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श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है:
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।
संपूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ।
सिद्धों में जो स्वयं नारायण हैं, ऐसे श्रेष्ठ सिद्ध महर्षि कपिल जी का जन्म इसी श्री स्थल में हुआ। श्री कपिल मुनि जी ब्रह्मा जी के पुत्र श्री कर्दम ऋषि एवं स्वायम्भुव मनु जी की पुत्री देवहुति जी के पुत्र हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में श्री कर्दम ऋषि जी की कथा आती है। सृष्टि के निर्माण और वृद्धि के लिए ब्रह्मा जी ने श्री कर्दम मुनि को संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी। उनकी आज्ञा प्राप्त कर श्री कर्दम मुनि ने अपने अनुरूप स्वभाव वाली एवं गृहस्थ धर्म के पालन में सहायक कन्या से विवाह के उद्देश्य से श्री पुरुषोत्तम भगवान जी की दस सहस्त्र वर्षों तक कठिन तपस्या की।
प्रजाः सृजेति भगवान्कर्दमो ब्रह्मणोदितः।
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्राणां समा दश।।
जब ब्रह्मा जी ने भगवान कर्दम को आज्ञा दी की तुम संतान की उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हज़ार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की।
तावत्प्रसन्नो भगवान्पुष्कराक्षः कृते युगे।
दर्शयामास तं क्षत्तः शाब्दं ब्रह्म दधद्वपुः।।
तब सत्ययुग के आरंभ में कमलनयन भगवान श्री हरी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्द्ब्रह्म्य स्वरुप से मूर्तिमान होकर दर्शन दिए। यहाँ श्री हरी जी के रूप का वर्णन श्री वेदव्यास जी ने ठीक उसी प्रकार से किया है, जैसा श्री रामचरितमानस जी में श्री तुलसीदास जी ने भगवान श्री पुरुषोत्तम जी का रूप वर्णन किया है।
स तं विरजमर्काभं सितपद्मोत्पलस्रजम्।
स्निग्धनीलालकव्रात वक्त्राब्जं विरजोऽम्बरम्।।
किरीटिनं कुण्डलिनं शङ्खचक्रगदाधरम्।
श्वेतोत्पलक्रीडनकं मनःस्पर्शस्मितेक्षणम्।।
विन्यस्तचरणाम्भोजमंसदेशे गरुत्मतः।
दृष्ट्वा खेऽवस्थितं वक्षः श्रियं कौस्तुभकन्धरम्।।
भगवान की वह भव्य मूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वे गले में श्वेत कमल और कुमुद के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावली से सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे। सिरपर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और कर-कमलों में शंख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथ में क्रीडा के लिए श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभु की मधुर मुस्कान भरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी। उनके चरणकमल गरुड़ जी के कंधो पर विराजमान थे तथा वक्ष:स्थल में श्री लक्ष्मी जी और कंठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी।
श्री कर्दम मुनि जी दोनों हाथों को जोड़कर प्रेमपूर्वक और सुमधुर वाणी में भगवान जी की अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे।
यस्मिन्भगवतो नेत्रान्न्यपतन्नश्रुबिन्दवः।
कृपया सम्परीतस्य प्रपन्नेऽर्पितया भृशम्।।
तद्वै बिन्दुसरो नाम सरस्वत्या परिप्लुतम्।
पुण्यं शिवामृतजलं महर्षिगणसेवितम्।।
सरस्वती के जल से भरा हुआ यह बिन्दुसरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दम के प्रति उत्पन्न हुई अत्यंत करुणा के वशीभूत हुए भगवान के नेत्रों से आँसुओं की बूंदे गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृत के समान मधुर है, तथा महर्षि गण सदा इसका सेवन करते हैं।
सन्दर्भ: –
- श्रीमद्भागवत गीता साधक संजीवनी – स्वामी रामसुखदास – गीताप्रेस गोरखपुर
- श्रीमद्भागवत महापुराण – गीताप्रेस गोरखपुर
- महाभारत खंड ६ – गीताप्रेस गोरखपुर
Image Credit: clearholidays
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