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महाभारत- एक ज्ञानमय प्रदीप- भाग -१

ग्रामीण जीवन सूर्योदय से पूर्व जागृत हो जाता है और सूर्यास्त तक अपने किसानी कार्यों में जुटा रहता है। सांझ समय जब सब चौपाल में एकत्रित होते हैं तो मनोरंजन के साधन जुटाते हैं जिससे उत्साह बना रहता है। इन्हीं मनोरंजन के साधनों में लोकगीतों का भी जन्म हुआ, कुछ लोक गीत ऋतुओं और माह के अनुसार होते हैं। ऐसे ही लोक गीत हैं फ़ाग, जो फाल्गुन माह में गाये जाते है, जिसकी शुरुआत बसंत पंचमी से होने लगती है।

चौपाल में फ़ाग के कार्यक्रम होते हैं जहाँ सभी एकत्रित होते हैं। फ़ाग में महाभारत के भीष्म पर्व पर प्रतियोगिता होती है। जिस चौपाई पर पहला प्रतियोगी अपना गीत पूर्ण करता है दुसरे को भीष्म पर्व के उसके आगे की कथा गानी होती है। जो भी प्रतिभागी गीत गाने में अटकता है या भूल करता है, उसे प्रतियोगिता में हारा हुआ मान लिया जाता है। भूल बताने और सुधारने के लिए ग्राम के बुजुर्ग और ब्राह्मण साथ ही रहते हैं, जो इस तरह के गीत को रचने और बनाने का कार्य करते हैं, और जिनका महाभारत का अभ्यास पूर्ण होता है।

यदि आपने ग्रामीण जीवन जिया है तो आप इस तरह के लोकगीतों से परिचित ही होंगे, क्योंकि फ़ाग तो उत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन के आनंद का सबसे बड़ा त्यौहार है। पर जहाँ महाभारत ग्रंथ पर इस तरह की प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता रहा है, वहीँ ये भी भ्रम बना हुआ है कि महाभारत ग्रंथ घर के भीतर नहीं रखना चाहिए। तर्क यही दिया जाता रहा है कि महाभारत ग्रंथ को घर में रखने से घर में क्लेश बढ़ता है, क्योंकि महाभारत एक युद्ध ग्रंथ है। भ्रांतियां ये भी हैं कि महाभारत का पाठ घर के बहार जहाँ भी करो तो उसका एक पृष्ठ छोड़ देना चाहिए उसका पूर्ण पाठ नहीं किया जाना चाहिए।

इस तरह के मिथ्या प्रचारों का जन्म कब और कैसे हुआ ये तो नहीं कहा जा सकता, पर इस प्रचार के कारण कई दसकों तक भारतीय जीवन इस अमूल्य ग्रंथ से कटा रहा। पुनर्जागरण युग में जब इसका अनुवाद हुआ तब यह चर्चा में आया, और पाश्चत्य सभ्यता और विचारों को मानने वालों ने इसे केवल एक काल्पनिक ग्रंथ ही माना। पर कुछ ऐसे भी धार्मिक जन थे जो इसे भारतीय संस्कृति का इतिहास मानते रहे हैं।

इसी समय के लगभग एक विकृत विचारधारा का भी जन्म हुआ जो राज्य विहीन व्यवस्था को ही सही मानती थी और जिसके केंद्र में अराजकता थी। इस तर्क हीन मार्क्सवादी मानसिकता ने उस समय लोगों को काफी प्रभावित भी किया। समाज एक अंधकार में जी रहा था, जिन धार्मिक ग्रंथों ने उन्हें बांध रखा था, उससे उनकी निकटता नहीं रह गयी थी, इस कारण से इस विचारधारा को फ़लने का अवसर प्राप्त हुआ।

भारत पर इस विचार धारा का अधिक प्रभाव नहीं हुआ, क्योंकि लोकगीतों और लोककथाओं में हमारे इतिहास पुराण अभी भी जीवित थे। पश्चिमी देशों पर इस विकृत विचारधारा का अधिक प्रभाव पड़ा, क्योंकि पूर्व में प्रचारित भ्रांतियों के कारण वे अपनी प्राचीन सभ्यता पूर्ण रूप से खो चुके थे। इस विचारधारा का उनके समाज और सभ्यता पर प्रभाव ये हुआ कि विश्व ने दो महायुद्ध देखे और उसके बाद उन्हें लगने लगा कि ये विचारधारा ठीक नहीं है और समाज का एक नए रूप से पुनर्निर्माण होना चाहिये।

ऐसा भी नहीं है की इस विचारधारा ने भारत पर बिलकुल ही प्रभाव न डाला हो, भारत उस समय विदेशी हमलावरों की गिरफ्त में था, अपने विचारों को प्रकट करने के लिए वह स्वतंत्र नहीं था। जिसके कारण विदेश में हो रहे कई तरह के समाज निर्माण का प्रभाव भारत पर पड़ा ही, विदेशी शिक्षा को भी यहाँ अधिक महत्व प्राप्त हुआ। इस तरह की शिक्षा ने और विदेशी धर्मावलंबियों ने भारतीय समाज,धर्म और धार्मिक ग्रंथों का विरोध किया और अपने धर्म का यहाँ प्रचार प्रसार किया। इन विदेशी धर्मावलंबियों ने भारतीय ग्रंथों को कोरी कल्पना बताया, और समाज के लिए इन्हें घातक सिद्ध करने का भी प्रयास किया।

इसी तरह के विदेशी धर्मावलंबियों ने शायद ये ठान लिया हो कि भारतियों को उनके मूल ग्रंथ से पूर्ण रूप से काट दिया जाए। इसी के चलते ये प्रचार करवा दिया हो कि महाभारत एक लड़ाई झगड़ों को बढ़ाने वाला ग्रंथ है, इसे अपने घर के भीतर न रखें। क्योंकि कोई राष्ट्र और समाज विरोधी ही इस तरह के प्रचार का जनक कहा जा सकता है। महाभारत को हमारे समाज को गढ़ने वालों ने एक अक्षय ज्ञान का भंडार माना है, और इसे नित्य पढने की सलाह दी है।

महाभारत में महर्षि वैशम्पायन जी ने कहा है-

इदं हि वेदैः समितं पवित्रमषि चोत्तमम् ।
श्राव्यं श्रुतिसुखं चैव पावनं शीलवर्धनम् ॥ १.६२.४९

“यह महाभारत वेदों के समान पवित्र और उत्तम है। यह सुनने योग्य तो है ही, सुनते समय कानों को सुख देने वाला भी है। इसके श्रवण से अन्तः करण पवित्र होता है और उत्तम शील स्वभाव की वृद्धि होती है।”

जो ग्रंथ उत्तम शील स्वाभाव में वृद्धि करने वाला है, उस ग्रंथ से परिवार में लड़ाई झगड़े बढ़ेंगे, ऐसा मानने में कोई तर्क नहीं दिखता।

सन्दर्भ-

  1. महाभारत – आदिपर्व – पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी (स्वाध्याय मंडल पारडी)
  2. महाभारत – आदिपर्व – पंडित रामनारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय (गीताप्रेस गोरखपुर)
  3. महाभारत का काव्यार्थ – पंडित विद्या निवास मिश्र – नेशनल पब्लिशिंग हाउस
  4. संस्कृत साहित्य का काव्य – श्री बलदेव उपाध्याय – शारदा मंदिर वाराणसी
  5. महाभारत एक दर्शन – दिनकर जोशी – प्रभात प्रकाशन

(Image credit: aplustopper.com)

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