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नाना भाई भट्ट (नृसिंह प्रसाद कालिदास भट्ट)

जिस राष्ट्र के लिए ये कहा जाता है कि यहाँ हर दस कोष पर बोली बदल जाती है। ऐसी भारत की ये भूमि अनेक बोलियों और अनेक भाषाओँ की जननी है। हर भाषा हर बोली में इसकी पग पग भूमि का इतिहास, लोक गीतों. लोक कथाओं और लोक भावनाओं में नदियों की धारा के जैसे बहता है। इन्हीं लोक गीतों, लोक साहित्यों और लोक भावनाओं को अनेक साहित्यकारों ने अपने साहित्य में संजोया है। उन्होंने भारतीय मानस की भावनाओं, उनकी आत्मा और उनकी आध्यात्मिकता को शब्दों में पिरोया है। लोक भावनाओं का सम्मान करते हुए ही तो तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को रचा है, जिसमें राम जी के चरित का वर्णन यहाँ के मानस को मोह लेने वाला है। ऐसे ही कुछ साहित्यकारों से हम इस शृंखला में परिचय करवाने का प्रयास करेंगे।

आज आपके सामने प्रस्तुत है इस शृंखला का दूसरा लेख!

ज्ञान से चरित्र और चरित्र से राष्ट्र निर्माण का मार्ग उद्यत होता है। पश्चिम से आने वाले अंधकार के बादलों की छाँव में अनेक संस्कृतियों का भारत में आगमन हुआ। इन संस्कृतियों के साथ ही आगमन हुआ कुछ भयंकर दोषों का, जिन्होंने धीरे धीरे भारतीय समाज पर अपना अधिकार करना शुरू कर दिया। भारत जहाँ ज्ञान और विज्ञान के ऊँचे शिखर थे, और जहाँ विश्व के अनेक विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे, इस अंधकार की छाँव में दम तोड़ते गए। फिर कुछ ऐसे व्यापारियों का आगमन हुआ जिन्होंने यहाँ की संस्कृति से छेड़ छाड़ कर अपना प्रभुत्व स्थिर करना चाह। उनकी इस क्रिया की ऐसी प्रतिक्रिया देखने को मिली जिसने इन्हें भीतर तक झुलसा दिया। सन सत्तावन की क्रांति के बाद भारत में पुनर्जागरण का दौर आरंभ हुआ। वेदों की तरफ लौटने के आवाहन होने लगे, बंकिमचंद्र चटर्जी, रविंद्रनाथ ठाकोर, स्वामी विवेकानंद जैसी विभूतियों ने पुरे विश्व को भारत की ज्ञान परंपरा से परिचित कराया। श्री अरबिंदो ने शिक्षा के क्षेत्र में नए विचारों को जन्म दिया। उन्होंने व्यक्ति के चरित्र निर्माण के साथ ही राष्ट्र के प्रति उनके दायित्वों को भी शिक्षा में सम्मिलित किया।

श्री अरबिंदो जी की इस शिक्षा नीति की भारत भर में प्रशंसा हुई और इस नीति को अपनाकर शिक्षा के कई संस्थानों का जन्म हुआ। गुजरात के काठियावाड़ की भूमि पर आनंद आश्रम की सहायता से दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवन की स्थापना हुई। नाना भाई भट्ट ने अपना पूरा जीवन इस संस्था को चलाने और इसकी सेवा करने में समर्पित कर दिया। शिक्षा जो शिक्षा प्रधान थी उसे जीवन प्रधान कैसे बनाया जाए, इस दिशा में उन्होंने विचार कर संस्था में शिक्षा के कई प्रयोग किए। गिजुभाई बधेका जी के बालमंदिर के लिए किये गए शिक्षा प्रयोग भी इसी संस्था की देन है। नाना भाई भट्ट अपनी आत्मकथा में कहते हैं कि संस्था के लिए काम करते हुए, उनके स्वयं के जीवन का भी कई अर्थों में विकास हुआ है। जीवन आधारित शिक्षा देते हुए, उन्होंने स्वयं अनुभव किया कि कुछ चीजों को लेकर वे स्वयं भी गलती करते आए हैं। इन गलतियों से शिक्षा लेते हुए उन्होंने छात्रों के जीवन को सुधारने के साथ ही साथ अपने स्वयं के जीवन को भी सुधारा। उन्होंने अपनी आत्मकथा को “घडतर अने चणतर” नाम दिया। घडतर का अर्थ घड़ना, आकार देना, एक कुशल कारीगर अपने कार्य में जितना श्रम करता है, उतना ही सुंदर आकार लेकर उसकी कला प्रकट होती है। घर बनाते समय एक एक ईंट को ध्यान से रखते हैं, तब जाकर दीवार मजबूत बनती है, इसी कला को चणतर कहते हैं। अपने दक्षिणामूर्ति के अनुभवों का सुंदर चित्रण उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है।

भिक्षा मांगकर ब्राहमण वृति से जीवन यापन करना और अपनी विद्या से लोक सेवा करना, यही इनके पूर्वजों की विरासत थी, जो नानाभाई भट्ट को प्राप्त हुई थी। इनके पूर्वजों में त्रिकम दादा हुए जिन्हें अपने पूर्वजों से वैद्य विद्या प्राप्त हुई थी, उन्होंने वैद्य विद्या से लोक सेवा ही की, कभी उसका व्यवहार नहीं किया। एक बार किसी मुनि को इनके उपचार से राहत हुई तो उन्होंने इन्हें दो सोने के कड़े आनाकानी करने पर भी भेंट कर दिए। घर आने से पूर्व त्रिकम दादा उन कड़ों को गाँव के शिव मंदिर पर चढ़ा आए। इसी तरह एक बार राजपरिवार में किसी का उपचार इन्होने किया तो राजा ने इन्हें भूमि दान में देनी चाही। दरबार में जब इन्हें सम्मान सहित दानपत्र दिया गया, तो इन्होने ये कहकर उसे लेने से मना कर कि “आप मेरे बच्चों को ब्राह्मण रहने देना नहीं चाहते। भूमि का हम ब्राह्मणों के जीवन में क्या काम, इन्हें लेंगे तो हम अपने धर्म को अपने ज्ञान को खो देंगे। उनकी आँखों में आँसू देख दरबारी ने उनके हाथों से वह ताम्रपत्र ले लिया। इनके दादा श्री हीरा भाई पंड्या जी सुबह स्नान आदि कर भिक्षा मांगने निकल जाते और दोपहर तक भिक्षा मांग कर लौटते, तब उस अन्न से पका भोजन करते। जब वे सुबह घर से निकलते तो औसधियों के छोटे छोटे पडीके बना लेते, और उन्हें मार्ग में जो भी व्यक्ति बीमार मिलता उसे दे देते। ऐसे ब्राह्मण परिवार में श्री नाना भाई भट्ट जी का जन्म संवत १९३९ की कार्तिक माह में प्रतिपदा के दिन (१२.११.१८८२) हुआ।

अपनी बचपन की यादों में अपने पछेगाम को याद करते हुए भट्ट जी कहते हैं कि उनके गाँव के ब्राह्मण प्रश्नोरा ब्राह्मण कहलाते थे। प्रश्नोरा ब्राह्मणों को ब्राह्मण जीवन आधारित जीवन जीने में सर्व ब्राह्मण ज्ञातियों में श्रेष्ठ माना जाता था। भिक्षा से प्राप्त अन्न का ही सेवन करना, कथा वाचन अथवा वैद्य विद्या में यजमान से प्राप्त रोटी से संतोष मानना, शास्त्र का अध्ययन करना आदि उनके जीवन का नित्यक्रम था। संध्या के समय मंदिर की देहली पर शास्त्रार्थ हुआ करता और रामायण-महाभारत, वेद-पुराणों की कथाएँ सुनाई जाती। नाना भाई भट्ट इस देहली को अपना गुरु मानते थे, बचपन में इसी देहली पर बैठकर उन्होंने शास्त्रों का और ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया। उनके व्यवहार में और शिक्षा में परिवार और गाँव से प्राप्त ये संस्कार जीवन भर साथ रहे। इन्हीं संस्कारों के कारण जब वे शिक्षक हुए और उन्हें शिक्षा देने के बदले वेतन मिला तो उनके मन में उथल पुथल होने लगी। शिक्षा का बाज़ारीकरण देख उन्हें पीड़ा हुआ करती। इस पीड़ा का अंत हुआ १९१० में जब दक्षिणामूर्ति की स्थापना हुई। उनका मानना था कि इस तरह की शैक्षणिक संस्थाओं को बड़े बड़े फंड से दूर रहकर, गरीबी में रहकर ब्राह्मणवृति से ही चलाना चाहिए। हमने जिस दिन से स्वेच्छा से अपनाई गरीबी को छोड़ दिया है, तभी से हमारा तेज़ कम होता चला है। शिक्षा को बाज़ारीकरण से दूर रखकर ब्राह्मणवृति से चलाने का उनका अभिप्राय था। दक्षिणामूर्ति का कार्य संभालने के बाद उन्होंने प्रोफेसर का पद त्याग दिया। उनके त्यागपत्र से भावनगर महाराज को भी आश्चर्य हुआ, उन्होंने उन्हें बुलाकर समझाने का प्रयास किया। पर नाना भाई भट्ट नहीं माने, उन्होंने दक्षिणामूर्ति की सेवा को ही अपने जीवन का ध्यय बना लिया।

जब वे मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे, तब उनके पिताजी ने कहा कि, “मैट्रिक के बाद कहीं नौकरी ढूंढ लो, कॉलेज की पढ़ाई करवा सकें ऐसी स्थिति नहीं है परिवार की”। आगे की पढ़ाई के लिए अब नाना भाई भट्ट जी के पास एक ही विकल्प था, “स्कॉलरशिप”। मैट्रिक की परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी से पास हुए और उन्हें वह स्कॉलरशिप मिल गयी। इंटर की पढ़ाई के लिए उन्हें मुंबई की एल्फिन्स्टन कॉलेज में प्रवेश मिल गया। संस्कृत और अंग्रेजी विषय रखकर उन्होंने मुंबई में ही स्नातक तक की पढ़ाई की। अपने मुंबई के जीवन को याद करते हुए नाना भाई लिखते हैं कि वे पूरा सत्र एक ही कपड़ो में निकालते थे। शाम को कमरे पर उन कपड़ों को धोकर, सुबह उन्हें ही पहनकर कॉलेज जाते। उनके पास दैनिक खर्च के लिए भी पर्याप्त धन नहीं था। ऐसे में उन्होंने एक शेठ से विनंती कर उनके यहाँ दो समय के भोजन की व्यवस्था कर ली, पर एक दिन शेठानी ने सब्जी परोसे जाने को लेकर ताना मार दिया। उस दिन के बाद से वे रोटी पर केवल नमक छिड़क कर ही खाते। बाद में शिक्षक हो जाने पर उन्होंने उस शेठ के बेटे को ट्यूशन पढ़ाकर इस परोपकार का ऋण उतारा था। मुंबई के इन्हीं वर्षों में प्लेग महामारी फैली जिसमें परिवार के दो सद्स्य, पत्नी और सासु माँ का देहांत हो गया। भावनगर से कॉलेज आते समय पत्नी के साथ इन्होंने भविष्य के कितने ही सपने देखे थे, अंत समय पर उसके साथ नहीं थे उसका इन्हें दुःख हुआ। उस दुःख के क्षण में भवभूति की रामचरित और टेनिस की ‘इन मेमोरियम’ से इन्हें सहायता मिली। इतिहास और अर्थशास्त्र विषय लेकर एक वर्ष में ही इन्होंने एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर ली। शामलदास कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहकर सेवा की, और फिर दक्षिणामूर्ति की सेवा के लिए वह पद छोड़ दिया।

धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों का अध्ययन इन्होंने बचपन से ही आरंभ कर दिया था। शाकुंतल इनके हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में थी, उसे इन्होने उन्नतिश बार पढ़ डाला था। वेदांत और संस्कृत साहित्यों में उच्च शिक्षण प्राप्त करने के बाद, आनंद आश्रम में दीक्षा लेकर इन्होंने गुरु शिष्य परंपरा में भी शास्त्रों का अध्ययन किया। धार्मिक ग्रंथों और शास्त्रों के अध्ययन का उनका ज्ञान उनकी लिखी साहित्यिक रचनाओं में प्रकट होता है। उनके चिंतन को आप “महाभारत के पात्र”, “रामायण के पात्र, “श्रीमद् लोक भागवत” आदि साहित्यों में पढ़ सकते हैं। गांधी जी के सत्याग्रह से जुड़कर जेल का प्रवास भी किया, ग्राम स्वराज की दिशा में कार्य करते हुए एक ग्रामीण दक्षिणामूर्ति संस्था की भी स्थापना की, उच्च शिक्षा के लिए लोकभारती संस्था की स्थापना।उन्होंने अपना जीवन शिक्षा के कार्यों को करते हुए ही समर्पित कर दिया। १९६० में उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

उनकी कुछ साहित्यिक और ऐतिहासिक रचनाएँ:

  • महाभारत के पात्र १ – ११
  • रामायण के पात्र
  • दृष्टांत कथाओ १-२
  • पथारीमा पड्या पड्या
  • बे उपनिषदों
  • आपणा देश नो इतिहास
  • संस्थानु चारित्र्य
  • श्रीमद् लोक भागवत
  • हिन्दू धर्मनी आख्यायिकाओ १-२
  • भागवत कथाओ

संदर्भ:

  • आत्मकथा – “घडतर अने चणतर”
  • https://gujarativishwakosh.org/%e0%aa%ad%e0%aa%9f%e0%ab%8d%e0%aa%9f-%e0%aa%a8%e0%aa%be%e0%aa%a8%e0%aa%be%e0%aa%ad%e0%aa%be%e0%aa%88-%e0%aa%a8%e0%ab%83%e0%aa%b8%e0%aa%bf%e0%aa%82%e0%aa%b9%e0%aa%aa%e0%ab%8d%e0%aa%b0%e0%aa%b8/

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