उद्योगपर्व की इस कथा का वर्णन देवर्षि नारद ने दुर्योधन से किया था, यद्यपि दुर्योधन के समीप इस समय पर संधि करने का कोई अवसर शेष नहीं था। अप्रतिम ज्ञान प्रदान करने वाला यह प्रसंग क्षण मात्र हेतु ऋषि गालव और गरुड़ के ययाति से मिलन के पूर्व आता है परन्तु मानस पटल पर एक गहन प्रभाव अंकित कर देता है एवं पाठक को अनुभव कराता है कि इस प्रकार के गूढ़ विचार और परिप्रेक्ष्य के लिए मनुष्य को प्राचीन ऋषियों के चिंतन का ऋणी होना चाहिए।
ऋषि गालव ने अपने गुरु ऋषि विश्वामित्र को गुरु दक्षिणा के स्वरुप में आठ सौ विलक्षण अश्व प्रदान करने का कार्यभार लिया था, यद्यपि विश्वामित्र को गुरु दक्षिणा की लालसा नहीं थी। गुरु दक्षिणा प्रदान करने के इस महान कार्य में सुपर्ण नमक विशाल गरुड़ ने ऋषि गालव की सहायता करने दिया। इसके उपरांत वे दोनों मिलकर अश्व अनुसन्धान के उद्योग में निरत हो गए।
मार्ग पर उन्हें ऋषभ पर्वत पर शाण्डिली नामक ऋषिका का मनोरम आश्रम मिला, जहाँ ऋषिका शाण्डिली ने उन्हें कुछ समय हेतु आश्रय दिया। ऋषिका शाण्डिली कदाचित साधारण योगिनी नहीं थीं। वर्षों की घोर तपस्या ने उन्हें शारीरिक रूप से कृशकाय कर दिया था, परन्तु वे कठोर तप से प्राप्त हुई असाधारण शक्तियों से परिपूर्ण थीं। शाण्डिली ने ऋषियों को बलिहारण तथा विश्वेदेव यज्ञों के माध्यम से प्राप्त किया हुआ भोजन प्रदान किया। गालव तथा गरुड़ ने उनके प्रसाद से स्वयं को संतुष्ट किया, विश्राम किया और निंद्रामग्न हो गए।
पर्याप्त समय पश्चात् विशाल गरुड़ ने निंद्रा त्याग कर अपने संधान में पुनः निरत होने का निश्चय किया । परन्तु गरुड़ ने पाया कि उनका शरीर एकाएक भारहीन हो गया है एवं उनके विशाल पंख जो उन्हें सुदूर उड्डयन करने में सहायक थे, लोपित हो गए हैं। पंख अनायास ही म्लान हो गए गए थे और उनकी काया से पृथक हो कर भूमि पर गिर गए थे। यद्यपि उनके पास अपार शारीरिक शक्ति, सुदृढ़ पग तथा तीक्ष्ण चोंच थे, परन्तु शक्तिशाली पंखों की अनुपस्तिथि में गरुड़ एक असहाय गतिहीन जीवमात्र रह गए थे।
गालव भी गरुड़ की दयनीय स्थिति को देखकर अचंभित रह गए। गरुड़ स्वयं भी अविश्वास और गहन निराशा की स्थिति में थे। किंचित समय में सामान्य होकर विचारशील गालव ने प्रश्न किया,”हे महान गरुड़, आप ऐसी नर्कतुल्य अवस्था को कैसे प्राप्त हुए? हम दोनों के लिए आपकी इस स्थिति का क्या अर्थ है? हम अपने ध्येय के मार्ग पर किस प्रकार अग्रसर होंगे? क्या हम कभी ऋषि विश्वामित्र को गुरुदक्षिणा प्रदान कर पाएंगे? इसके उपरांत हमारा आगे का कार्य किस प्रकार संपन्न होगा?”
प्रारम्भ में गालव को स्वयं की ही चिंता थी परन्तु शीघ्र ही गालव को स्वयं से अधिक गरुड़ के लिए शोक होने लगा तथा वह गरुड़ को परामर्श देने लगे “हे महान गरुड़, आपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में धर्म विरुद्ध कुछ किया होगा। किंचितमात्र आपने अपने मन में एक अधर्मी कार्य के बारे में तो विचार किया ही होगा। कृपया चिंतन करें और मुझे अवगत कराएं, क्या आपने किसी प्रकार के दुष्विचार को अपने ह्रदय में स्थान दिया है? आपका यह विचार अवश्य ही किसी महान पातक से सम्बंधित होगा एवं मैं आपको अवगत करा देता हूँ कि आप इसके फलस्वरूप अपने विशाल दिव्य पंखों से सदैव के लिए वंचित हो जायेंगे। अवश्य ही आपके इस दुष्विचार ने आपको धर्म के मार्ग से च्युत कर दिया होगा।”
गरुड़ अकस्मात् आयी इस दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था से गहरे मानसिक आघात में थे। ऋषि गालव के ज्ञानपूर्ण शब्दों ने सूर्य के प्रकाश की भांति उनको प्राप्त हुए। ‘कौनसा विचार होगा जो धर्म को हानि कर सकता है?’ – यकायक गरुड़ को अपने दुष्कृत्य का आभास हुआ। “हे ऋषि गालव, मुझे उस त्रुटि की अनुभूति हुई है जो मैंने की है और यह वास्तव में एक महान अपराध है। यह दुर्भाग्य से सत्य है कि मैंने इन महान तपस्विनी के संबंध में एक गलत विचार धारण किया।”
उन्होंने दीर्घश्वास लिया तथा वर्णन आरम्भ किया। “मैंने विचार किया कि इन तपस्विनी को ऋषभ पर्वत पर जिस प्रकार की अत्यधिक बाधाओं को सहन करना पड़ता है, मुझे इनको यहाँ से दूरस्थ उस स्थान पर ले जाना चाहिए जहाँ के वह योग्य हैं। श्री विष्णु का वह महान निवास, महेश्वर का वह उच्च स्थान, वह प्रजापति ब्रह्मा का विश्राम स्थल, वह पवित्र स्थल जहाँ असंख्य यज्ञ होते हैं, मैंने विचार किया कि वही स्थान है जो उनके योग्य है। मैंने इन महान तपस्विनी को अपने शक्तिशाली पंखों के साथ एक ही उड़ान में दिव्यलोक में ले जाने का निश्चय किया था। इस प्रकार मेरे अनुसार मेरे शक्तिशाली पंख पुण्य के कार्य आ सकते थे।
मेरा आशय केवल उनको एक उच्चतर स्थान में पहुँचाने का था । हे ऋषि गालव, लेकिन अब मुझे ज्ञान हुआ कि मेरा विचार कितना अनर्थक था। मैं तुरंत उनके चरणों में गिर जाऊंगा, अपने अधर्मपूर्ण विचार को स्वीकार कर लूंगा। केवल वही मुझे मेरे दुख से मुक्त कर सकती हैं उसके उपरांत वह मेरे लिए मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं जैसा उनको उचित जान पड़े ”।
आपके महान एकाकी जीवन को देखते हुए, आपकी कठिनाई और आपके कठोर तपों को देखते हुए, मैंने एक ऐसे कार्य के विषय में विचार किया जो आपको प्रसन्न कर सके। मैंने आपको स्वर्गलोक के उच्च स्थान पर ले जाने का निश्चय किया । मेरी यह इच्छा आपके प्रति अपार भक्ति और सम्मान से उत्पन्न हुई थी, किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं था कि यह आपकी अपनी इच्छा के विरुद्ध हो सकता है। अतः मुझे नहीं की यह विचार भविष्य में दुष्परिणामों का द्योतक होगा या सद्परिणामों का। इसका अर्थ जैसा भी हो, मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। कृपया अपनी अनंत दया का भाव प्रकट कर मुझे मेरे दुख से मुक्त करें।
गरुड़ के इस आत्मबोध से शाण्डिली को अपार प्रसन्नता हुई। उन्होंने गालव तथा गरुड़ दोनों की ओरे दृष्टिपात करके कहा “हे सुपर्ण, आपको चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप अतिशीघ्र अपने महान पंखों को पुनः प्राप्त करेंगे। अपने छद्म कष्टों से स्वयं को मुक्त कर लीजिए। यद्यपि यह आपको ज्ञात होना चाहिए कि आपने वास्तव में एक अधर्म का कार्य किया है। कृपया सदैव ज्ञात रहे कि मैं अपने किसी भी अपमान को कभी क्षमा नहीं कर सकती हूँ“।
“जो कोई भी मुझे अपमानित करेगा , उसे इसका परिणाम तुरंत सहना होगा। यहां तक कि उनके उच्चतम प्रकृति के सभी पुण्य शून्य हो जाएंगे और व्यक्ति पाप से परिपूर्ण हो जाएगा। आप वास्तव में इस ऋषभ पर्वत पर एकांत में मेरे द्वारा सही जाने वाली कठिनाइयों की चिंता करते हैं। तपस्या के कारण यद्यपि मेरा रूप क्षीण हो चुका है, परन्तु मेरी कठोर साधना ने मुझे यह यह अपार शक्ति प्रदान की है। हे गरुड़, हमारे विचार और धर्म के कार्य हमेशा उचित तथा दिव्य फल प्रदान करते हैं।“
“हे पक्षियों के नरेश, आप अब स्वतंत्र हैं और जहां गमन करना चाहते हैं वहां जा सकते हैं, लेकिन यह विचार मन में सुदृढ़ कर लें कि आपको फिर कभी मुझे अपमानित नहीं करना है। यह सदैव ज्ञात रहे कि आप किसी भी स्त्री को अपमानित नहीं कर सकते। हे गरुड़, तुम अब पूर्व की भांति शक्तिशाली हो जाओगे और आकाश पर पुनः तुम्हारा एकछत्र राज हो जाएगा। ”
उसी क्षण गरुड़ के पंख पुनः अपनी अवस्था में लौट आये। शाण्डिली की कृपा से उसके पंखों में अब अधिक शक्ति आ गई थी। उनका आशीर्वाद लेकर गरुड़ पुनः गुरुदक्षिणा के लिए घोड़ों की तलाश में गालव के साथ प्रस्थान कर गए।
सर्वप्रथम, यह आख्यान वर्णन करता है कि किस प्रकार एक विचार उत्तम होने पर भी त्रुटिपूर्ण हो सकता है । द्वितीय शिक्षा हमें उन पापों का बोध करवाती है जो हम अपनी शक्ति के अहंकार में करते हैं। गरुड़ को अपने पंखों और शक्ति पर गर्व था, तथा इसी कारण से वे अन्य जीवों के प्रति हीनभावना रखते थे ।
तृतीय पाठ यह मिलता है कि वह यह भी नहीं विचार करते हैं कि शाण्डिली जी को स्वर्गलोक जाना अभीष्ट भी है या नहीं । तपस्विनी शाण्डिली की अपनी स्वतंत्रता, इच्छा और नियति है। गरुड़ को उनके निर्णय अपनी ओरे से नहीं लेने चाहिए, यह उनके तापसी व्यक्तित्व का घोर अपमान है। यही इस कथा की सबसे विशाल शैक्षिक अंतर्दृष्टि है – व्यक्तिविशेष की सहमति को अपने जीवन तथा दर्शन के केंद्र में रखना और वैचारिक स्तर पर भी उसे धर्म का केंद्र बनाना।
चतुर्थ शिक्षा यह मिलती है कि शाण्डिली जैसी महान तपस्विनी जहां चाहें वहां जीवनयापन कर सकती हैं। इसके लिए उन्हें गरुड़ की कृपादृष्टि की आवश्यकता नहीं है। परोपकार के कार्य केवल गहन आवश्यकता के फलस्वरूप ही होने चाहिए, न कि अपनी शक्ति के अहंकार से, चाहे वह कितनी ही दयाभावना के फलस्वरूप क्यों न हो।
आधुनिक समय हेतु उपरोक्त आख्यान में अचूक प्रासंगिकता है। जो हम एकपक्षीय रूप से दूसरों के लिए सही मानते हैं, उसे करने के हम किसी भी सीमा तक जा सकते हैं तथा इस प्रकार विचार और कार्य में उनकी सक्रिय भागीदारी के बिना, दान के अहंकार के फलस्वरूप हम उन्हें अपमानित करते हैं। उदार बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और परिवर्तन के तथाकथित कर्णधारों को इस कथा का पठन करने तथा अपने व्यवहार पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
The present article is a translation of Shivakumar GV‘s piece titled The Story Of Sage Shandili: Garuda’s Arrogance and Realization.
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