक लगती है। शुरुआत में उल्लेख किया गया है कि (दक्षिण) भारतीय वैज्ञानिक ग्रन्थ राशि में से केवल ७% हि प्रकाशित हुए हैं।
उपसंहार
प्राचीन भारत के विभिन्न वैज्ञानिक विषयों के कई और ग्रंथों ने भी इन तन्त्रयुक्तियों का उपयोग किया होगा। इस दिशा में अध्ययन अभी शुरू हुआ है। इस क्षेत्र में आगे बहुत काम किया जा सकता है। जैसा कि डबल्यू.के. लेले (Lele,2006,p.264) का कहना है कि “तन्त्रयुक्ति पद्धति और आधुनिक अनुसंधान पद्धति का तुलनात्मक अध्ययन (की जानी चाहिए)”।, ऐसा करने से भारत मे अनुसंधान के लिए नए दिशानिर्देश मिल सकता है। तन्त्रयुक्तियों की मदद से विभिन्न प्राचीन ग्रंथों का संरचनात्मक विश्लेषण किया जा सकता है, जो उन ग्रंथों की एक व्यवस्थित समझ में मदद करेगा। इसके अलावा, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, संस्कृत-तन्त्रयुक्ति पद्धति और विभिन्न अन्य भारतीय साहित्यिक परंपराओं में विद्यमान समकक्षों का तुलनात्मक अध्ययन भारतीय भाषा परंपराओं के बीच मौजूद साहित्यिक अंतःक्रियाओं, प्रभावों और अंतर्धारा की बेहतर तस्वीर देगा। और यह न केवल प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक, सैद्धान्तिक ग्रंथों की व्याख्या के लिए एक कुशल उपकरण होगा, बल्कि प्राचीन और आधुनिक वैज्ञानिक, सैद्धान्तिक परंपराओं के बीच ‘वैचारिक सेतुओं’ के निर्माण के लिए भी उत्प्रेरक होगा।
(इस श्रृंखला का प्रथम, द्वितीय और तृतीय भाग)
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