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जरत्कारु मुनि: (भाग-३) तप, संयम तथा आत्म सुधार

दूसरे भाग में आपने यहाँ जरत्कारु मुनि और उनके वंश के ऋषियों के बीच संवाद को पढ़ा।

जरत्कारु ने एक और प्रतिबन्ध जोड़ा। “हे वासुकि, मैं हर्षित हूँ। अब मैं अपने पूर्वजों को उनके दुखों से मुक्त कर सकता हूं जो मेरा कर्म था। लेकिन मैं आपको अपनी एक और प्रतिज्ञा बता दूं, उसे ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो मुझे अवांछनीय लगे। जिस क्षण वह ऐसा कुछ करेगी, निश्चय ही मैं उसे सदैव के लिए त्यागकर चला जाऊंगा”वासुकि ने यह भी स्वीकार कर लिया।

वासुकि ने उनके लिए एक प्रासाद का निर्माण किया। जरत्कारु अपनी पत्नी के साथ अपनी तपस्या और संतान की कामना में रहते थे । पत्नी को उन्होंने अपनी प्रतिज्ञाओं के बारे में स्पष्ट रूप से सूचित किया था। जरत्कारु, उनकी पत्नी, सदैव सतर्क रहती थी, सदैव उनकी प्रसन्नता के कार्य में तत्पर रहती थी और ऐसा अपराध करने से भयभीत थी जो उसको पति के द्वारा त्यागे जाने का कारण बने।

कुछ समय बाद जरत्कारु गर्भवती हो गई। एकदा जरत्कारु ऋषि श्रान्ति के कारण अपनी पत्नी के अङ्क में सर रखकर शयन कर रहे थे। प्रचुर समय के बाद ऋषि ने जाग्रत होने का कोई संकेत नहीं दिखाया, वहीं दिवस सूर्यास्त की ओर बढ़ रहा था। यह संध्या का समय था और जरत्कारु जैसे कठोर साधक को कभी भी संध्यावंदन नियम भंग नहीं करना चाहिए था। जरत्कारु,उनकी पत्नी, ने सोचा कि क्या उसका सबसे बड़ा भय मूर्तिमान हो जाएगा। वह अपने पति के जाग्रत होने की प्रतीक्षा करती या वह उन्हें उसके नित्यकर्म के लिए जगाती? उन्हें क्रोध आ सकता है क्या? क्या यह करना उचित होगा? एक गहन दुविधा और बहुत चिंता के बाद, जरत्कारु ने धर्म के पक्ष में पातक करने का निर्णय लिया। जो भी हो, मुझ पर धर्म के प्रति अपने कर्तव्य में विफल होने का आरोप न लगाया जाए – उन्होंने सोचा। उन्होंने जरत्कारु को जगाया और उनको विश्वास था कि उनके पति क्रोध से जल भुन जायेंगे। अपने पति को देखते हुए, जो स्वयं अग्नि के समान सुंदर थे, उन्होंने कहा, “हे ऋषि, पश्चिम में सूर्यास्त के सुंदर दृश्य को देखो। आकाश हल्के लाल रंग से परिपूर्ण हुआ जाता है जो कितना मनभावन है। आपके लिए, हे महान ऋषि, यह संध्या की उपासना का समय है”। इतना कहकर उन्होंने धीरे से पति के मुख पर अपना हाथ प्रेमपूर्वक सहलाया।

परन्तु जरत्कारु ऋषि ने उनका एक भी वाद नहीं सुना। उसके अधर क्रोध से कम्पन कर रहे थे। “हे नागकन्या, आज तूने मेरा घोर अपमान किया है। मुझे बता कि मुझे इस अपमान को किस प्रकार सहन करना चाहिए, मैं तुझे अभी त्याग कर चला जाऊंगा। क्या तुझे ज्ञान नहीं  कि जब मेरे जैसा तपस्वी विश्राम में गहन  निंद्रा में होता है तो सूर्य स्वयं को अस्त नहीं कर पाता? मैंने तुझसे परिणय करने से पहले तुझे सचेत किया था कि तुझे सदैव मुझे प्रसन्न करना होगा, जिसके उल्लंघन पर मैं तुझे परित्यक्त कर दूंगा । तू जानती है कि मैंने धर्म का जीवन व्यतीत किया है और मेरा वचन अटल है”। भले ही जरत्कारु को ज्ञात था कि उसका पति क्रोध में हर सीमा का उल्लंघन कर देगा, लेकिन सत्यता में उसके समक्ष होना उसके लिए बहुत कष्टकारी था। वह इस वाद का प्रतिवाद करने के लिए उद्यत थी। “भगवान को साक्षी मानकर कहती हूँ, मैं आपको क्रोधित नहीं करना चाहती थी। आप जैसे धार्मिक व्यक्ति को संध्या की उपासना नहीं छोड़नी चाहिए और इसलिए मैंने आपको जगाया। मैं आप से विनती करती हूं कि इसके लिये मुझ पर क्रोध न करें”। जरत्कारु गुस्से में थे और साथ ही पत्नी को छोड़कर जाने का फैसला कर चुके थे । उसने जो कुछ भी कहा उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। “अरे नागकन्या। मैंने कभी असत्य नहीं कहा। मैं जो वचन कहता हूँ वह कभी मिथ्या नहीं हो सकता। इसलिए, मैं तुम्हें छोड़ रहा हूँ। तुझे पता था कि आपको किसी भी स्थिति में मुझे क्रोधित नहीं करना है। हे देवि, मैंने तुम्हारे साथ बहुत सुखी जीवन व्यतीत किया। कृपया अपने भ्राता को सूचित कर देना कि मैंने तुम्हें त्याग दिया है, और मेरे तुम्हें त्यागे जाने का शोक न करना।”

अब जरत्कारु को ज्ञान हो चुका था कि वह समय वास्तव में आ गया था जिसका उसे सबसे अधिक भय था। वह कुछ व्यक्त करना चाहती थी, लेकिन स्वयं को उस क्षण के लिए उद्यत नहीं कर पा रही थी। अंत में, उसने एक आर्तनाद में अपने दुःख को प्रकट किया। उसने स्वयं को साधा और अंत में पति से कहा, “हे महान ऋषि! मैंने आपके कठोर तप के अनुसार सबसे उचित विधि से आपकी सेवा की है। कृपया स्मरण रखें कि आपके पूर्वजों के दुखों से मुक्त होने के लिए मुझे अभी तक आपसे कोई संतान प्राप्त नहीं हुई है। यदि आप अब मुझे त्याग देंगे तो मैं आपके पूर्वजों और अपने बंधु वासुकि को क्या उत्तर दूंगी? हमारे महान पूर्वज कद्रू के एक शाप के कारण हमारा पूरा कुल पीड़ित है। केवल मेरा पुत्र ही हमारे कुल को इस दुख से मुक्ति दिला सकता है। बिना सन्तान के मैं वासुकि के समक्ष कैसे जाऊंगी? जब तक हमारी परिणय का प्रयोजन पूरा नहीं हो जाता, तब तक आपको मेरा परित्याग नहीं करना चाहिए”। जरत्कारु ऋषि ने कहा, “हे नागकन्या, आप जो कहती हैं वह धर्म है और एक धर्मी तपस्विनी होने की आपकी मनोस्थिति के अनुरूप है। आपको चिंता नहीं करनी चाहिए। आप वास्तव में गर्भवती हैं और शीघ्र ही आप एक महान पुत्र की जननी बनेंगी। वह एक महान तपस्वी होगा, वेदों और वेदांगों में विद्वान होगा और विश्वभर में एक धार्मिक संत के रूप में विख्यात होगा।” ऐसा कहकर जरत्कारु अपनी पत्नी को त्याग कर घने वनों में कठोर तप करने चले गए।

क्रमश:

The present article is a translation of Shivakumar GV‘s piece titled  Sage Jaratkaru: Excessive Austerities and Self-Correction

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