कदाचित समय पूर्व सावित्रीबाई फुले जी के जन्मदिवस पर चारोओर से उन्हें प्राचीन तथा आधुनिक भारत की प्रथम शिक्षिका की उपाधि देते हुए बधाई दी गयी थी। इंटरनेट तथा वैकल्पिक इतिहास के इस युग में तथ्यों को गुप्त रखना जितना सरल है, उससे अधिक सरलता से उनको प्रकट किया जा सकता है। आइये राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर प्राचीन भारत में महिला शिक्षा की पुरोधा रही कुछ महान शिक्षिकाओं तथा उनके योगदान पर दृष्टिपात करते हैं।
भारतवर्ष में आदिकाल से ही नारीशक्ति का आदर तथा उपासना की गयी है। हमारे वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों तथा स्मृतियों में इस तथ्य का बारम्बार उल्लेख मिलता है। गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, स्वाहा आदि इनमें कुछ प्रमुख नाम हैं।
ब्रह्मवादिनी गार्गी तथा ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य महाराज जनक के प्राङ्गण में प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था, जिसमें अंतरिक्ष तथा समय जैसे गूढ़ वैज्ञानिक विषयों पर भी चर्चा हुई। गार्गी – याज्ञवल्क्य के इस संवाद के फलस्वरूप बृहदारण्यक उपनिषद् की ऋचाओं का निर्माण हुआ। ऋषि याज्ञवल्क्य दर्शन के प्रखर विद्वान थे, तथा मैत्रेयी उनकी द्वितीय पत्नी थीं। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य के साथ आत्मज्ञान पर दीर्घ चिंतन किया था, तथा पूर्ण आत्मज्ञान को प्राप्त भी किया। सहस्त्रों वर्ष पहले मैत्रेयी ने अपनी विद्वत्ता से न केवल स्त्री जाति का मान बढाया, बल्कि उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि पत्नी धर्म का निर्वाह करते हुए भी स्त्री ज्ञान अर्जित कर सकती है।
लोपामुद्रा महर्षि अगस्त्य की पत्नी तथा अपने युग की एक महान दर्शनशास्त्र की ज्ञाता थीं। ऋग्वेद में लोपामुद्रा और महर्षि अगस्त्य के बीच हुए संवाद का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त यज्ञ और पौराणिक ज्ञान में लोपामुद्रा का काफी नाम था। उन्होंने ललित सहस्त्रनाम का प्रचार-प्रसार किया। स्वाहा दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं जिनका विवाह स्वयं अग्निदेव से हुआ था। वर्तमान समय में भी जब अग्निदेव को यज्ञ द्वारा हविष्य का आह्वान दिया जाता है तो स्वाहा द्वारा ही आहुति पूर्ण की जाती है।
प्राचीन भारत में जहाँ संस्कृत शिक्षकों की पत्नियों को उपाध्यायन की उपाधि प्राप्त थी, वहीं संस्कृत शिक्षिकाओं को उपाध्याया सम्बोधित किया जाता था। यूंकि शिक्षिकाओं हेतु एक विशिष्ट सम्बोधन का प्रयोग होता था, इससे इंगित होता है कि शिक्षिकाओं की संख्या पर्याप्त मात्रा में रही होगी। मध्यकालीन भारत में भी शिक्षाक्षेत्र में नारीशक्ति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, आइये आज हम उनके बारे में जानते हैं।
आठवीं तथा नौंवी शताब्दी ईसवीं में विज्जिका, विकटानिताम्बा और अवंतीसुंदरी ने संस्कृत काव्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया। महाकवि राजशेखर, अनेक सिद्ध राजकुमारियों, कवयित्रियों, अभिजात वर्ग की बेटियों और महिला दरबारियों से मिले और उन्होंने लिखा कि ज्ञान तथा संस्कृति का मानव की आत्मा से सम्बन्ध है, ना कि उनके स्त्री या पुरुष होने से। उन्होंने अपनी काव्य-मीमांसा में अपनी पत्नी अवंतीसुंदरी के विचारों को तीन बार उद्धृत किया, जिससे इस धारणा को बल मिलता है कि वे स्वयं काव्यशास्त्र की एक निपुण ज्ञाता थीं।
कर्नाटक में रानियों और राजकुमारियों के भव्य उदाहरण हैं, जिन्होंने न केवल विभिन्न ललित कलाओं में बल्कि प्रशासन के क्षेत्र में भी खुद को प्रतिष्ठित किया। चालुक्य वंश की महारानी अत्तिमाब्बे और महारानी सोवालादेवी शिक्षा-दीक्षा एवं ज्ञान की महान संरक्षिकाएँ थीं। जिस युग में युद्ध तथा तलवार का शासन था, इन शिक्षाविद महिलाओं ने अनेक अनुदान देकर शिक्षा का प्रसार करने की चेष्टा की। अत्तिमाब्बे ने कवि रन्ना का संरक्षण किया, पोन्ना को लोकप्रिय बनाया था तथा उनके संती-पुराण की एक सहस्त्र प्रतियां निःशुल्क वितरित करवायीं थीं।
कर्नाटक के विभिन्न मंदिरों के विस्तृत सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि यहाँ की स्थापत्य कला में शिक्षित और निपुण महिलाओं का बहुत अच्छी तरह से प्रतिनिधित्व किया गया है। जहाँ विजयनगर काल की एक मूर्ति में एक महिला छात्रा अपने शिक्षक से एक वाद्य यन्त्र सीखने में तल्लीन है वहीं एक अन्य मूर्ति में गाँव की एक वृद्ध महिला वैद्या अपने युवा रोगी की नब्ज की जांच करने में व्यस्त प्रतीत होती हैं। बेलूर की होयसाल मूर्तिकला में एक लेखिका को सुंदरता से चित्रित किया गया है। कुश्ती करने वाली महिलाओं का एक चित्र हम्पी मंदिर के एक स्तंभ पर उकेरा गया है। इसी तरह की मूर्तियां कर्नाटक के प्रायः सभी मंदिरों में प्राप्य हैं।
डोमिंगो पेस, जिन्होंने सोलहवीं शताब्दी ईसवीं में विजयनगर का भ्रमण किया था, इन मूर्तियों को साक्ष्य रखते हुए यह प्रमाणित करते हैं कि ऐसी महिलाएं थीं जो मल्लयुद्ध कर सकती थीं, वाद्ययंत्र बजा सकती थीं और खड्ग कला में निपुण थीं। नूनिज़, जो पेस के पश्चात् विजयनगर आयीं, लिखती हैं कि राजवंशी सेवा में ऐसी महिलाएँ कार्यरत थीं जो मल्लयुद्ध कर सकती थीं, जो ज्योतिषविद्या में निपुण थीं, तथा ऐसी महिलाएँ थीं जो राज्य के सारे आय-व्यय का सारा लेखा-जोखा रखती थीं। अन्य पदों पर ऐसी महिलाएं कार्यरत थीं जिनक कर्तव्य राज्य के सभी आतंरिक व बाह्य घटनाक्रमों अभलेखबद्ध करना था। ऐसी लेखिकाएं भी थीं जिनकी पुस्तकों की तुलना विश्वपटल पर की जा सके।
होती विद्यालङ्कार: होती विद्यालङ्कार का जन्म सोलहवीं शताब्दी ईसवीं में बंगाल में हुआ था। आप बाल्यकाल से ही ज्ञान पिपासु तथा विज्ञान में रूचि रखती थीं। अल्पावस्था में ही वैधव्य के दुःख को सहन करने वाली होती ने गहन विद्याद्ययन किया, तथा वाराणसी में एक पूर्ण रूप से महिलाओं को शिक्षा प्रदान करने वाले विद्यालय की स्थापना की जहाँ काव्य, विधि व्यवस्था, गणित तथा आयुर्वेद का ज्ञान प्रदान किया जाता था। इस विद्यालय को वैदिक चतुष्पाठी की उपाधि प्राप्त थी, जहाँ चार मुख्य विषयों की उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी।
सुबल चंद्र मित्र अपनी पुस्तक में लिखते हैं “अन्य पुरुष विद्वानों की भांति होती विद्यालङ्कार की दृष्टि भी वैज्ञानिकता से परिपूर्ण थी, तथा वे सभी प्रकार के शास्त्रों से जुड़े तर्क-वितर्कों में भाग लेती थीं।” एक समकालीन अंग्रेज लेखक विलियम वार्ड ने १८११ में प्रकाशित अपनी पुस्तक में होती विद्यालंकार के बारे में लिखा है: “समय के साथ होती ने दूसरों को पढ़ाना शुरू किया, और पूरे देश से कई विद्यार्थियों ने उनसे विद्या ग्रहण की। वह अब सार्वभौमिक रूप से विद्यालङ्कार के रूप में जानी जाती हैं।” शिक्षाक्षेत्र में आपके अथक योगदान के फलस्वरूप ब्राह्मण शिक्षकों ने होती को ‘विद्यालङ्कार’ उपाधि से सम्मानित किया।
हरकुंवर सेठानी: हरकुंवर सेठानी अहमदाबाद के प्रसिद्ध सेठ हठीसिंह की धर्मपत्नी थीं। आप मूलतः घोघा की निवासी थीं तथा विवाह के मात्र १४ वर्ष पश्चात् २६ वर्ष की उम्र में आपको वैधव्य का दुःख सहन करना पड़ा। अहमदाबाद के फतसनी पोल में हंसनाथजी का देरासर और तक्षशाल पोल में धर्मनाथ मंदिर का निर्माण हरकुंवर सेठानी ने करवाया था। हरकुंवर सेठानी की शैक्षिक गतिविधियों में भी गहरी रुचि थी। वह गुजरात वर्नाक्युलर सोसाइटी की स्थापना के समय से ही उससे जुड़ी हुई थीं। विधवा शिक्षा के लिए उन्होंने सर्वप्रथम युवा विधवाओं और युवतियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया था। १८५० ईसवीं में उन्होंने विशेष रूप से महिलाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की, जिसका प्रशासन उन्होंने गुजरात वर्नाक्युलर सोसाइटी को सौंप दिया।
विस्मय की बात यह है कि वह खुद कभी विद्यालय नहीं गयीं थीं और न ही उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त की। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे महान प्रयासों के कारण हरकुंवर जी की ख्याति इंग्लैंड तक पहुँच गयी थी। पति हठीसिंह जी की मृत्यु के उपरांत, हरकुंवर जी ने अपने पति का व्यवसाय जारी रखा और विदेशों के साथ अपने व्यापारिक संबंध भी जारी रखे। इस निरक्षर महिला के ह्रदय में कितना दृढ़ आत्मविश्वास तथा संसाधनशीलता रही होगी!
सविनिर्मदि: सविनिर्मदि दसवीं शताब्दी ईसवीं की कन्नड़ शिक्षाविद थीं। इनका नाम सामान्य रूप से अपरिचित है, तथा आपके बारे में मुख्य तथ्य कोलार के निकट पायी गयी एक उत्कृष्ट मूर्तिकला से प्राप्त होते हैं। उपदेशात्मक मुद्रा में निर्मित यह पाषाण मूर्ति सविनिर्मदि का बहुत सुन्दर चित्रण करती है, उनके बाएं हाथ में ताड़पत्र की एक कन्नड़ पुस्तक है। मूर्तिकला के ऊपर, दसवीं शताब्दी ईसवीं के कन्नड़ अक्षरों में दो-पंक्ति का शिलालेख उत्कीर्णित है जिसमें वर्णित है कि नागर्जुनय्या और नंदीग्याब्बे की पुत्री सविनर्मदी सभी शास्त्रों में निपुण थीं।
ध्यान देने योग्य तथ्य है कि केवल उनके माता-पिता के नाम का उल्लेख किया गया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन्होने कभी विवाह नहीं किया था। संभवतः जीवन पर्यन्त शास्त्रों के ज्ञान तथा उनकी शिक्षा में स्वयं को तल्लीन किया होगा। निश्चित रूप से उनका समाज एवं क्षेत्र की जनता उनके शास्त्र ज्ञान द्वारा लाभान्वित हुई होगी। चूंकि यह स्मारक राजसी शिलालेख का भाग नहीं है, यह माना जाता है कि क्षेत्र के आभारी जनों तथा उनके समाज ने सविनिर्मदि के स्मृतिस्वरुप इस पाषाण मूर्तिकला का निर्माण किया।
सविनिर्मदि की ही भांति, अगणित महिला शिक्षाविद इतिहास के पृष्ठों में कहीं लुप्त हो गयी होंगी। आज हमारा कर्त्तव्य है कि हम मुड़कर अपने गौरवशाली इतिहास पर पुनः दृष्टि डालें, तथा अपने इतिहास से प्रेरणा लें। एक उज्जवल भविष्य को अलंकृत करने हेतु एक भव्य इतिहास से श्रेष्ठ स्त्रोत मिलना संभव नहीं।
Sources:
Isvar Chandra Vidyasagar, A story of his life and work ( Subal Chandra Mitra 1902)
https://en.wikipedia.org/wiki/Hutheesing_family
https://www.kamat.com/database/articles/education_of_women.htm
https://www.kamat.com/kalranga/women/savinirmadi.htm
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