सौराष्ट्र आकर कुछ दिन उनके इसी विचार में बीत गए की आगे क्या किया जाए। उसी समय अमृतलाल शेठ ने “सौराष्ट्र” नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका का आरंभ किया। उस पत्रिका के लिए झवेरचंद मेघाणी ने एक लेख लिख भेजा, लेख पढ़कर अमृतलाल स्तब्ध रह गए। भावनाओं को शब्दों में लिख देने की झवेरचंद जी की जादुई कला ने उन्हें बहुत प्रभावित किया, उन्होंने झवेरचंद जी को संपादक मण्डली में जोड़ लिया। सौराष्ट्र पत्रिका से जुड़ने के बाद मेघाणी जी आजीवन पत्रकारिता से जुड़े रहे। उस समय भारत अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, एक पत्रकार और एक साहित्यकार जिसे अपनी मातृभूमि से प्रेम हो, वह इसमें जुड़े बिना कैसे रह सकता था। राष्ट्र प्रेम और वीरों के बलिदानों को प्रकट करते शौर्य गीतों का संग्रह “सिंधुडो” जब १९३० के सत्याग्रह के समय प्रकट हुआ, तो उसने सौराष्ट्र में राष्ट्र प्रेम की भावना को जागृत किया। सरकार ने इसका प्रभाव होते देखा तो इस संग्रह पर प्रतिबंध लगाकर, किसी झूठे मामले में झवेरचंद जी को फसाकर जेल में डाल दिया। जब मजिस्ट्रेट ने उन्हें अपनी सफाई में कुछ बोलने को कहा, तो इन्होंने इसी संग्रह का एक गीत गाने की आज्ञा मांगी। मजिस्ट्रेट के सामने जब “छेल्ली प्राथना” गीत उन्होंने गाया, तो मजिस्ट्रेट की आँखों से भी अश्रु धारा बहने लगी। उस प्राथना की शुरुआत इन शब्दों से होती है :
હજારોં વર્ષની જૂની અમારી વેદનાઓ,
કલેજાં ચીરતી કંપાવતી અમ ભયકથાઓ,
મરેલાનાં રૂધિર ને જીવતાંનાં આંસુડાઓ;
સમર્પણ એ સહુ તારે કદમ, પ્યારા પ્રભુ ઓ!
(अर्थात: हजारों वर्षों की हमारी वेदनाएँ, कलेजा चीरती और कंपन पैदा करती वो भय कथाएँ, मरे हुए के रुधिर और जीवितों के आंसुओं से टपकती बलिदानों की कथाएँ, समर्पण है सब तेरे क़दमों में प्यारे प्रभु!)
इसी संग्रह का एक गीत है “कसुम्बी नो रंग”, बलिदानियों के बलिदान का, संतो के त्याग का, वीरों के शौर्य का, माताओं की ममता का, कमजोरों के आंसुओं का ये रंग राष्ट्र प्रेम का रंग है। कसुम्बी एक केसरी रंग का पुष्प होता है, जिसके रस का उपयोग कपड़े रंगने में अथवा खाने में पड़ने वाले रंग के रूप में होता है। इस पुष्प के रस का रंग इतना पक्का होता है कि वह एक बार पड़ जाए तो निकलता नहीं है। इस गीत में मेघाणी जी इसी रंग “केसरी” रंग अथवा “भगवा” रंग में रंगे मानव के शौर्य, त्याग और बलिदान का परिचय देते हैं। राष्ट्र प्रेम के इस गीत में भारत वर्ष के वीर योद्धाओं का, माथे पर तिलक कर विदा करती पत्नियों का, माता की ममता का और त्याग का, संत के परिचय का और गरीबों की भूख का, सबका वर्णन आ जाता है।
चौविस वर्ष साहित्य की सेवा करने के बाद एक शाम जब मेघाणी जी अपनी यात्रा की साथी दैनंदिनी लेकर बैठे तो उसमें लिखे अक्षरों को पहचानने का प्रयास करने लगे। उस समय पेंसिल से लिखे कई शब्द समय के साथ मिटने लगे थे। पर फिर भी कुछ चौपाइयों को पढ़कर उन्हें याद आ रहा था कि इन चौपाइयों को इस चारण के मुंह से सुना था, और अपनी रचनाओं के लिए इन्हीं से प्रेरणा ली थी। कुछ दोहे पढ़कर याद आ रहा था कि वह किस संत, किस चारण अथवा किस बुज़ुर्ग से सुने थे, जिसने “सोरठी दुहा” रचने की प्रेरणा दी थी। किसी गीत के लिखे कुछ शब्द याद करवा रहे थे कि इन्हें जंगल में लकड़ी बीन रही किसी स्त्री के मुंह से सुना था, वह किसी योद्धा के बलिदान के गीत गा रही थी। मील के बाहर बैठे किसी जमादार से बातों में सोरठ भूमि पर जन्म लेने वाले कितने ही डकैतों की कहानियाँ सुनी थी, जो “सोरठी बहारवटिया” लिखने में सहायक हुईं थीं। सोरठ के संतों से जो गांव में कभीकभार आ जाया करते थे, उनसे कितने ही संतों के विषय में जानने को मिलता था, जिसके आधार पर “सोरठी संतों” की रचना हुई। बड़े बड़े इतिहासकार इस भूमि के वीरों के विषय में उनकी जननी के विषय में कई पन्ने पलट डालते हैं, तब भी उनकी माता के विषय में पता नहीं कर पाते। सौराष्ट्र के चारणों ने अपने गीतों में उन वीरों की माताओं के नाम वर्षों से संभाल के रखें हैं, जिन्हें आज कागजों में ढूंढा जाता है। मेघाणी जी ने भारत भूमि के चारणों की वंदना की है कि उन्होंने भारत के इतिहास को अपने गीतों में संभाले रखा है।
कहीं किसी आँगन में बजते गीत तो कहीं किसी संत के मुंह से सुने दोहे, किसी चारण की कोई चौपाई तो कहीं किसी जंगल में गीत गाती कोई स्त्री, मेघाणी जी के लोक साहित्य में सब का संग्रह है। सौराष्ट्र भूमि की पग पग चलकर जो उन्होंने परिक्रमा की, जिन लोक गीतों का उन्होंने संग्रह किया, जिन लोक कथाओं का उन्होंने संग्रह किया, चौविस वर्ष का वो परिश्रम उनके १०० से अधिक साहित्यों में दिखता है। उनकी मुख्य रचनाएँ हैं:
- वीर रस की कथाएँ : सौराष्ट्र की रसधार (१-५)
- लोक गीतों का संग्रह : रढियाणी रात (१-४)
- लोक कथा : सोरठी बहारवटिया (१-३)
- सोरठी संतो
- सोरठी दुहा
काव्य, लोकसाहित्य, लोकगीत, उपन्यास, कहानियाँ, शौर्य गीत ऐसे अनेक साहित्य के रंग मेघाणी जी की कलम से निकले हैं, जिन्हें पढ़कर अपनी जननी, अपनी मातृभूमि और अपनी लोक परम्पराओं से प्रेम हो जाता है। दुला भाई काग ने लिखा है
“હાથ વખાણા હોય, કે વખાણું દિલ વાણિયા,
કલમ વખાણું હોય, કે તારી જીભ વખાણું ઝવેરચંદ!
अर्थात: हाथों की प्रशंसा की जाए, या तेरे कलम की प्रशंसा की जाए या फिर तेरी दिल और जीभ की प्रशंसा की जाए। झवेरचंद तुम्हारा साहित्य ऐसा है जिसमें मुझे समझ नहीं आ रहा कि किसकी प्रशंसा पहले की जाए, हाथ-कलम-हृदय और जीभ सब एकसाथ एक ही धार में काम करतीं हैं। तू लिख कर पात्र को ऐसा जिवंत कर देता है कि मन के सभी भाव उसमें समाहित हो जाते हैं।
संदर्भ:
- अपने २४ वर्षों के साहित्यिक जीवन के अनुभवों को याद करते हुए, उन यादों की परकम्मा करते हुए उन्होंने अपना आत्मा वृतांत लिखा है : परकम्मा
- युगवंदना : झवेरचंद मेघाणी
- वेणी ना फूल : झवेरचंद मेघाणी
- http://meghani.com/
- http://www.aksharnaad.com/2010/08/28/a-to-z-about-shri-jhaverchand-meghani/
- https://meghani125.com/
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