कैलाश पर्वत पर आह्लादक कर देने वाली ऋतु थी। अनन्त प्रतीक्षा के प्रतीक नंदी महाराज पर्वत की कंदराओं में विचरण कर रहे थे तभी बड़े धमाके से उस प्रदेश में कुछ आ गिरा। शान्त रमणीय स्थल पर अचानक हुए इस कोलाहल से आश्चर्यचकित नन्दी महाराज (नंदिकेश्वर) वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक बड़ा सा खेचरी यांत्रिक वाहन वहां पड़ा हुआ था और उसका चालक उसे वापस हवा में उड़ाने का निरर्थक प्रयास कर रहा था।
उसकी यह दशा देख कर नन्दी महाराज ने दया मिश्रित विनोद के भाव से कहा “कुछ समय तक इस विमान को उड़ाने का प्रयास ना करें महाशय। कैलाश पर्वत पर महादेव तथा पार्वती इस सुहानी ऋतु का आनंद ले रहे हैं और इस क्षेत्र में अतिक्रमण व आवाजाही निषेध है।”
कुबेर की अलकापुरी पर विजय प्राप्त कर लौट रहा, अहंकार के मद में चूर दशानन नंदी महाराज के यह वचन सुनकर क्रोधित स्वर में बोला “हे वानर–मुखी जीव, लंका नरेश दशानन के पुष्पक विमान रोकने की धृष्टता कोई नहीं कर सकता। स्वयं महादेव में भी यह साहस नहीं है।”
दशानन की बातें सुनकर नंदी महाराज के चेहरे पर मुस्कान आ गई। यह देख कर दशानन और क्रोधित हो उठा, उसने नंदी का अपमान करते हुए उन्हें कटु वचन से दुत्कारा। नन्दी महाराज ने उसे श्राप देते हुए कहा कि “तुमने मेरे लिए वानर शब्द प्रयोग किया है तो याद रखना तुम्हारे अंत का कारण भी वानर ही बनेंगे।”
दशानन नंदी के श्राप की अवगणना करते हुए कैलाश पर्वत की ओर बढ़ा। उसने अपने स्नायुबद्ध विंशतिः (२०) हाथों से कैलाश पर्वत की जड़ों को हिलाना आरंभ किया।
कुछ ही समय में समग्र पर्वत के वनों में भय व्याप्त हो गया। समस्त जीव घबरा कर यहां वहां आश्रय स्थल ढूंढने लगे। माँ पार्वती ने भयभीत हो कर महादेव को आलिंगन में भर लिया।
जब दशानन ने पर्वत को एक ओर से उठा लिया तब महादेव ने सौम्यता–सभर हास्य बिखेरते हुए अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबा दिया। दशानन का परिश्रम एक ही क्षण में जाता रहा और उसके कंधों पर समस्त पर्वत का भार आ गिरा।
पीड़ा से व्यथित दशानन चीखने लगा और इसी ‘राव’ के कारण उसका नाम “रावण” पड़ा। महादेव की शक्तियों का भान होते ही रावण ने उनकी स्तुति करते हुए शिव का अनुग्रह प्राप्त करने हेतु अपने मस्तक तथा हाथ से वीणा बनाई और हृदय के तार से उसे जोड कर सुर छेड़े। पंचचामर छंद में सामवेद में दर्शाए शिव के गुणों का वर्णन करते हुए रावण ने ‘शिव तांडव स्तोत्र’* की रचना की। रावण के इस गीत से शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने रावण को कैलाश–पाश से मुक्त किया। लोक–मान्यता के अनुसार रावण की इसी वाद्य को राजस्थानी वाद्य रावणहत्था कहा जाता है।
अहंकार एवं पश्चाताप
पौराणिक कथाएं अक्सर सांकेतिक होती हैं। जैसे नवनीत प्राप्त करने के लिए छाछ का दोहन करना पड़ता है वैसे ही इन कथाओं का मर्म समझने के लिए हमें हिन्दू दर्शन का अभ्यास करना पड़ता है। इस कथा में रावण मनुष्य के अहंकार का प्रतीक है। अहंकार के मद में मनुष्य विवेकभान भूल कर स्वच्छंद व्यवहार करते हैं।
अहंकार की स्थिति में मनुष्य अपनी क्षमताओं को भूल जाता है और बिना परिणाम का विचार करे कैलाश पर्वत उठाने का आभासी बल प्राप्त कर लेता है। इस कथा का पक्ष यह भी है की जैसे रावण ने कैलाश की प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम भुगता वैसे ही हम भी भुगत रहे हैं। जब हम प्रकृति के नियमों से छेड़छाड़ करते हैं तब प्रकृति कोरोना जैसे वाइरस के रुप में मनुष्य से प्रतिशोध लेती है।
सभी नकारात्मक विचारों का केन्द्र मस्तक में होता है और हाथों से कर्म किया जाता है। हृदय करुणा का प्रतीक है और इस तरह से मस्तिष्क, हाथ और हृदय की नाड़ी से निर्मित रावण की वीणा उसके पश्चाताप का प्रतीक है। इसीलिए इस शिल्प को रावणगर्वहरण भी कहते हैं।
पुरातत्वविद टी गोपीनाथ राव ने अपने ग्रंथों में इस अनुग्रह मूर्ति का विस्तृत वर्णन किया है। होयसल की विशिष्ट शैली में निर्मित बेलूर तथा हालेबिढ़ू जैसे मंदिरों में अलंकृत और मनोरम्य रावणानुग्रह मूर्तियां उकेरी गई हैं। यहां कैलाश पर्वत पर देवी–देवताओं तथा पशु–पक्षियों के समूह में शिव पार्वती कलात्मक महालय में निवास करते हैं।
होयसल की कुछ प्रतिमाओं में रावण को तलवार सहित दर्शाया गया है। एक मान्यता के अनुसार प्रायश्चित के पश्चात रावण को महादेव तलवार एवं शिवलिंग का उपहार दे कर अनुग्रहित करते हैं। यहां तलवार शक्ति का तथा शिवलिंग भक्ति का प्रतीक हैं। शिव कहते हैं कि बिना भक्ति के शक्ति निरंकुश हो जाती है। भक्ति से जागृत होने वाला विवेक का भाव शक्ति के अहंकार को नष्ट करने का काम करता है।
रावणानुग्रह के शिल्प गुप्त काल से हिंदू मंदिरों का एक महत्वपूर्ण भाग रहे हैं। शारीरिक अनुपातों और प्रमाणों की श्रेष्ठता तथा चेहरे के भावों को राष्ट्रकूट शैली के एलोरा गुफा मंदिरों में उत्कृष्टता से उत्कीर्ण किया गया है।
एलोरा के ही दशावतार गुफा में दो शिवगण, दो महिला परिचारिकाएं , वामन–गण, शारीरिक सौष्ठव से परिपूर्ण रावण, सप्रमाण निर्भीक शिव और पार्वती का भय से शिव से आलिङ्गन का चित्रण अनुपम है।
कैलाश मंदिर गुफा में रावणानुग्रह की प्रतिमा को देख कर 3D दृश्य का आभास होता है। एलोरा के ही गुफा क्रमांक 16 में रावण की कमर तथा शरीर पर तनाव भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। एलोरा की सभी भिन्न प्रतिमाओं में रावण की भाव–भंगिमाओं में उसका परिश्रम और पराजय–बोध स्पष्ट दिखता है।
दशानन के दस मस्तक मोह, मद, मत्सर, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष और भय जैसी दस नकारात्मक ऊर्जाओं के प्रतीक हैं और यही नकारात्मकता मनुष्य की मूढ़ता का कारण बनती है। एलोरा के एक शिल्प में रावण का दसवां मस्तक गर्दभ के रूप में दर्शाया गया है जो इसी मूढ़ता का प्रतिनिधित्व करता है। हालाँकि शिल्पों में छिपे इन संकेतों को बारीकी से निरीक्षण किये बिना समझ पाना मुश्किल है।
एलोरा के कुछ शिल्पों में छोटे छोटे शिवगणों द्वारा रावण का उपहास किया जाना दिखाया गया है जो शिल्पकार की विनोद–प्रियता का सुंदर उदाहरण है।
८वीं शताब्दी में कांची के पल्लवों पर विजय की स्मृति में निर्मित पत्तदकल के विरुपाक्ष मंदिर में यज्ञोपवीत धारण किए रावण को अंकित किया गया है। यह प्रतिमा भी नयनाभिराम है।
रावणानुग्रह की कुछेक प्रतिमाओं में जटामुकुट धारण किये पार्वती सहित चतुर्भुज शिव के साथ गणेशजी, कार्तिकेय, नंदी तथा सिंह भी दर्शाए जाते हैं।
भारत के एलिफेंटा, एलोरा, मदुरै, पत्तदकल जैसे मंदिरों के उपरांत यज्ञवराह द्वारा दसवीं शताब्दी में लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित कंबोडियाई ‘बंते सरे’ मंदिर में तथा वियतनाम के ‘मी सों’ (My son) में भी यह शिल्प पाए जाते हैं।
* प्रचलित मान्यताओं के अनुसार शिव तांडव स्तोत्र की रचना को रावणानुग्रह की कथा के साथ जोड़ा जाता है किन्तु जानकारों की मानें तो रामायण, शिव महापुराण जैसे ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं है।
सन्दर्भ ग्रंथ:
T. A. Gopinatha Rao: Elements of Hindu Iconography
(इस श्रृंखला का प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम और षष्ठ भाग)
(छायाचित्र सौजन्य– Wikimedia Commons)
(Featured image credit: webneel.com)
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