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जरत्कारु मुनि: (भाग-१) तप, संयम तथा आत्म सुधार

महाभारत का आदिपर्व ना केवल कौरवों और पांडवों के मध्य होने वाले युद्ध की पटकथा के पूर्व चित्रण के लिए जाना जाता है बल्कि एक दर्शनात्मक कथानक का भी चित्रण करता है। मानव के पुरुषार्थ की मूल भावना पर इस पर्व के हर अध्याय में गहन चिंतन किया गया है। प्रारंभिक अध्यायों में सृष्टि-स्थिति-लय और पुरुषार्थ को जीवन के व्यापक अर्थ में दिखाया गया है। इसके बाद की हर कथा दर्शाती है कि किसी वस्तु या विचार के पालन की अति कर देना या किंचितमात्र ही न करना किस प्रकार के दुष्परिणामों तक ले जा सकता है, और अल्पभोग एवम् अतिभोग के मध्य संतुलन कैसे बनाया जाए।

कौरव-पांडव संघर्ष कई दिशाओं से उठती हुई आंधियों से बनने वाला वह चक्रवात है जो अंत में विनाश की ओर ले जाता है। शुरुआत से अंत तक पौराणिक तथा दार्शनिक प्रसंग जुड़े हुए हैं, जो दार्शनिकता को जीवंत बनाए रखते हैं। एक ऐसा ही प्रसंग है मुनि जरत्कारु के अतिशय त्याग का। उनकी यह आदत एक महान आपदा का कारण बनते बनते रह गई। नैमिषारण्य में शौनकादि मुनियों को प्राचीन कथा सुनाते समय उग्रश्रवा ऋषि ने विख्यात ऋषि जरत्कारु और उनके पुत्र आस्तिक का उल्लेख किया। आस्तिक ने ही जनमेजय के नाग यज्ञ को समाप्त करवाया था।

ऋषि उग्रश्रवा ने ये कथा इसी स्थान पर अपने पिता लोमहर्षण से सुनी थी। आस्तिक का आख्यान सुनाने से पहले उनके पिता जरत्कारु की कथा सुनाई गई, जो इस लेख का केंद्र बिंदु हैं। जरत्कारु कठिन तपस्या के लिए विख्यात थे। वे कठोर ब्रह्मचारी थे और बहुत अल्प भोजन करते थे, अत्यावश्यक होने पर ही विश्राम करते थे और सदैव ध्यानमग्न रहते थे। वे यायावर नामक कुल से संबंधित थे। यायावर कभी भी एक स्थान पर नही ठहरते, एक गांव से दूसरे गांव जाते रहते, साथ में अग्निहोत्र और अन्य अनुष्ठानों का कठोरता से पालन भी करते। उनका यह व्रत उनकी परंपरा के पालनस्वरूप ही था। लेकिन अब उनका शरीर जरावस्था से पीड़ित और कृशकाय हो रहा था और उनके कोई संतान नहीं थी।

एकदा उन्होंने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया,परंतु इस यात्रा से उनके संयम और तपस्या पर कोई प्रभाव नहीं आया। संध्या के समय जहां भी रुक जाते, वहां जो प्राप्त होता भोजन ग्रहण कर लेते अन्यथा वायुभक्षण करके जीवित रहते। निद्रा पर उन्होंने विजय प्राप्त कर ली थी, वर्षों तक पलकें नहीं झपकाते थे। यात्रा के मध्य उन्होंने मार्ग में एक विचित्र कौतुक देखा: एक पेड़ की पतली शाखा पर कुछ ऋषि उलटे लटके हुए थे, जिनके सिर गहरी खाई की ओर थे। वे भूखे और शक्तिहीन थे और सहायता हेतु रो रहे थे।

जरत्कारु स्तब्ध रह गए और उनके पास जाकर पूछा, “प्रणाम, श्रद्धेय। आप कौन हैं और इतनी यातना में क्यों पड़े हुए हैं? आप ऐसी जर्जर शाखा से लटके हैं जिसे कोई चूहा भी काट सकता है। यदि आप गिर गए तो क्या होगा? मैं आपकी सहायता करना चाहता हूं, कृपया मुझे बताएं मैं क्या कर सकता हूं। मुझे ऐसी शक्तियां प्राप्त हैं जिनसे मैं आपको इस दुर्भाग्य से मुक्त कर सकता हूं। बताइए, मैं आपको अपने तपस का एक चौथाई, एक तिहाई या आधा ही दे दूं? आधा ही क्या आपको इस दुर्भाग्य से मुक्त करवाने मैं पूरा ही तपस दे सकता हूं। मुझे केवल आपका कल्याण चाहिए।”

ऋषियों ने चुटकी ली। “हे महान तपस्वी, आप पहले से ही वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे हैं। आप ब्रह्मचारी हैं। हमें बचाने के लिए आपकी सहायता की हम सराहना करते हैं। लेकिन कृपया जान लें कि आपकी तपस्या से जो प्राप्ति हुई है, वह हमारे लिए किसी काम की नहीं है। हमने स्वयं विशेष सिद्धियों के साथ घोर तपस्या की है लेकिन, वह सब आज हमारे किसी काम का नहीं है। हम पीड़ा से भरे हुए हैं और हमारा मन डूबा जा रहा है। हम यायावर ब्राह्मणों के वंश के हैं। जरत्कारु नामक हमारे वंशज के कारण हमारा भाग्य इस तरह अधर में लटक रहा है। वह कोई तुच्छ मानव नहीं है, निस्संदेह वह महान तपस्वी है।

ऋषि आगे बोले, “वेदों और वेदांगों के विषय में उनसे अधिक कौन जानता होगा? उन्होंने अपनी इंद्रियों पर जीत हासिल की है। वे जो महापुरुष हैं, उनकी तपस्या सर्वोच्च कोटि की है। लेकिन हम दुर्भाग्यशाली हैं, और वह हमारे वंशज के रूप में दुर्भाग्यशाली है। वह अपनी तपस्या में इतना लीन है कि उसे वंश को चलाये रखने की कोई इच्छा नहीं है, विवाह करने का कोई विचार नहीं है। वह अपने तपस के लिए लालायित है। वह अपने जीवन में और कुछ नहीं चाहता है। परिणामस्वरूप, एक महान वंशज के होते हुए भी हमारा भाग्य अधर में लटका हुआ है, क्योंकि हमारा वंश बिना किसी वंशज के शीघ्र ही समाप्त हो जाना है।”

“जरत्कारु के होते हुए भी, हम पीड़ित और अनाथ हैं जैसे कि हमें बुरे कर्मों का दंड प्राप्त हुआ हो। खुद का भी स्मरण करने की हमारी क्षमता विफल हो रही है। लेकिन अगर नियति यही है तो ऐसा ही हो। आह, आप कौन हैं? आप हमारे लिए सहानुभूति और चिंता से भरे हुए हैं जैसे कोई अपने परिवारीजनों के लिए होता। ऐसा लगता है कि आप हमें एक उद्देश्य के साथ सांत्वना देने आए हैं – हम आपसे वृत्तांत सुनने के लिए उत्सुक हैं। चूंकि आपने अपने मन से चिंता के साथ बात की थी, इसलिए हमने आपके पूर्ववृत्त की खोज किए बिना अपनी स्थिति के बारे में आपसे बात की। अपनी यात्रा में, यदि आपको कहीं जरत्कारु मिलते हैं, तो कृपया उन्हें हमारी चिंता और भाग्य से अवगत कराएं। कृपया उसे बताएं कि वह ही वंश को चलाये रखते हुए हमें इस दुर्भाग्य से मुक्त कर सकता है।”

“जिस तरह यह शाखा अभी भी हमें एक अंतिम आपदा से बचा रही है, वह अकेले ही हमें हमारे भयानक अंत से बचा रहा है। महान कालपुरुष (समय) इस शाखा की जड़ के अंतिम धागे को शीघ्र ही ग्रास बना लेंगे। उसे ज्ञात होना चाहिए कि, हमारे साथ, वह भी अंततः ऐसे ही दुखांत को प्राप्त होगा। उसके सारे तप और सिद्धियाँ समाप्त हो जाएँगी।”

क्रमश:

The present article is a translation of Shivakumar GV‘s piece titled  Sage Jaratkaru: Excessive Austerities and Self-Correction

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