तीसरे भाग में आपने यहाँ जरत्कारु मुनि और उनके वंश के ऋषियों के बीच संवाद को पढ़ा।
जरत्कारु तब दुःखित मन से अपने सहोदर वासुकि के निकट गयीं और सब कुछ अभिज्ञ किया। वासुकि चिंतित हुए, “हे भगिनी, मुझे सर्वदा ही ज्ञात था कि तुम्हारा पति इस मार्ग का अनुसरण करेगा । परन्तु तुम्हें ज्ञात है कि मेरा उद्देश्य वर्षों से जरत्कारु की प्रतीक्षा करना,और उनसे तुम्हारा विवाह करना था। हमारे पूरे कुल की शापमुक्ति तुम्हारे पुत्र पर निर्भर है। मुझे ज्ञान है कि प्रत्यक्षतः आपसे यह प्रश्न करना मेरे लिए उचित नहीं है परन्तु कृपया मुझे उत्तर दो, क्या तुम गर्भवती हो? क्या तुम उस पुत्र को जन्म दोगी जो हमें इस शाप से मुक्त करेगा? मैं तुम्हारे पति का अनुसरण करके उनसे उत्तर मांगने को उत्सुक हूं, परन्तु वह अपने क्रोध में हमें एक और शाप दे सकते हैं । मेरी प्रार्थना है मुझे विवरण दो और मुझे इस चिंता से मुक्त करो”। जरत्कारु के संकोचपूर्ण स्वभाव ने सब कुछ बता दिया था। “भ्राताश्री, आपको चिंता नहीं करनी चाहिए। मुझे भी इस बात की उतनी ही चिन्ता थी जितनी आपको, अतः मैंने यह उनकी प्रस्थान वेला में उनसे प्रत्यक्षतः पूछा । उन्होंने पुष्टि की कि मैं वास्तव में अपने गर्भ में एक पुत्र को धारण करती हूँ, और उनका कथन असत्य नहीं होता है।” वासुकि निश्चिंत हो गए।
कुछ ही दिवस पश्चात् उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। उनका नाम आस्तिक रखा गया क्योंकि जरत्कारु मुनि ने गमन से पहले पत्नी द्वारा उठाए गए प्रश्न के उत्तर में “अस्ति” कहा था। वह अपने पिता के समान तपस्वी हुए और शीघ्र ही वह एक महान तपोधारी, एक ऋषि, वेदों में विद्वान और विश्व में पूजनीय बन गए। वह बुद्धिमान, देवतुल्य और अत्यधिक विचारशील थे। आस्तिक ही वह व्यक्ति हैं जो नागवंश को कद्रू के शाप से मुक्त करेंगे।
इस प्रकार ऋषि जरत्कारु की कथा समाप्त होती है। आस्तिक तत्पश्चात अपने जीवन विधान को पूरा करने के लिए अग्रसर हुए। मैंने साभिप्राय इस प्रकरण के संवादी स्वरूप को ज्यों का त्यों रखा है। इस कहानी का केंद्रीय सरोकार जरत्कारु के कारण पूर्वजों का स्वर्ग से च्युत हो जाना है। पूर्वज उन्हें ‘तपोलोभी’ -जो जीवन के बड़े उद्देश्यों को भूलकर तपस्या के लिए अत्यधिक लोलुप हो रहा हो, कहते हैं। जरत्कारु एक महान तपस्वी हो सकते हैं और दैवीय शक्तियों के स्वामी हो सकते हैं लेकिन न तो वह ब्रह्मलोक में प्रवेश कर सकते हैं और न ही अपने पूर्वजों को मोक्ष दिला सकते हैं क्योंकि उन्होंने सबसे मौलिक उद्देश्य को छोड़ दिया है जो कि वंश की निरंतरता है। यह कहानी जीवन और उसकी समृद्धि के चिंतन के बारे में है। हमारे तप, शक्तियाँ और सिद्धियों की प्राप्ति व्यर्थ हैं यदि वे जीवन की समृद्धि में वृद्धि नहीं करते हैं। हमें हमारे त्याग और मोक्ष के अनुसंधान में भी, ब्रह्मांड के गतिशील संतुलन, स्थिति और इसकी निरंतरता के बारे में चिंतित होना चाहिए। एक संपूर्ण वंश का विनाश ब्रह्मांड के गतिशील संतुलन को क्षीण करता है, निरंतरता को क्षीण करता है। एक वंशज की तपस्या के लिए अत्यधिक लालसा के कारण आने वाली संतति का विनाश नहीं किया जा सकता है। हालांकि, यह सत्य है कि जरत्कारु को एक कठोर तपस्वी के अपने स्वधर्म का पालन करते हुए ही वंश की निरंतरता प्राप्त करनी होगी। जरत्कारु का पत्नी से मिलन तभी संभव है जब दुनिया के दूसरे अवसान पर कोई अन्य व्यक्ति, समान रूप से प्रतीक्षा कर रहा हो और उसी कठिन मार्ग पर उद्यत हो। इसलिए, पत्नी का नाम भी जरत्कारु ही था – जिसने अत्यधिक तपस्या के माध्यम से भौतिक शरीर की विशालता को पार कर लिया हो। दोनों में कदाचितअंतर है – जरत्कारु, पति, को अपने पूर्वजों को दुर्भाग्य से मुक्त करने के लिए जरत्कारु कहा जाता है। जरत्कारु, पत्नी, अपने वंश पर एक पूर्वज के शाप को दूर करने और भविष्य को विलुप्त होने से बचाने के लिए अनंत समय से प्रतीक्षा कर रही है। मुनि भविष्य का निर्माण कर रहे हैं ताकि अतीत के प्रयास व्यर्थ न जाएं। उनकी पत्नी भविष्य को उस अतीत से बचा रही है जो स्वार्थ में अंधा हो गया था। इसलिए, भविष्य बनाने के लिए अतीत और भविष्य की चिंताओं के दोनों सिरों को उद्देश्यपूर्ण ढंग से मिलना चाहिए। और आस्तिक इसे बड़े ही उन्नत तरीके से व्यक्त करते हैं । वह दो कुलों को गतिशील संतुलन में वापस लाते हैं।
विश्व के गतिशील संतुलन का चिंतन और एक समृद्ध और गतिशील जीवन का निर्माण हमारे महाकाव्यों की मूलभावना में निहित रहा है। यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि जीवन के हर कथानक में अति संभव है, प्रायः हम अति कर बैठते हैं परन्तु परंपरा के भीतर ही इस अतिरेक को हमारे सामने प्रकट करने और अति को रोकने के उपाय विद्यमान हैं। भारतीय जीवन में आत्म-सुधार का एक तत्व हमेशा से रहा है। जरत्कारु जो तीर्थयात्रा में अपने पूर्वजों से मिलते हैं और वासुकि जो अपनी भगिनी को जरत्कारु से विवाह करने के लिए वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, उसी आत्म सुधार के तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। जरत्कारु अपने स्वधर्म त्याग के प्रेम और अत्यधिक कठोर तपस्या को नहीं छोड़ सकते, लेकिन वह अपने पूर्वजों की स्वार्गिक स्तिथि को प्राप्त करने के लिए चिंतित हैं। यही भारतीय जीवन का सार है। व्यक्ति विशिष्ट की समस्याओं को को दार्शनिक, आध्यात्मिक चिंतन और जीवन के व्यापक चित्रण से हल किया जा सकता है।
The present article is a translation of Shivakumar GV‘s piece titled Sage Jaratkaru: Excessive Austerities and Self-Correction
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