बंदउँ राम नाम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हर मय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
हम जब वर्तमान में भारतीय विचारों पर चर्चा करते हैं, तब हमें ऐसा लगता है कि वैदिक और पौराणिक युग की व्यवस्थायें, मानव सभ्यता की सबसे श्रेष्ठ व्यवस्थायें रहीं होंगी। पर जब हम उन ग्रंथों को पढ़ते हैं समझते हैं, तब हम पाते हैं कि व्यवस्थायें सदैव बदलती रहीं हैं। वर्तमान में हम चार वर्ण वाली व्यवस्था को ही मानते हैं। पर पूर्व में अनेक वंश हुए जैसे नाग, यक्ष, गंधर्व, रक्ष, देव, दैत्य, असुर इत्यादि, इनमें से कुछ ने वर्ण व्यवस्था को स्वीकार किया और कुछ ने नहीं किया। वर्तमान में भी ऐसे वंश हैं, जो सनातनी सभ्यता के अंग है, पर वे वर्ण व्यवस्था के भीतर स्वयं को नहीं रखते। उनकी परम्परायें और मान्यताएँ हमसे अलग हो सकती हैं। आप सबको वर्ण व्यवस्था के गोले में घेरकर नहीं रख सकते, जो जिस सनातनी परंपरा को मान रहा है, उसे उस परम्परा के साथ स्वीकारना ही पड़ेगा। परम्पराओं और मान्यताओं का मानव और प्रकृति संगत होना ही एकमात्र मानदंड होना चाहिए।
सरस्वती नदी के तट पर मानव सभ्यता का विकास हुआ। उस सभ्यता ने प्रकृति में होते परिवर्तन को अनुभव किया। उस अनुभव ने उनका मार्गदर्शन प्रकृति में छिपे ज्ञान और विज्ञान को जानने में किया। उन्होंने उस अनुभव का अध्ययन करना आरंभ किया और धीरे धीरे प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग को उन्होंने जाना और समझा। मानव, प्रकृति, जानवर, वृक्ष, हवा, पानी प्रकृति से जुड़े हर अंग का उन्होंने अध्ययन किया और जो उन्होंने अनुभव किया उसे उन्होंने वृक्ष के पत्तों पर लिखना आरंभ कर दिया। उन्होंने मानव और समाज के विचारों में होते परिवर्तनों का भी अध्ययन किया और उसे अपने ग्रंथों में जगह दी। इस तरह उन्होंने कई ग्रंथ रच डाले जिसमें प्रकृति से जुड़े ज्ञान विज्ञान के कई रहस्य लिखे थे। वर्षों के तप और अध्ययन से इन ग्रंथों को जिन्होंने रचा था उन्हें ऋषियों की संज्ञा दी गयी।
सरस्वती नदी में जब जल प्रलय आया तब केवल पहने हुए वस्त्रों में ही उन्हें उस स्थान को छोड़ना पड़ा। सरस्वती का तट छोड़कर वे गंगा तट पर आये, यहाँ ब्रह्मा जी ने नए रूप में सृष्टि अर्थात मानव सभ्यता की रचना की। समाज में आये कुछ दोषों के कारण ही पिछला जल संकट उन्हें झेलना पड़ा था, इस कारण से समाज में कुछ नियम और दंड निर्धारित किए गए। ब्रह्माजी ने नियम और दंड गढ़ने के लिए एक ब्रह्मऋषि पद नियुक्त किया। इन नियमों का समाज पालन करे इसका दायित्व देवताओं ने लिया। ब्रह्मऋषि पद पर नियुक्त व्यक्ति ने दंड सहिंता को ब्रह्मदंड के रूप में धारण किया। समाज में नियमों की पालना को लेकर सख्ती थी, उन नियमों का पालन न करने वालों को समाज से बहिस्कृत होना पड़ता था।
ऋषियों ने गंगा तट पर अपने आश्रम और गुरुकुल स्थापित किए, और जो ग्रंथ सरस्वती तट पर नष्ट हो गए थे, उन्हें पुनः अपने परिश्रम से लिखना आरंभ किया। उन ग्रंथों में लिखा जितना अंश उन्होंने पढ़ा था, उसे उन्होंने अपनी स्मृतियों के आधार पर लिखा। जो उन्होंने सरस्वती तट पर अपने गुरुकुल में गुरु के मुख से सुना था, उन्हें उपनिषदों के रूप में लिखा। सरस्वती तट से जिस सभ्यता का आरंभ हुआ था, उसने गंगा तट पर अपने को और अधित विकसित किया। एक नई व्यवस्था को जन्म दिया।
नियमों में सख्ती और उसे न मानने वालों को समाज से बहिस्कृत करने के चलते, एक बड़ा वर्ग बहिस्कृत जनों का हो गया। बहिस्कृत जनों को लेकर विश्वामित्र ने दक्षिण में एक नई सृष्टि एक नई मानव सभ्यता को जन्म दिया। ये नई मानव सभ्यता सरस्वती और नर्मदा नदी के मध्य में कहीं विकसित हुई। मानव सभ्यता जिसका इतने परिश्रम और जतन से देव गण पालन कर रहे थे, उन्हें इस तरह मानव सभ्यता का दो अंगो में बंट जाना चिंता का विषय लगा। सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी के पास जाकर उन्होंने अपनी चिंता को उनके समक्ष रखा। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्मा जी उनके साथ विश्वामित्र के पास आये और उन्होंने विश्वामित्र से नई सृष्टि रचाने का कारण जाना। ब्रह्मा जी ने ब्रह्मदंड देकर विश्वामित्र को नई सृष्टि के लिए ब्रह्मऋषि पद पर नियुक्त किया। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि मानव बिना नियम और दंड के निरंकुश होता है जो समाज और सभ्यता का नाश करता है। आप अपनी सृष्टि के लिए नए नियम और दंड निर्धारित करें, जिससे वे कुमार्ग पर अथवा राक्षसी मार्ग पर जाने से बचे रहें।
ब्रह्मा जी ने विश्वामित्र (नई सृष्टि के ब्रह्मऋषि) और वशिष्ठ (ब्रह्मा जी द्वारा रची सृष्टि के ब्रह्मऋषि) में मैत्री करवाई और उन दोनों के युद्ध के कारण जो मानव सभ्यता दो अंगों में बट गई थी और जिनमें परस्पर द्वेष जन्म ले चूका था उस द्वेष को दूर करने के उपाये ढूंढने को उनसे कहा। दोनों मानव सभ्यता की संस्कृति एक ही थी, पर नियमों में सख्ती के कारण उनमें तनाव बढ़ गया था, और उसी तनाव को कम करने का उपाये अब दोनों को ढूँढना था। सभ्यता में तनाव के कारण जो वर्ग भेद का बीज जन्म ले चूका था उसने दोनों ही सभ्यता में अहंकार को जन्म दिया। वही अहंकार कार्त्यवीर अर्जुन और परशुराम के युद्ध का कारण बना। उसी समय राक्षस जन भी किसी तरह इस सभ्यता में अपनी जगह बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। विष्णु जी से भय के कारण वे छिप छिपकर रहा करते थे, पर अब वह बाहर निकलने का मार्ग ढूंढ रहे थे। उन्हें सबसे श्रेष्ठ मार्ग यही लगा की किसी भी तरह से अन्य मानव ज्ञातियों में विवाहिक संबंध स्थापित कर वे अपने विचारों को जीवंत रख सकते हैं।
देवताओं ने विष्णु जी के कहने पर मानव समाज में ऐसे विचारों को जन्म दिया जो मानव समाज और व्यक्ति के लिए कल्याणकारी हों। जिनपर चलकर वह समाज के लिए उपयोगी हो और जिससे उस व्यक्ति या समाज को कोई भय या परेशानी न हो। उन्होंने सत्य और धर्म के मार्ग को विचारों के रूप में समाज में स्थापित किया। उस समय राक्षसों ने जल मार्ग से आने वाले संकट से लड़ने के लिए स्वयं ही जल रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। भगवान शिव ने उन्हें धनुर्वेद और चारों अस्त्र – शस्त्र का ज्ञान देकर अभय किया। विश्वकर्मा ने उनके रहने के लिए त्रिकुट पर्वत के शिखर पर लंका पुरी नाम से एक स्वर्ण सी चमकती नगरी का निर्माण किया। यह नगरी इंद्र की अमरावती नगरी के समान ही शोभा पाती थी। अस्त्र शस्त्र से बलवान और इन्द्र के समान नगरी पाकर राक्षस अत्याधिक महत्वकांक्षी हो स्वयं को ही ब्रह्मा, रूद्र और विष्णु कहलवाने लगे। उन्होंने समाज में स्थापित नियमों की अवहेलना करना शुरू कर दिया।
अपनी लंका पुरी नगरी में वे भोग विलास में डूबे रहते, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह किसी भी स्त्री का हरण कर ले आते। निर्बलों पर अत्याचार करते और उन्हें अपना दास बनाकर रखते। अपने को श्रेष्ठ समझना और अन्य सभी को तुच्छ और नीच समझ उनपर शासन करने का अपने को अधिकारी समझना। देवालयों को नष्ट कर उनमें अपनी प्रतिमा स्थापित कर, अपनी पूजा करवाना। ऋषियों के ग्रंथ नष्ट कर उनमें अपने विचारों को प्रधानता देने वाले झूठे स्तंभ लिखवाना। व्यवस्था को अपने आनंद के अनुसार चलाना, सत्य – असत्य, धर्म – अधर्म की व्याख्या बदलते रहना। इन्हीं नियमों के आधार पर उन्होंने राक्षसी व्यवस्था को समाज में स्थापित करने की कोशिश की।
उनके द्वारा सताये जाने पर देव,यक्ष,गंधर्व और ऋषि अनाथ की तरह अपना रक्षक ढूंढने लगे। वे सब एकत्रित हो शिव जी के पास गए और प्राथना करने लगे की राक्षसों के अत्याचारों से उनकी रक्षा करें। शिव जी ने उनसे कहा ये राक्षस मेरे द्वारा अवध्य हैं, मैं उन्हें न मार सकूँगा, आप सब एकत्रित हो इसी प्रकार विष्णु जी के पास जायें, वे अवश्य ही आपकी सहायता करेंगे। वे सभी उसी प्रकार एकत्रित हो विष्णु जी के पास आये और उनसे राक्षसों से उनकी सहायता करने की प्राथना करने लगे। विष्णु जी ने उन्हें कहा मर्यादा तोड़ने वाले उन सभी राक्षसों का मैं संहार कर दूंगा, आप सब निश्चिंत हो अपने अपने निवास को जायें।
जब राक्षसों को देवताओं के इस प्रकार विष्णु जी से मिलने का समाचार प्राप्त हुआ, तब उनमें आपस में चर्चा होने लगी। उनका विचार बना कि देवताओं ने ही उनके विरुद्ध विष्णु को भड़काया है, इसी से विष्णु हमको मारने को उद्यत हुए। अतः हम सब राक्षसों को साथ मिलकर आज ही उन देवताओं को मार डालना चाहिए, जिन्होंने हमारे विरुद्ध विष्णु को उभाड़ने का कार्य किया है। ऐसा विचार कर उन राक्षसों ने देवताओं पर राक्षसी सेना सहित चढ़ाई कर दी।
राक्षसों के आक्रमण की सुचना देवताओं के दूत से सुनकर, भगवान नारायण ने भी युद्ध की ठानी। सब आयुधों से सज और तरकस धारण कर, वे गरुण जी के ऊपर सवार हुए। उन्होंने सूर्य के समान चमचमाता कवच धारण किया और बाणों से भरे दो तरकस लिए। कटिसूत्र धारण किए हुए नारायण ने एक चमचमाता खड़ग लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, नन्दकी खड़ग और शारंग धनुष लिया। फिर गरुड़ पर सवार हो, समस्त राक्षसों का नाश करने के लिए वे बड़ी शीघ्रता से चले।
राक्षसों का श्री नारायण के साथ भीषण युद्ध हुआ, राक्षसों की सेना तितर बितर हो भागने लगी, उनके प्रमुख सेना नायक मारे गए। भागती हुई सेना को भी श्री नारायण ने नहीं छोड़ा, सुदर्शन चक्र और बाणों की वर्षा से उनके मुंड धड़ से अलग करने लगे। बहुत थोड़े से राक्षस अपने प्राण बचाकर वहाँ से भागने में सफ़ल हुए। चूँकि भगवान नारायण ने समस्त राक्षसों को मारने का वचन लिया था इस कारण बचे हुए राक्षस, वापस लौटकर अपनी स्वर्ण नगरी को न जाकर पाताल में जाकर छिप गए।
राक्षसों के कारण जो विचारों में दूषण आ गया था, उन्हें दूर करने के लिए ऋषियों ने अनेक अध्ययन और तप किए। जब उन्होंने अध्ययन और तप के बल से स्वयं में उन विचारों के पक्ष और विपक्ष पर चर्चा कर उनके दोष और अज्ञानता को जान लिया। तब पृथ्वी के कोने कोने में जाकर उन्होंने उन दोष और अज्ञानता से मानव समाज का परिचय कराया, जिनके कारण राक्षसी विचारों को बल मिलता था। उन विचारों की अप्रासंगिकता और अज्ञानता दिखाकर, उन्होंने ऐसे विचारों के प्रति समाज को चेताया और सावधान रहने की सलाह दी। ऋषियों के इस उपक्रम के कारण समाज में उनकी प्रतिष्ठा और प्रधानता बढ़ी, समाज ने उन्हें श्रेष्ठ पद पर बिठा दिया।
विष्णु जी ने समस्त राक्षसों को मारने का वचन लिया था, इस कारण से राक्षस छिप छिपकर रहा करते थे। राक्षसों ने विचार किया की इस तरह मृत्यु के भय से कब तक छिपा जा सकता है। हमें बाहर निकलने का मार्ग खोजना होगा और पुनः अपनी लंका को प्राप्त करने की कोई योजना बनानी होगी। उन्होंने विचार बनाया कि देवत्व विचारों को मानने वालों का विश्वास जीता जाए। पहले राक्षस अपने को अन्य ज्ञातियों से श्रेष्ठ समझते थे, पर अभी उनके अस्तित्व का प्रश्न था। अन्य ज्ञातियों से विवाहिक सम्बन्ध जोड़कर वे देवताओं का विश्वास जीत सकते हैं। देवों को लगने लगेगा कि राक्षसों का अहंकार टुटा है, और वे सुधरना चाहते हैं।
यही विचार कर राक्षस ऋषियों के पास आये, ऋषियों से क्षमा मांगकर उन्होंने देव विचारों को मानकर उन्हीं पर आजीवन चलने का वचन लिया। ऋषियों ने भी उदार हृदय से उन्हें क्षमा कर दिया, और उनका विवाह से जुड़ा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। राक्षसों का विचार था कि उनसे विवाह सम्बन्ध जोड़, उनकी संतानों में राक्षसी बीजों को बोया जाए, जब वृक्ष बड़ा हो जाए तब अपने विचारों को प्रकट किया जाए। उन्होंने ऋषि,देव, यक्ष,नागों सभी ज्ञातियों में विवाहिक सम्बन्ध जोड़े।
दक्षिण में राक्षसों ने ऋषि वर्ग में विवाह कर पुनः अपना प्रभाव बढ़ाना आरंभ कर दिया था। उनके विचार अब अधिकतर मानव समाज में फैलने लगे थे। इधर देव विचारों को मानने वालों ने भी, उनके मत से भिन्न मत रखने वालों को समाज से बहिस्कृत करना आरंभ कर दिया। समाज से बहिस्कृत वे जन दक्षिण में जाकर वास करने लगे, और उनका देव विचारों पर विश्वास कमज़ोर होने लगा था। राक्षसों ने इसका भी लाभ उठाया और उन्हें भी अपने विचारों की चपेट में लेना शुरू कर दिया। जो विरोध करते, उनपर वे अमानवीय अत्याचार करते। उन्हें अपना दास बनाकर रखने लगे।
मानव सभ्यता जिसका गंगा तट पर शीघ्रता से विकास हुआ, अब उस सभ्यता में मानव विकास के दोष भी प्रकट होने लगे थे। अब समाज में वर्ग भेद भी था और राक्षसी विचारों का दूषण भी शीघ्रता से बढ़ रहा था। यही कारण था, कि जो कार्य पूर्व में विष्णु जी ने सरलता से कर लिया था, और समाज में दूषित विचारों को बढ़ने से रोक लिया था। पर अब उन विचारों के साथ साथ अन्य दोष भी समाज में पनप रहे थे। मानव सभ्यता आपस में ही लड़ झगड़कर नष्ट होने की ओर बढ़ रही थी। उनके विचारों में आये दोष और वर्ग भेद का कारण जानने के लिए विष्णु जी ने विचार किया कि इस समस्या से मानव समाज के भीतर रहकर ही लड़ा जा सकता है। उन्होंने मानव अवतार लेने का निर्णय किया।
चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को विष्णु जी ने श्री राम के रूप में मानव अवतार लिया। गुरुकुल शिक्षा पूर्ण होते ही, विश्वामित्र उन्हें अपने साथ ले गए। उन्होंने अपनी युवावस्था का अधिकतर समय सामान्य जनों के मध्य रहकर व्यतीत किया। उन्होंने महल से लेकर गांव, शहर और वनों में रहने वाली मानव सभ्यता के संग ही वनों में रहने वाले वृक्ष और पशुओं को भी जाना और समझा। वर्ग भेद के कारण जो सभ्यता दो अंगों में बंट गई थी, उसे साथ लाकर एकमत करने के उन्होंने प्रयास किए, सभी की समस्याओं को उन्होंने सुना। उन्होंने अनेक ऋषि आश्रमों के दर्शन कर, उन ऋषियों से उनके अभिप्रायों को जाना। हर वर्ग के व्यक्ति से मित्रता कर उन्होंने उन्हें गले लगाया। उन्होंने सबरी के झूठे बेर खाकर उनके प्रेम को स्वीकार किया। राक्षसी विचारों को छोड़, मानव सभ्यता में एकमत होने के लिए उन्होंने बारंबार राक्षसों के यहाँ अपने दूत भेज उन्हें सन्देश भेजे। राक्षस मानव विरोधी हो गए थे, पूर्व में वे ऐसे नहीं थे। यही कारण था की श्री राम उन्हें बारंबार चेतावनी देकर सुधरने का अवसर दे रहे थे। जब शांति संदेश से राक्षस नहीं माने तब युद्ध हुआ, और राक्षसों की उसमें हार हुई। हार के बाद जो राक्षस रह गए, उन्होंने सभी के साथ प्रेम से रहना स्वीकार कर लिया।
राम राज्य की सुंदरता को गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रामचरितमानस काव्य में इतनी सुंदरता से व्याखित किया है, की उसे पढ़कर ही आनंद आ जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-
राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब शोका॥
बैर न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥
बरनाश्रम निज निज धरम, निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहिं भय शोक न रोग॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहिं ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज शरीरा॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥
राम राज नभगेस सुनु, सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन, कृत दुख काहुहि नाहिं॥
भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला॥
भुवन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥
सो महिमा खगेश जिन्ह जानी॥ फिरि एहिं चरित तिनहुँ रति मानी॥
सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिवर दमशीला॥
राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकहिं फनीश शारदा॥
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी। तिय मन बच क्रम पति हितकारी॥
दंड जतिन कर भेद जहँ, नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहिं सुनिय अस रामचंद्र के राज॥
फूलहिं फलहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन॥
खग मृग सहज बैर बिसराई। सबनि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥
शीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा॥
लता बिटप माँगे मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेता भइ कृतजुग कै करनी॥
प्रगटीं गिरिन बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। शीतल अमल स्वाद सुखकारी॥
सागर निज मरजादा रहहीं। डारहिं रतन तटनि नर लहहीं॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिशा बिभागा॥
बिधु महि पूर मयूखनि, रबि तप जेतनेहिं काज।
माँगे बारिद देहिं जल, रामचंद्र के राज॥
~ जय श्री राम ~
सन्दर्भ : वाल्मीकि रामायण, तुलसी रामचरितमानस और लेखक की कल्पना ….
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