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शिव-सती प्रसंग : प्रेम, त्याग, मोह और नश्वरता की अमर गाथा

देवी सती और प्रभु शिव की कथा दो मौलिक ब्रह्मांडीय शक्तियों शिव तथा शक्ति के शाश्वत मिलन का प्रतीक है। जिस प्रकार हर पौराणिक आख्यान में असंख्य सूक्ष्म शिक्षाएं निहित हैं, शिव-सती प्रसंग भी ऐसे अनेक सन्दर्भों का स्त्रोत है। यह ऐतिहासिक गाथा ऐसे पाठों का भी बोध कराती है जो मनुष्यमात्र की मेधा से परे हैं, तथा आज भी मनन योग्य हैं एवं मानव को श्रेष्ठतर कार्य करने को प्रेरित करते हैं। आइये आज ऐसे ही कुछ सूक्ष्म परन्तु बोधगम्य रहस्यों पर प्रकाश डालते हैं।

शिव-सती कथा के इस प्रसंग का आरम्भ होता है सती के पिता दक्ष प्रजापति द्वारा एक भव्य यज्ञ के आयोजन से। दक्ष द्वारा भगवान शिव को इस पवित्र अनुष्ठान में आमंत्रित न किया जाना शिव के लिए गंभीर अपमान का द्योतक था। सती, जो शिव के प्रति अपने मन में अथाह श्रद्धा रखती थीं, इस अपमान को सहन न कर सकीं तथा उन्होंने आत्मदाह कर लिया। दुःख और क्रोध से अभिभूत होकर भगवान शिव ने सती की मृत देह को अपनी भुजाओं पर धारण कर लिया तथा विनाशकारी नृत्य तांडवआरम्भ कर दिया।

तांडव की यह मुद्रा समस्त ब्रह्माण्ड के विनाश का कारण बन सकती थी, अतः भगवान विष्णु ने हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया। प्रभु विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के ५१ खंड कर दिए तथा उनको भारतवर्ष, जो हिन्द महासागर से हिमालय के मध्य विस्तृत है, के विभिन्न भागों में प्रसारित कर दिया। ये ५१ खण्ड जिन स्थानों पर गिरे, उन ५१ स्थानों को शक्तिपीठों के नाम से आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में जाना जाता है। उत्तर में हिंगलाज माता (बलोचिस्तान) से दक्षिण में शंकरी देवी (श्रीलंका) तक शक्तिपीठों का विस्तार है।

यह ५१ शक्तिपीठ स्वयं में प्रेरणादायिनी तथा रहस्यमयी हैं। जहाँ एक ओर माता सती  की जिह्वा से प्रकट हुई ज्वाला जी शक्तिपीठ में निरंतर एक अज्ञात स्रोत वाली ज्वाला प्रज्ज्वलित रहती है, वहीं दूसरी ओर कामाख्या देवी मानव को जन्म देने वाले गर्भ के मूर्त रूप में विराजमान हैं। शक्तिपीठों के समान ही, उनकी उत्पत्ति की कथा भी रोचक है तथा मन को चिंतन हेतु उद्धृत करती है।

क्या कारण था जिसने देवी सती को आत्मदाह जैसा भयानक निर्णय लेने को विवश कर दिया? प्रभु शिव, जो स्वयं आदियोगी हैं, जो काम तथा मोह के नाशक माने जाते हैं, कौनसी शक्ति थी जिसने महादेव के मन में ऐसा मोह उत्पन्न कर दिया की उन्होंने तांडव नृत्य जैसा विभीषक निर्णय ले लिया? प्रभु विष्णु के सुदर्शन चक्र द्वारा देवी सती की देह को छिन्न-भिन्न करने का क्या सांकेतिक अर्थ है? देवी सती के शरीर के खण्डों से पुनः शक्तिपीठों की उत्पत्ति किस ओर इंगित करती है? आइये इन्हीं सूक्ष्म प्रश्नों पर विचार करते हैं।

देवी सती का भगवान शिव के प्रति प्रेम केवल दैहिक या भौतिक प्रेम नहीं था, अपितु जन्म-जन्मांतर के सत्कर्मों का प्रादुर्भाव था। यह प्रेम अथाह त्याग, समर्पण तथा निःस्वार्थ स्वीकरण की भावना से ओतप्रोत था। देवी सती का जन्म एक प्रजापति के यहाँ हुआ था, वह महलों में पली-बढ़ी थीं एवं उनके लिए हर प्रकार की सुख सुविधा क्षण भर में उपलब्ध थी, तथापि उन्होंने भगवान शिव के प्रति समर्पित होने का निर्णय लिया। भगवान शिव स्वयं संसार से पूर्ण विरक्त तथा कैलाश पर्वत पर कष्टपूर्ण परिस्थितियों में निवास करते हैं, तथा यहाँ सती को हर प्रकार की सुख सुविधा की अल्पता थी, उन्होंने शिव के लिए यह दुष्कर निर्णय सहर्ष ले लिया।

केवल प्रेममात्र की शक्ति से ही शिव ने सती का वरण नहीं किया था, इसके लिए सती ने कठोर तपस्या भी की। बारम्बार शिव द्वारा अस्वीकृत करने पर भी उन्होंने अपने प्रण को नहीं त्यागा तथा अंत में शिवजी की अर्धांगिनी बन कर ही उनकी तपस्या पूर्णफलित हुई। देवी सती ने मृत्युलोक में जन्म लिया था तथा उनके अनुसार सर्वोत्तम गति को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय था शिवजी को पतिरूप में वरण करना। शिवजी के प्रति सती का समर्पण उच्चतम कोटि का था। वे शिवजी को वरण करने के लिए अपने शक्तिमान पिता के विरुद्ध उठ खड़ी हुईं, तथा अंत तक उन्होंने अपने समर्पण भाव को सर्वोच्च रखते हुए देहत्याग कर दिया।

सती के प्रेम की तीसरी सबसे बड़ी भावना थी निःस्वार्थ स्वीकरण। शिवजी जो श्मशान वासी तथा भूतगणों के मध्य रहने वाले विरक्त योगी के रूप में विख्यात हैं, उनको सहर्ष स्वीकार कर लेना एवं अपने आप को उनके निबंधनों के अधीन कर देना समर्पण की शक्तिशाली भावना का सचित्र रूपण है। प्रेम के सम्बन्ध में त्याग, समर्पण तथा निःस्वार्थ स्वीकरण की इस भावना का ज्ञान मानव को उचित मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने की शक्ति रखता है।

अगले प्रश्न पर आते हुए विचार करते हैं कि महादेव जैसे विरक्त योगी को किस शक्ति ने सती के मृत शरीर को अंचल में लेकर तांडव करने पर विवश कर दिया? अंततः शिवजी जैसे तपस्वी को विवाह की आवश्यकता ही क्या थी? देवी-उपासक शाक्त परंपरा में, देवी सती को ऊर्जा और रचनात्मक शक्ति का स्त्रोत और शिव को पूर्ण करने वाली चेतना माना जाता है। जिस प्रकार शिव आदियोगी हैं, देवी सती आदिशक्ति का मूर्त स्वरुप हैं। देवी सती की कठोर तपस्या तथा समर्पण ने उनका वास्तविक आदिशक्ति स्वरुप शिवजी के समक्ष प्रकट कर दिया था, तथा शिवजी का पाषाण-कठोर हृदय पुष्प सामान कोमल हो गया।

शिव-सती विवाह एक विवाहमात्र न होकर आदियोगी तथा आदिशक्ति का सम्पूर्ण मिलन था। जिस प्रकार से एक कुशल योद्धा को ही अस्त्र-शस्त्र शोभा देते हैं, एक वास्तविक योगी को ही शक्ति शोभायमान करती है। आज के युग में भी हम कई ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के उदहारण देख सकते हैं जो योग में विश्वास करते हैं। जब योग तथा शक्ति का मिलन होता है तो वहां एक नवसृष्टि के सृजन की संभावनाएं जन्म लेती हैं। योग तथा शक्ति के इस मिलन ने ही महादेव को सम्पूर्णता का अनुभव दिया था, तथा सती के आत्मदाह के फलस्वरूप योग-शक्ति के वियोग को शिव का सरल हृदय सहन नहीं कर सका जिसके कारण उन्होंने रौद्र रूप धारण किया।

प्रभु विष्णु के सुदर्शन चक्र द्वारा देवी सती की देह को छिन्न-भिन्न करने का अर्थ कदाचित दार्शनिक तथा गूढ़ है। विष्णु का सुदर्शन चक्र समय के चक्र का प्रतीक है, जो अंततः भौतिक शरीर का विनाश करके काल के नियमों का प्रवर्तन करता है तथा हर प्रकार के मोह को नष्ट कर देता है। जिस तरह साधारण मनुष्यों को काल की विनाशकारी प्रवृत्ति का आभास देने हेतु समय के चक्र की आवश्यकता होती है, उसी तरह देवी सती के भौतिक अंशों के मोह को विस्मृत करवाने तथा नश्वरता के सिद्धांत की पुनर्स्थापना करने हेतु के लिए महादेव को विष्णु के चक्र की आवश्यकता हुई।

जैसा कि पूर्वविदित है कि देवी सती ने मृत्युलोक में जन्म लिया था, तथा हर जीवित प्राणी का अंत निश्चित है। समय के चक्र के साथ ही काल का चक्र भी समान रूप से गतिमान रहता है। जिस प्रकार से यह गति निश्चित है, उसी प्रकार से हर सांसारिक वास्तु तथा जीव की आयु का क्षीण होना तथा काल के द्वारा अपनी अंतिम गति को प्राप्त हो जाना भी निश्चित है। काल की इस गति पर किसी नश्वर प्राणी का कोई नियंत्रण नहीं, यह समझना बहुत दुष्कर है। भौतिक देह की नश्वरता का यह स्पष्ट परन्तु गूढ़ और पीड़ादायक विचार सभी के लिए चिंतन योग्य है।

इसके अतिरिक्त यह प्रसंग शिक्षा प्रदान करता है कि जब तीनों लोकों के विनाशक, श्मशान में निवास करने वाले देवों के देव महादेव भी भौतिकता की नश्वरता के सिद्धांत को भुलाकर मोहपाश में उलझ सकते हैं तो मनुष्यमात्र का मोह में जकड़े रहना स्वाभाविक है। मानव को चाहिए कि वह कालचक्र की गति का सदैव स्मरण रखे तथा मानवजन्म की नश्वरता को ध्यान में रख कर मृत्योपरांत सद्गति के लिए सदैव प्रयत्न करे। मृत्योपरांत सद्गति भगवन्नाम स्मरण, धार्मिक विचार तथा सत्कर्मों में रूचि रखने से ही संभव है।

अंततः देवी सती के शरीर के खण्डों से पुनः शक्तिपीठों के प्रादुर्भाव पर विचार करते हैं। भौतिक अवशेषों से शक्तिपीठों की उत्पत्ति बताती है कि किस तरह पंचतत्व, जिससे मानव देह का निर्माण होता है, पुनः पंचतत्व में मिल जाता है, तथा नए रूप में स्वयं को प्रकट करता है। मृत्युलोक के जीवों के लिए शक्तिपीठ देवी सती के अमर प्रेम, निःस्वार्थ त्याग तथा कठोर निश्चयपूर्ण तप का प्रतीक हैं, जिससे मानवता सदैव स्वयं को सन्मार्ग पर तत्पर रखने के लिए प्रेरित रखेगी।

शिव-सती प्रसंग की कथा जहाँ एक ओर भौतिक विश्व तथा मानव जीवन की नश्वरता का चित्रण करती है, वहीं दूसरी ओर प्रेम की अथाह शक्ति तथा दृढ़निश्चय संकल्प की महिमा का व्याख्यान प्रदान करती है। वर्तमान युग में उपर्युक्त कथा अधिक प्रासंगिक तथा मनन-चिंतन योग्य सिद्ध होती है। आइये शरदीय नवरात्रि के इस पावन पर्व पर संकल्प लेते हैं कि माता सती की शक्ति से हम प्रेरणा लें एवं निष्काम प्रेम तथा दृढ़निश्चय भक्ति के मार्ग को अपनायें, तथा साथ मिलकर आदरपूर्वक उच्चारण-मनन करें:

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

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