दक्षिण भारत हिन्दू मंदिरों तथा कला के अभ्यासुओं के लिए स्वर्ग समान है। दक्षिण भारत में शिव के पञ्चभूत रूपों को विविध देवालयों में स्थापित किया गया है और पिछले वर्ष इन्हीं पंचभूत मंदिरों की यात्रा पर ‘श्रीमान’ मनीष श्रीवास्तव जी के साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। चार दिनों के प्रवास में हमने पञ्चभूत एवं पञ्चसभा के आठ मंदिरों के साथ कुम्बकोणम तथा कांचीपुरम जैसे प्राचीन नगरों और महाबलीपुरम तथा तंजावुर जैसे कलाधामों का भी दौरा कर लिया। यह एक ऐसी यात्रा थी जिसमे हमने सभी गंतव्यों का भ्रमण मात्र चार दिनों की अवधि में किया।
यात्राएं हमेशा कुछ न कुछ सिखाती हैं और इस यात्रा ने भी हमें ऐसे ही कुछ अद्भुत अनुभवों से अभिभूत किया। यात्रा में आने वाले हर मंदिर के साथ जुड़ी पौराणिक कथाएं, उनका इतिहास, उनका स्थापत्य और कला के बारे में हम चर्चा करते और मनीष भैया के साथ होने वाली यह ज्ञान चर्चाएं कभी–कभी देर रात तक चलती। मदुरै के सुंदरेश्वर शिव मंदिर में हमने एक अद्भुत शिल्प देखा जो मात्र एक ही पैर पर खड़ा था। जटामुकुट, सर्पमाला और व्याघ्रचर्मधारी आकृति से एक बात स्पष्ट थी कि यह शिव का कोई स्वरुप है लेकिन शिव के इस रूप के बारे में हम दोनों ज्ञानशून्य थे। स्थानीय लोगों से इसके विषय में जानकारी जुटाने के हमारे सभी प्रयास विफल रहे। यात्रा में आने वाले पड़ावों पर यह शिल्प एक प्रश्नचिह्न की तरह हमारी चर्चाओं में रुका रहा।
यात्रा के अंतिम दिन, जब हम हमारे अंतिम गंतव्य स्थान वटारण्येश्वर मंदिर पहुंचे तब वहां नीरव शांति व्याप्त थी। दोपहर का समय होने की वजह से दर्शनार्थियों की संख्या नहीवत थी। दर्शन के पश्चात हमने मंदिर का निरीक्षण किया तो देवालय के गोपुरम पर इसी प्रतिमा ने फिर से हमारा ध्यान आकर्षित किया।
फिर से एक बार चर्चा शुरू हुई। वहां कोई नहीं था जिससे हमें मदद मिल पाती। तभी हमारी नज़र सामने बैठे एक वृद्ध ‘बाबा’ पर जा ठहरी। वो हमारे सामने देख मुस्कुरा रहे थे, शायद वो हमारी उलझन समझ चुके थे। वो हमारे पास आए और गोपुरम पर अंकित प्रतिमाओं के नाम बोलने लगे। मनीष भैया ने उस रहस्यमय विग्रह की ओर अंगुली निर्देश दिया और बाबा ने प्रत्युत्तर दिया “एकपाद”।
अज्ञात पथप्रदर्शक (Credit: Trushar)
बस यही एक शब्द रहस्योद्घाटन करने के लिए पर्याप्त था। यात्रा के अंतिम दिन शिव ने चर्चाओं के एकमात्र प्रश्नचिह्न को पूर्णविराम में बदल दिया। एकपाद शिव के कुछेक चित्र हमें ज्ञात थे लेकिन यह थोड़ा अनूठा प्रकार था। श्रृंखला के पिछले भाग में हमने देखा कि लिंगोद्भव के प्रसंग में शिव ने ब्रह्मा और विष्णु से कहा था कि यह तीनों देवों का उद्भव एक ही तत्व से हुआ है और यह एकपाद शिव उसी स्वरुप का निरुपण करता है।
मदुरै और वटारण्येश्वर में हमारे रहस्य के केन्द्र समान एकपाद मूर्ति वह रूप है जो केवल एक पैर पर अकेले खड़े शिव का प्रतिनिधित्व करता है। यह दर्शाता है कि भगवान शिव समस्त सृष्टि के ब्रह्मांडीय स्तंभ के रूप में कार्य करते हैं। एकपाद शिव भारतीय शिल्प कला में एक दुर्लभ कृति है, इसे शिव की लीलामूर्ति भी माना जाता है।
शिव के इस रुप का दूसरा प्रकार ‘एकपाद–त्रिमूर्ति’ है। यह महादेव का ऐसा रूप है जिसमें ब्रह्मा और विष्णु का उद्भव शिव के शरीर से होता है पर इन तीनों का आधार एक चरण पर ही टिका होता है।
एकपाद त्रिमूर्ति (Credit: Google)
जबकि तृतीय प्रकार ‘त्रिपाद–एकपाद’ ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर की त्रिमूर्ति के समान है। यहां आप देख सकते हैं कि विष्णु और ब्रह्मा के पैर पूरी तरह से कर्ण–कुंडल–धारी शिव प्रतिमा से भिन्न हैं, हालांकि इन दोनों का एक पैर अभी भी एकपाद से जुड़ा हुआ है। लिंगोद्भव की भांति ही इस शिल्प में किरीट मुकुट धारण किए विष्णु और ब्रह्मा अपने निचले हाथों से शिव को प्रणाम करते हुए अंजलि मुद्रा में होते हैं, जबकि उनके ऊपरी हाथ दिव्य अस्त्रों को धारण करते हैं। विष्णु के ऊर्ध्व भुजाओं में शंख और चक्र तथा ब्रह्मा की भुजाओं में समिधा और कमंडल का चित्रण किया जाता है। एकपाद शिव के इस रुप का विवरण ‘उत्तर कारण आगम’ में भी उद्धत किया गया है।
त्रिपाद त्रिमूर्ति (Credit: Google)
यह तीनों प्रकार एक–दूसरे से निकटता से संबंध रखते हैं लेकिन ये तीनों रूप भिन्न भी हैं। दूसरे और तीसरे प्रकार में ब्रह्मा और विष्णु का उद्भव क्रमशः शिव के दाहिने और बायें पक्षों से देखा जा सकता है। एकपाद ब्रह्मांडीय स्तंभ का प्रतिनिधित्व करता है और शिव को सर्वोच्च देवता के रूप में चित्रित करता है। एकपादमूर्ति अक्सर तपस्वी, परिचारकों के साथ होते हैं। ऋषियों की उपस्थिति योग–साधना और तपस्या से उनके संबंध का प्रतीकात्मक चित्रण है।
शाक्त संप्रदाय के मंदिरों में पाए जाने वाले एकपाद शिव तांत्रिक महत्व रखते हैं, यह प्रतिमाएं शिव से अधिक भैरव के निकट हैं। इन्हें मुण्ड–माला जैसे आभूषणों से सजाया जाता है। योगियों ने कुछ विशिष्ट कारणों से चेतना के विशेष प्रकार के अनुष्ठानों में मददरूप इस प्रकार का निर्माण किया होगा। शिव के इस उग्र पहलू को ‘एकपाद–भैरव’ भी कहा जाता है। एकपाद भैरव प्रतिमा को कमंडल, अक्षमाला और कपाल धारण किए चित्रित किया जाता है।
कुछ तजज्ञों का मानना है कि शिव का यह रूप वेदों में वर्णित अज–एकपाद से विकसित हुआ है। उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के सोमेश्वर मंदिर में आमतौर पर अजैकपाद भैरव के रूप में जाने जाते हैं। दोनों ही मंदिर शाक्त पंथ, विशेष रूप से चामुंडा के साथ जुड़े हुए हैं। भैरव रूप में इन्हें एक पैर, चार हाथ और तीन आँखों के साथ दिखाया जाता है।
पल्लव–काल के महाबलीपुरम स्थापत्यों में एकपाद शिव का अनूठा चित्रण किया गया है जिसमें पंचमुख शिव के चेहरों में ही विष्णु एवं ब्रह्मा का चेहरा उत्कीर्ण किया गया है। हालांकि इस प्रतिमा में शिव के मात्र तीन चेहरों के दर्शन होते हैं, ऊर्ध्व और पार्श्व चेहरों के नहीं। इन्हें ‘महेश–एकपाद’ कहा गया है।
‘लिंग पुराण’ और ‘विश्वकर्मा–शिल्पशास्त्र’ में अज–एकपाद को एकादश रुद्र रूप में वर्णित किया गया है। शैव आगमों में इस स्वरुप को रुद्रों में से एक के रूप में वर्णित किया गया है। जबकि तांत्रिक शास्त्रों में इसी रूप को भैरव रूप माना गया है। विश्वकर्मा–शिल्पशास्त्र में षोडशभुज एकपाद का भी वर्णन प्राप्य है।
जटामुकुटधारी, आभूषित भगवान एकपाद की विशेषता उनका अनन्य एकल पैर है और इसे आमतौर पर चतुर्भुज, त्रिनेत्र तथा व्याघ्रचर्म धारण किए समभंग स्थिति में दर्शाया जाता है। ऊपरी भुजाओं में परशु और कृष्ण–मृग होता है, जबकि नीचे की भुजाएं अभय और वरद मुद्रा में उत्कीर्ण की जाती हैं। इस प्रतिमा के एकमात्र चरण को पद्मपीठ पर रखा जाता है।
एक ओर जहां लिंगोद्भवमूर्ति में ब्रह्मा, विष्णु और शिव का चित्रण एक दूसरे से भिन्न देवताओं के रूप में किया जाता है तो एकपाद शिव इन तीनों देवताओं का ऐक्य स्वरुप दर्शाता है। एकपाद शिव का यह एक पैर हमारी चर्चा को शिव के सबसे प्रचलित और मनोहर रूप “शिवलिंग” की ओर मोड़ता है। (क्रमशः)
(हिन्दू मंदिरों में शिव- प्रथम एवं द्वितीय भाग)
(आगे पढ़िए- चतुर्थ भाग)
(Featured image credit: Manish Srivastava)
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