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जरत्कारु मुनि: (भाग-२) तप, संयम तथा आत्म सुधार

पहले भाग में आपने यहाँ जरत्कारु मुनि और उनके वंश के ऋषियों के बीच संवाद को पढ़ा।

अब आगे पढ़ें-

जरत्कारु दुःख से स्तब्ध थे। उनका हृदय दु:ख से भर गया और गला रुंध आया, बोलने के लिए वे संघर्ष कर रहे थे। अब तक उन्हें अपने तपस्वी जीवन पर गर्व था और आज यहाँ वह अपने पूर्वजों के सामने थे और यह ज्ञान मिल रहा था कि वंश के समाप्त होने के साथ उनकी सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हो जाएँगी। उन्होंने बोला “हे श्रद्धेय, वह दुर्भाग्यपूर्ण वंशज जो आपके दुख का कारण है, वह कोई और नहीं बल्कि मैं ही हूं। आप मेरे गौरवशाली पूर्वज हैं। मैं आपके सामने इस दुख का कारण बनने के लिए किसी भी दंड को प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत हूं। मैं आपको इन दुखों से मुक्त करने के लिए क्या करूँ इसमें आपका मार्गदर्शन चाहता हूं। ”

अपने वंशज को देखकर पूर्वज प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरंत उन्हें क्षमा कर दिया और आश्वासन दिया कि वे बहुत भाग्यशाली हैं जो उनके साथ प्रत्यक्ष मिल सके। उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह अभी तक अविवाहित क्यों थे । जरत्कारु ने कहा कि उनकी कभी भी विवाह करने की इच्छा नहीं थी। उनकी उसी शरीर में स्वर्ग जाने की इच्छा रखते थे और तब तक तपस्या में निरत रहना चाहते थे, इसलिए उनके मन में कभी परिणयबंधन में बंधने का विचार नहीं आया। पूर्वज स्तब्ध रह गए। “हे जरत्कारु, कोई भी तपस्या उस स्वर्ग को प्राप्त नहीं करवा सकती है जो एक वंशज के होने से प्राप्त होता है। हमारे और अपने कल्याण के लिए, कृपया गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें और हमारे महान कुल को जीवित रखें। वही समस्त कुल को मुक्त करेगा। ”

जरत्कारु भावविभोर हो उठे। “हे श्रद्धेय, मैंने अब अपना विचार परवर्तित कर लिया है। मैं आपको इस तरह वेदना में उल्टा लटका हुआ नहीं देख सकता। मैं वह करूंगा जो आपके दुखों को दूर कर आपके लिए सुख का कारण बने । लेकिन मैं इसे अपनी रीति से अपने नियमानुसार करूंगा। मैं अपने नाम की कन्या से विवाह करूंगा, उसके पिता उसे मुझे भिक्षा के रूप में दान करेंगे और मैं उसका भरण पोषण नहीं करूंगा। यदि ये तीन उपबंध पूरे हो जाते हैं, तो हे श्रद्धेय, मैं विवाह कर लूंगा। यह सत्य है। यदि मुझे ऐसी पत्नी मिल जाए और मुझे वास्तव में एक संतान का आशीर्वाद प्राप्त हो, हे श्रद्धेय, मैं आपके लिए ब्रह्म लोक प्राप्त करने का कारण बनूंगा और इससे मुझे आनंद की प्राप्ति होगी।”

जरत्कारु ने विदा ली और अपनी यात्रा पर चल पड़े। उन्होंने अनवरत रूप से एक पत्नी की खोज की लेकिन उनकी वृद्धावस्था के कारण अपनी पुत्री उन्हें प्रदान करने के लिए कोई उद्यत नहीं था। जरत्कारु हतोत्साहित होकर अंत में एक अरण्य  में चले गए और चीत्कार करके बोल उठे, “अरे विश्व !, मैं विवाह हेतु एक कन्या की खोज कर रहा हूँ। हे विश्व, इस जंगल में जो कोई है, कृपया मेरे वचन सुनो। मेरे पूर्वज एक नर्क में गिरे जा रहे हैं, उन्होंने अपने श्रेष्ठ स्वर्ग को खो दिया है क्योंकि वंश को चलाये रखने के लिए मेरे अतिरिक्त कोई नहीं है। उन्होंने मुझे विवाह करने और संतान प्राप्त करने का निर्देश दिया है। कोई भी इच्छुक हो तो कृपया आगे आए परन्तु मेरी प्रतिज्ञाओं को जान ले”।

अंततः उनका आवाहन सुन लिया गया । नागों के राजा वासुकि, जरत्कारु के विश्व को सम्बोधित कर वधु मांगने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह तुरंत अपनी सहोदरा के साथ जरत्कारु से मिलने गए और उनसे विवाह का प्रस्ताव दिया। जरत्कारु ने अपने महान संकट के समय में भी अपनी प्रतिज्ञाओं को व्यक्त किया।

प्रफुल्लित होते हुए वासुकि ने कहा “हे प्रभु, मेरी भगिनी भी जरत्कारु है, आपके ही समान । आपकी भांति ही, वह हर समय कठोर संयम और तपस्या का जीवन व्यतीत कर रही है। विवाहोपरांत मैं आप दोनों का भरण पोषण करूंगा। मैं इन सभी वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा हूं और उसका ललन पालन कर रहा हूं, ताकि उसका आपके साथ विवाह कर दूं, एवं हमारा कुल हमारे पूर्वज के शाप से मुक्त हो जाए। कृपया उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें”।

क्रमश:

The present article is a translation of Shivakumar GV‘s piece titled  Sage Jaratkaru: Excessive Austerities and Self-Correction

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