“मेरा टेसू यहीं खड़ा, खाने मांगे दहीबड़ा!
दहीबड़ा तो मिलता नहीं है, मेरा टेसू हिलता नहीं है!”
“झांझरिया लाल किवार, नागर बेले की।“
दशहरे से शरद पूर्णिमा के मध्य यदि आप किसी शाम को राजस्थान के भरतपुर जिले से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मथुरा अंचल के ग्रामीण क्षेत्रों में जाते हैं तो ये लोकगीत छोटे छोटे बालकों के मुख से अनायास ही सुनने को मिल जायेंगे। जहां बालकों के हाथों में रंग बिरंगी पन्नी से मढ़े हुए तीन टांगो वाले मिट्टी के योद्धा टेसू विराजमान रहते हैं वहीं बालिकाओं के हाथों को छोटे छोटे मटके के आकार की रंग बिरंगी झांझियां सुशोभित करती हैं जिनमे जलते हुए दीपक एक अलग आभा बिखेरते हैं।
झांझी-टेसू के खेल को खेला कैसे जाता है? कौन हैं ये झांझी-टेसू? कैसे ये बृजक्षेत्र के जनमानस का एक महत्वपूर्ण भाग बन गए? इनके त्योहार के पीछे की दंत कथा क्या है तथा बालकों के खेलने से उनका क्या संबंध है? टेसू को योद्धा रूप में दिखाने का क्या महत्व है? आइए ऐसे कई प्रश्नों पर विचार करते हैं ‘भारत के विस्मृत पर्व’ शृंखला के इस लेख में।
विजयादशमी, जिसे दशहरा नाम से भी जाना जाता है, टेसू-झांझी के उत्सव का प्रारंभिक दिवस होता है। चमकीले टेसू तथा सुशोभित झांझी अपने अपने घर आते हैं, संध्या को टेसू की बाहों में तथा झांझी के भीतर दिए जलाए जाते हैं। बालगोपाल गीत गाते हैं, नृत्य करते हैं। घर के वृद्धजन गीतमाला के गान में मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। यह हर्षोल्लास पूर्ण कार्यक्रम हर गोधूलि वेला को पांच दिन तक अनवरत चलता है।
बालक-बालिकाएं गलियों में टेसू तथा झांझियाँ उठाए उच्च स्वर में गीत पाठ करते हैं। त्योहार की परम्परा यह है कि गीत पाठ के बाद सभी बच्चों को पुरस्कार स्वरूप पैसे, टॉफी, मिठाई और ग्रामीण अंचलों में अनाज तक प्रदान किया जाए। बच्चों की टोलियां कंधे में थैला लटकाए यह अधिकारपूर्ण गीत गाए सुने जा सकते हैं:
टेसू आयो टेसन ते, रोटी खाई बेसन ते। पानी पियो कीच को, देदे अम्मा बीस को।।
यहां टेसू के घर पधारने के अवसर पर अम्मा से बीस रुपए की अधिकारपूर्ण याचना की गई है। बाल्यकाल की स्मृतियों का एक अभिन्न अंग रही टेसू-झांझी उत्सव की यह पंक्तियां अब विलुप्त होने लगी हैं।
जब टेसू और झांझी को पांच दिन समाप्त हो जाते हैं तो शरद पूर्णिमा की शाम उनकी विदाई का समय होता है। लड्डू, चना रेवड़ी के भोग के साथ गीतघोष करते हुए उनकी विदाई संपन्न की जाती है। विदाई की एक महत्वपूर्ण तथापि रहस्यपूर्ण रीति है, टेसू तथा झांझी का विवाह। घर की कोई वृद्धा सम्मानपूर्वक टेसू तथा झांझी को सात फेरे दिलवाकर विवाह संपन्न करती हैं। बिना विवाह, कुंवारा टेसू घर से विदा नहीं किया जा सकता। इसके उपरांत दोनों को विसर्जन हेतु बाहर ले जाया जाता है जहां उनको सर के ऊपर रखकर वहां से धरा पर शयन करा दिया जाता है।
पांच दिनों के इस त्योहार की जहां बच्चों को अत्यधिक उल्लास से प्रतीक्षा रहती है, वहीं वयोवृद्धगण अपने बाल्यकाल को पुनः जीवंत करने की आशामात्र से प्रफुल्लित हो उठते हैं।
प्रश्न उठता है कि झांझी और टेसू की उत्पत्ति कहां से हुई? यह पांच दिन की रीतियां तथा विदा पद्धति किस ओर इंगित करती है? टेसू को एक योद्धा के रूप में क्यों दिखाया जाता है?
यह कथा आरंभ होती है महाभारतकाल से, जब महाबली भीमसेन के समान ही बलशाली उनके पौत्र बर्बरीक भी उस महायुद्ध में भाग लेने चल दिए थे। किंवदंती है कि जाते समय उनका मिलन झांझी से हुआ, जिसने उनसे प्रेम प्रणय की प्रार्थना की। चूंकि बर्बरीक को युद्ध में भाग लेना था, उन्होंने झांझी को आश्वासन किया कि युद्धोपरांत वे अवश्य विवाह करेंगे। समय की नियति कुछ और ही थी, प्रभु श्रीकृष्ण की लीला के अनुसार बर्बरीक ने युद्ध से पूर्व ही वीरगति प्राप्त की तथा उनके शीश ने अमरत्व प्राप्त कर युद्ध का दर्शन किया। कालांतर में प्रभु श्रीकृष्ण के आशीर्वाद स्वरूप बर्बरीक कलयुग में श्री खाटू श्याम के नाम से विख्यात हुए जिनकी आज देश विदेश में महिमा व्याप्त है।
राजस्थान के पूर्वी क्षेत्र से लेकर सम्पूर्ण बृज क्षेत्र में बर्बरीक की यही कथा कालांतर में टेसू तथा झांझी के रूप में विख्यात हुई। यह पंचदिवसीय त्योहार टेसू की वीरता, रणकौशल तथा झांझी व टेसू के अपूर्ण प्रेम की कथा का गान है। बर्बरीक ने अपना विवाह ना होने की बात भी भगवान श्री कृष्ण के सामने रखी थी जिसके फलस्वरूप भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि प्रत्येक वर्ष सर्वप्रथम बर्बरीक का विवाह ही संपन्न होगा, उसके पश्चात ही अन्य विवाह कार्य प्रारंभ होंगे। चूंकि उनका विवाह संपन्न नहीं हो सका, यह सुनिश्चित किया जाता है कि विदा से पूर्व विवाह अवश्य संपन्न हो। जहां एक ओर टेसू के युद्धकौशल के गीत गाए जाते हैं, दूसरी ओर झांझी की अप्रतिम सुंदरता का गान होता है। टेसू की तीन टांगो पर रखा हुआ उनका सर भी बर्बरीक के तीन अजेय तीरों और उनके धड़ से अलग हुए मस्तक का प्रतीक हैं।
एक और किंवदंती, जो अल्प प्रसिद्ध है, कहती है कि टेसू दो अन्य योद्धाओं का भी प्रतीक है। ये दो योद्धा थे आल्हा और ऊदल। आल्हा तथा ऊदल बुन्देलखण्ड के सेनापति थे तथा अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। ऊदल महाराज पृथ्वीराज के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए, तथा उनके बड़े भाई आल्हा ने युद्धोपरांत गुरु गोरखनाथ के कहने पर नाथ पंथ स्वीकार कर लिया। आल्हा ऊदल की वीरगाथा जगनेर के राजा जगनिक द्वारा रचित आल्हखंड में पढ़ी और सुनी जा सकती हैं, इस काव्य में आल्हा ऊदल द्वारा लड़े गए ५२ युद्धों का तथा उनके राज्य महोबा पर किए गए षड्यंत्रों एवं आक्रमणों का वर्णन भी है। कहा जाता है कि विगत समय में बृज व बुन्देलखण्ड के बच्चे बच्चे को आल्हखंड मौखिक रूप से याद था।
टेसू के कई गीत आल्हा विधा में भी गाए जाते हैं, तथा आल्हखंड से सीधा ही टेसू को समर्पित हैं : “घोड़ा उड़ि गए आसमान में जैसे कला कबूतर खाय, हर हर करके ठाकुर बढ़ि गए जिनकी मार सही ना जाय।” आल्हा ऊदल की ही भांति कई बार टेसू को एक हाथ में कृपाण तथा दूसरे में ढाल लिए भी प्रदर्शित किया जाता है।
कदाचित टेसू तथा झांझी की कथा को बालकों में खेल के माध्यम से प्रचलित करने के पीछे उद्देश्य रहा होगा कि वे इन रणबांकुरों की वीरता, युद्धकौशल, शौर्य तथा झांझी के निष्कपट प्रेम से प्रेरणा लें, तथा अपने कुल एवं देश हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की शक्ति का आह्वान करें।
टेसू-झांझी उत्सव न केवल बच्चों के लिए एक क्रीड़ा तथा उल्लास का कारण बनता है, बल्कि सामाजिकता व समरसता की भावना को भी प्रोत्साहन देता है। जब सांझ को टेसू झांझी लेकर प्रफुल्लित बालकगण घर-घर परिक्रमा करते हैं तो वातावरण में उल्लास की मिठास बढ़ जाती है। परिवारजन गीत गाते बालगोपालों को देख कर एक अलग प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, तथा सम्पूर्ण घर स्वरों से गुंजायमान रहता है। यह पर्व कुंभकार तथा हस्तशिल्पी परिवारों को भी जीविकोपार्जन के साधन प्रदान करता है।
श्राद्धपक्ष प्रारम्भ होने पर जैसे-जैसे शरद ऋतु का आगमन इंगित होता है, पहले सांझी, उसके उपरांत नौरता तथा इनके बाद टेसू-झांझी का खेल संध्या के समय को गुंजायमान कर देते हैं। भारत के विस्मृत पर्वों की इस शृंखला का सांझी तथा नौरता जैसे अन्य पर्व भी भाग होंगे।
आज के नगरीय जीवन तथा एकल परिवार वाले समय में टेसू-झांझी उत्सव को कदाचित विस्मृत कर दिया गया है। नगरीय प्रतिवेश में जहां एक ओर हमारी संस्कृति कहीं पीछे छूट गई है वहीं दूसरी ओर पारिवारिक संस्थान में एक साथ बिताए जाने वाले समय के अभाव के कारण नई पीढ़ी शनैः शनैः सांस्कृतिक धरोहर से दूर होती जा रही है। आधुनिक समय की वेगवान जीवनशैली भी इसका एक कारण है, जिसमें एक साथ बैठने, कथा-गीत श्रवण-वर्णन करने का समय क्षीण होता जा रहा है।
टेसू-झांझी केवल बच्चों द्वारा किया जाने वाला स्वांग मात्र नहीं है, इसमें भारतभूमि के कई योद्धाओं की वीरगाथायें समाहित हैं। यह पर्व हमारी नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का, अपने इतिहास से परिचय करवाने का, वीरता का पाठ प्रदान करने का तथा सामाजिक कलाएं सिखा सकने का अनमोल अवसर है। परिवार के साथ में अर्थपूर्ण समय व्यतीत करने का पर्व है टेसू-झांझी।
इसके अतिरिक्त टेसू-झांझी की परम्परा प्रेम तथा विवाह का महत्व भी बालसुलभ माध्यम से हमारी नई पीढ़ी को सिखाती है, उनके मन में विवाह की पवित्रता के विचारों को उन्नत करती है। टेसू-झांझी का पर्व एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आयोजन है जो उत्तर भारत की समृद्ध लोक संस्कृति को दर्शाता है। टेसू-झांझी जैसे उत्सव हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिनको संजोकर रखना तथा इनको जनमानस में पुनः लोकप्रिय बनाने के प्रयास करना हमारा कर्तव्य है। आशा है कि हमारी आगामी पीढ़ियां शौर्य, बलिदान तथा प्रेम के प्रतीक इस पर्व को संजोकर रखेंगी।
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