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झवेरचंद मेघाणी – प्रथम भाग

जिस राष्ट्र के लिए ये कहा जाता है कि यहाँ हर दस कोस पर बोली बदल जाती है। ऐसी भारत की ये भूमि अनेक बोलियों और अनेक भाषाओँ की जननी है। हर भाषा हर बोली में इसकी पग पग भूमि का इतिहास, लोक गीतों, लोक कथाओं और लोक भावनाओं में नदियों की धारा के जैसे बहता है। इन्हीं लोक गीतों, लोक साहित्यों और लोक भावनाओं को अनेक साहित्यकारों ने अपने साहित्य में संजोया है। उन्होंने भारतीय मानस की भावनाओं, उनकी आत्मा और उनकी आध्यात्मिकता को शब्दों में पिरोया है। लोक भावनाओं का सम्मान करते हुए ही तो तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को रचा है, जिसमें राम जी के चरित का वर्णन यहाँ के मानस को मोह लेने वाला है। ऐसे ही कुछ साहित्यकारों से हम इस शृंखला में परिचय करवाने का प्रयास करेंगे।

आज हम जिनसे आपका परिचय करवाने वाले हैं वो हैं झवेरचंद मेघाणी!

शाम का सूरज ढल रहा था, यात्रा पर निकले झवेरचंद मेघाणी और उनके मित्र थके हुए थे। एक गांव के नजदीक पहुँचे तो वहाँ का एक चारण उन्हें अपने घर लिवा ले गया। घर पर स्त्री से कहा कि मेहमान आयें हैं कुछ अच्छा सा बना। ये वो समय था जब मेहमान सर दर्द नहीं हुआ करते थे, और यात्रा पर निकले किसी यात्री को होटल ढूंढने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। मेहमानों का आना, भगवान के आने जैसा समझा जाता था। स्त्री ने बैंगन का भरता बनने के लिए रख दिया और बाजरे के रोटले की तैयारी करने लगी। सब्जी बन जाने पर चारण की चौदह वर्ष की कन्या मेहमानों को आदर के साथ परोसने लगी, माँ गरम गरम बाजरे के रोटले सेकने लगी। खाना हो जाने के बाद सभी मेहमानों के लिए दूध गरम करने के लिए रख दिया गया। बैठक में चारण दोहे सुनाता जा रहा था, और सभी उसके दोहों की तारीफ़ कर रहे थे, तब तक हीरबाई (चारण कन्या) पात्र में दूध लेकर आ गयी और मेहमानों के सामने रख दिया।

अचानक से बाहर शोर हुआ कि गांव में शेर आया है और जिस घर में सभी मेहमान थे, उनके घर की बाड़ी से गाय की बछड़ी को उठाकर ले जा रहा है। चौदह वर्ष की उस कन्या ने जब सुना कि उसकी प्यारी बछड़ी हिरल को शेर उठाए लिए जा रहा है, तो वह लकड़ी लेकर बाहर दौड़ पड़ी। मेघाणी जी ने बच्ची को बाहर दौड़ते देखा तो उनके हाथ से दूध का पात्र छूट गया, और वे उसके पीछे दौड़े कि ये बच्ची बाहर कहाँ दौड़कर जा रही है। चारण ने कहा कि जिस बछड़ी को शेर उठाकर लिए जा रहा है, हीर बाई उसे बहुत प्रेम करती है, वो सिंह को उसका मांस खाने नहीं देगी। मेघाणी जी को विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस सिंह की गर्जना से पर्वतों के पत्थर तक कांप जाते हैं, उस सिंह के मुंह से गाय की बछड़ी को छुडाने एक चौदह वर्ष की बच्ची उसके पीछे दौड़ पड़ी है। बाहर आकर उन्होंने जो दृश्य देखा, उस दृश्य को देखकर उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उनके शरीर का अंग अंग कांप रहा था और आँखें भय से लाल हुई जा रहीं थीं।

सिंह के सामने चौदह वर्ष की कन्या लकड़ी लेकर उसे फटकार रही है कि “गीर के कुत्ते खड़े रहे”, मेरी बछड़ी को लेकर तुझे नहीं जाने दूंगी। सिंह बछड़े को मुंह में दबाकर उस पर जोर से गुर्रा कर उस कन्या को डराने का प्रयास कर रहा है, पर कन्या जैसे आज स्वयं दुर्गा बनकर उसके सामने खड़ीं है। गांव में भी शोर होने लगता है, और सब अपने अपने घर से आने लगते हैं, कोलाहल सुनकर शेर बछड़ी को छोड़कर भाग जाता है। पर उस दृश्य को देखकर झवेरचंद मेघाणी जी के मुंह से जो शब्द फूटे, जो काव्य उस दृश्य को देखकर स्वतः ही उनके कंठ से फूट पड़ा, वह गुजराती काव्यों में सबसे महान काव्य है। उस समय मेघाणी जी के रोम रोम से जो भाव प्रकट हुए वह उन्होंने काव्य रचना “चारणकन्या” में ज्यों के त्यों उतारे हुए हैं।

ચૌદ વરસની ચારણ કન્યા, ચુંદડીયાળી ચારણ કન્યા

શ્વેતસુંવાળી ચારણ કન્યા, બાળી ભોળી ચારણ કન્યા

લાલ હિંગોળી ચારણ કન્યા, ઝાડ ચડંતી ચારણ કન્યા

પહાડ ઘૂમંતી ચારણ કન્યા, જોબનવંતી ચારણ કન્યા

આગ ઝરંતી ચારણ કન્યા, નેસ નિવાસી ચારણ કન્યા

જગદમ્બા શી ચારણ કન્યા, ડાંગ ઉઠાવે ચારણ કન્યા

ત્રાડ ગજાવે ચારણ કન્યા, હાથ હિલોળી ચારણ કન્યા

પાછળ દોડી ચારણ કન્યા

झवेरचंद मेघाणी जी का सामान्य औपचारिकता वाला परिचय न देकर, उनकी इस यात्रा और चारणकन्या वाले प्रसंग से उनके परिचय की शुरुआत करने का कारण है। कारण यह है कि मैंने जब बचपन (कक्षा ४-५) में पाठ्यक्रम में ये कविता पढ़ी थी, तभी से ये मेरे मानस पटल में थी, और मेघाणी जी से मेरा परिचय भी इसी कविता से हुआ था। उनके जीवन का परिचय उनकी साहित्यिक यात्राओं में ही है। पिताजी श्री कालिदास मेघाणी जी पुलिस में थे तो हर बदली के साथ एक नए गांव या शहर से मेघाणी जी का परिचय होता रहता था। बचपन में माता श्री धोलीमा जी काम करते हुए प्रेम और भक्ति के रास गीत गाया करती थीं, वे मेघाणी जी की स्मृति में जीवन भर रहे। गांव और शहरों से परिचय और माताजी से सुने गीतों ने उन्हें अपनी धरती से जीवन भर जोड़े रखा। संस्कृत और अंग्रेजी विषय से स्नातक तक की पढाई करने के बाद, भावनगर में ही एक पाठशाला में शिक्षक हो गए। शिक्षक की नौकरी के साथ ही साथ उन्होंने भावनगर के एक विश्विद्यालय में आगे की पढाई के लिए प्रवेश ले लिया था।

कलकत्ता से भाई का पत्र मिला तो वे शिक्षक की नौकरी और पढाई छोड़कर, भाई का हाल लेने कलकत्ता आ गए। भाई की बीमारी के कारण उन्हें कलकत्ता में अधिक दिनों तक रुकना था, तो विचार करके वे वहाँ एक बर्तन बनाने वाली कम्पनी में काम करने लगे। कम्पनी के मालिक श्री जीवनलाल के साथ उन्होंने इंग्लैंड का प्रवास भी किया। जीवनलाल चाहते थे कि मेघाणी इंग्लैंड की यूनिट का कार्य संभाल लें। पर मेघाणी जी का वहाँ मन नहीं लगा, उन्हें अपनी मातृभूमि से लगाव था और मातृभूमि से इतनी दूर रहकर उनका किसी काम में मन नहीं लग सकता था। उन्होंने कहा भी था कि मेरा जन्म चोटिला पर्वत की तलहटी में एक गांव में हुआ, मैं पहाड़ों की संतान हूँ, मेरा मन तो वहीं है। इंग्लैंड से लौटकर कुछ दो ढाई वर्ष और वे कलकत्ता में रहे, फिर उन्होंने अपनी मातृभूमि की पुकार सुनी और वे सौराष्ट्र लौट आए।

क्रमशः

संदर्भ:

अपने २४ वर्षों के साहित्यिक जीवन के अनुभवों को याद करते हुए, उन यादों की परकम्मा करते हुए उन्होंने अपना आत्मा वृतांत लिखा है : परकम्मा

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