गदर की शुरुआत कैसे हुई और उसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्या योगदान रहा है?
प्रस्तुत पुस्तक उस इतिहास कि झलक है जिसने भारत से मीलों दूर विदेशी भूमि पर जन्म लिया। एक समय था जब भारतीयों को यूरोप और अमेरिकी भूमि पर कदम रखते ही अपमानित करने वाली दृष्टि से देखा जाता था। एक पराधीन राष्ट्र के नागरिक को उन अपमानित करने वाली दृष्टियों के सामने झुककर चलना होता था। उन्हें परम्परागत तरीकों से दाहसंस्कार करने तक की आज्ञा नहीं दी जाती थी। कैनाडा सरकार ने तो कानून लाकर भारतीयों के कैनाडा में प्रवेश करने पर भी रोक लगाने का प्रयास किया था। कैनाडा में रहने वाले भारतीयों को भी वहाँ से खदेड़ने की पूरी तैयारी थी। इस अपमान ने उस विदेशी भूमि पर ऐसे विद्रोह को जन्म दिया, जिसे गदर क्रांति कहा गया। क्रांतिदूत शृंखला की ये चौथी पुस्तक उसी ‘गदर’ के इतिहास के साक्षी और बलिदानी हुए वीरों की कथा कहती है।
गदर की शुरुआत कैसे हुई और उसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्या योगदान रहा? कुछ ऐसे ही प्रश्न भगतसिंह, भगवतीचरण, सुखदेव और यशपाल के मन में थे। आज भाई जी से मिलकर उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर जानने थे। आइये प्रवेश करें क्रांतिदूत शृंखला के चौथे भाग में जिसका विषय है ‘गदर’। क्रांतिदूत शृंखला की पुस्तकें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के योगदान पर प्रकाश डालती हैं। इस शृंखला की पुस्तकों में क्रांति की कहानी कहने के लिए नाट्कीय शैली का प्रयोग हुआ है, जिसमें पिछली पीढ़ी शिक्षक की भूमिका में है और युवा पीढ़ी विद्यार्थी बनी है। युवा पीढ़ी १९२३ – १९३० के समय के क्रांतिकारी युवक दल है, जिन्हें जिज्ञासा है पिछली पीढ़ी के क्रांतिकारियों के विषय में जानने की।
कई ऐसे नाम इस शृंखला में प्रकट हुए हैं जिनके विषय में बहुत कम पढ़ा या सुना गया है। क्रांति संगठन लंदन से लेकर बर्मा और जापान तक फैला हुआ था, और हम उन्हें कुछ भूले भटके हुए नौजवानों के रूप में ही जानते हैं। भारत के सशस्त्र क्रान्तियुद्ध के योद्धाओं के नाम इतिहास के पन्नों पर हैं, पर उनके विषय में इतना कम लिखा गया है कि उनका योगदान एकदम नगण्य हो जाता है। जैसे रासबिहारी बोस के विषय में अधिकतर भारतीयों को यही पता है कि उन्होंने जापान में आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया। हम उनके इस योगदान को यहीं तक सिमित कर देते हैं और आज़ाद हिन्द फ़ौज का पूरा श्रेय सुभाषचंद्र बोस को देते आ रहे हैं। रासबिहारी बोस के विषय में जानने की हमारी इच्छा भी बहुत कम रह जाती है, जब पूरा श्रेय सुभाषचंद्र बोस को दे दिया जाता है। रासबिहारी बोस कौन थे? वे कहाँ से आए थे? और वे उस समय जापान कैसे पहुँचे?, इस विषय में हम चर्चा ही नहीं करते। अधिकतर लोगों को करतारसिंह सराभा के विषय में भी केवल इतना ही पता होता है कि वे भगतसिंह के आदर्श थे, उनके योगदान के विषय में तो बहुत कम लिखा मिलता है।
अहिंसा के पाठ सीखने में हमने एक बहुत बड़े इतिहास को भुला दिया। उनके इतिहास को केवल कुछ पन्नों में समेट कर अहिंसा के पाठ से आधुनिक भारत के इतिहास को भर दिया है। इसलिए भी क्रांतिदूत जैसी शृंखला को लिखा जाना जरुरी हो जाता है, ताकि युवाओं को उस इतिहास की जानकारी मिले जो अहिंसा के पाठ में कहीं दब गयी है। क्रांतिदूत शृंखला से लेखक मनीष श्रीवास्तव जी का यही प्रयास है कि युवाओं तक इस शसस्त्र क्रान्ति का इतिहास थोड़ी बहुत मात्रा में ही सही, पर किसी भी रूप में पहुँचे। उन्होंने इसी को ध्यान में रखकर अपने लेखन को थोड़ा नाटकीय रूप भी दिया है।
एक साक्षात्कार में क्रांतिदूत शृंखला पर बात करते हुए लेखक श्री मनीष श्रीवास्तव जी ने कहा था कि ‘गदर’ की कहानी उनके दिल के बहुत करीब है। शायद यही कारण रहा कि उन्होंने कहानी को कई जगह पर दोहरा दिया है। वो कॉलेज में के.के. का भाषण कुछ कुछ मुन्ना की याद दिला रहा था । “मैं मुन्ना हूँ” मनीष जी कि इस शृंखला से पहले की पुस्तक है। उसमें स्कूल के फंक्शन में मुन्ना अपनी बात जब कहता है, तो उसके पीछे का पूरा जीवन पाठकों के सामने रहता है। पाठक उधर मुन्ना के साथ जुड़ जाता है। यहाँ शृंखला कि चौथी पुस्तक में जब के.के. गदर की बात करते हैं, और जिस भावुकता में बहकर नारे लगवाते हैं, पाठक उससे जुड़ नहीं पाता। क्योंकि पाठकों को पता ही नहीं होता कि के.के. कौन हैं।
गदर के इतिहास को जानने के लिए, शृंखला कि ये पुस्तक बहुत उपयोगी है। इस तरह विस्तार में गदर का पूरा इतिहास पढ़ने के लिए शायद ही कोई अन्य पुस्तक मिले। करतारसिंह, रासबिहारी बोस, विनायक सावरकर और गदर के अन्य साथियों के जीवन से जुड़े ऐसे कई कारनामें जानने को यहाँ मिलेंगे, जिन्हें पढ़कर आपकी आँखें नम हो जाएँगी। कामागाटामारू जहाज के उन साथियों के योगदान को तो शायद ही कभी याद किया जाता है, जिन्होंने अपने भारत के स्वाभिमान के लिए गोलियों का सामना किया। इन्हीं वीरों को याद करते हुए शृंखला कि अगली पुस्तकों की प्रतीक्षा रहेगी।
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