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रस के सिद्धांत और भारत की फ़िल्में

“प्यासा” फिल्म के भी लेखक अबरार अल्वी थे। गुरुदत्त की फिल्मों के लेखन के लिए उन्हें ख़ास तौर पर याद किया जाता है। “प्यासा” फिल्म में जो उन्होंने तवायफ का किरदार गढ़ा था (वहीदा रहमान वाला), वो उन्होंने एक वेश्या के नाम पर ही लिया था। अबरार अल्वी अपने दोस्तों के साथ मुंबई के किसी “रेड लाइट एरिया” में गए थे और वहाँ गुलाबो नाम बताने वाली एक वेश्या ने उनसे कहा था कि जहाँ मुझे हमेशा गालियाँ ही मिलती रहीं, वहाँ पहली बार किसी ने मुझसे इज्जत से बात की है। अबरार अल्वी का कहना था कि उन्होंने बिलकुल वही डायलॉग फिल्म में इस्तेमाल किया था। आप सोच सकते हैं कि गुलाबो नाम की किसी 1957 की फिल्म की तवायफ में, सचमुच के व्यक्ति पर आधारित होने के अलावा क्या ख़ास बात हो सकती है?

ख़ास बात ये थी कि गुलाबो नाम की ये किरदार गुरुदत्त की फिल्म में थी। गुरुदत्त की फिल्मों का प्रभाव दशकों बाद तक भी फिल्म बनाने वालों का पीछा नहीं छोड़ता। बाद की कई फिल्मों तक जो किसी तवायफ को “अरे मेरी गुलाबो” बुलाया जाना सुनते आये हैं, वो “प्यासा” से प्रेरित नहीं था, ऐसा कहा जा सकता है क्या? मौलिकता का दावा ठोकने वाले हो सकता है इस बात पर थोड़ा असहज होने लगें। जबकि सच्चाई ये है कि मौलिक कुछ भी होता नहीं। अक्सर जिसे काफी प्रचलित देखा जा रहा होता है, वो भी “प्रेरित” होता है। अगर खुद गुरुदत्त की फिल्मों में ही ऐसी “प्रेरणा” की बात करें, तो इसी “प्यासा” फिल्म में एक किरदार जोनी वॉकर ने भी निभाया है।

अब्दुल सत्तार नाम के इस किरदार पर “सर जो तेरा चकराए” वाला प्रसिद्ध सा तेल मालिश वाला गाना फिल्माया गया था। ये गाना आर.डी. बर्मन में बनाया था जो कि एक अंग्रेजी फिल्म “हैरी ब्लैक” की एक धुन से प्रेरित था। एक बाघ के शिकार पर बनी ये फिल्म बाद में “हैरी ब्लैक एंड द टाइगर” नाम से रिलीज़ हुई थी। इस “20थ सेंचुरी फॉक्स” की फिल्म के निर्माता जब भारत आये और उन्हें ये गाना सुनाया गया तो उन्होंने संगीत को पहचाना नहीं, उल्टा धुन की तारीफ की। बाद में उन्हें बताया गया कि ये तो उनकी ही फिल्म की एक धुन से प्रेरित है! इस फिल्म के बारे में ऐसा भी माना जाता है कि ये फिल्म गीतकार साहिर लुधियानवी और उनके प्रेम प्रसंग (अमृता प्रीतम) से प्रेरित है। मुझे ऐसा होने की कोई संभावना नहीं लगती क्योंकि मूल कहानी के पेंटर को गुरुदत्त ने बाद में बदलकर कवि बना दिया था।

शुरू में जो तवायफ की बात की थी, वो इसलिए क्योंकि बात तो “रस” के सिद्धांत की करनी थी। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और भारतीय नाटकों से जुड़े अन्य कई ग्रंथों में नौ रसों की बात होती है। बाद के सेक्युलर दौर के समीक्षकों ने फिल्मों की समीक्षा रसों के आधार पर नहीं की। श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीभत्स, भयानक, वीर और अद्भुत रस या फिर उनसे जुड़े भावों रति, हास्य, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, और विस्मय की बात नहीं होती। नौ रसों की बात करने के तुरंत बाद आठ ही रस इसलिए गिनवाए हैं क्योंकि नौवां रस शांत रस कहा जाता है। उसके बारे में माना जाता है कि उसे बाद में जोड़ा गया। समीक्षा रसों के आधार पर क्यों नहीं की जाती है, इसका कारण लिखने वालों की जानकारी और पढ़ने वालों में रूचि की कमी, दोनों ही हो सकता है।

रसों के आधार पर “प्यासा” फिल्म का एक तवायफ वाला ही दृश्य देखा जा सकता है। इस दृश्य में तवायफ किसी के सामने नृत्य पेश कर रही होती है और नेपथ्य से बच्चे के रोने की आवाज आती है। सारंगी-तबले के संगीत के बीच बच्चे का रोना तुरंत कचोटता है। तवायफ के ही बच्चे के रोने का स्वर था, बच्चा शायद भूखा रहा होगा। तवायफ अपने बच्चे को देखने-दूध पिलाने जाना चाहती है लेकिन ग्राहक उसे रोक लेता है। जाने नहीं देता। मातृत्व के साथ करुणा-स्नेह जैसे भाव तो जुड़े ही होते हैं, तो इस दृश्य में कौन सा रस, कौन सा भाव होगा? करुण रस होगा तो क्या उसके साथ विस्मय का भाव होगा? एक तवायफ भी माँ तो है ही, इस बात पर कुछ लोगों को विस्मय (आश्चर्य) हो सकता है।

दूसरी ओर वीभत्स रस की बात हो सकती है क्योंकि तवायफ का ग्राहक दिखा तो उसके प्रति तो जुगुप्सा और क्रोध के भाव उपजे थे। ये दोनों भाव करुण रस से जुड़े हुए तो नहीं होते। इतने से ये तो स्पष्ट है कि एक ही दृश्य में कई रस हो सकते हैं, एक दर्शक या समीक्षक जिस भाव को पकड़ता है, वो दूसरे से अलग भी हो सकता है। फिल्मकार या दिखाने वाला जो दिखाना चाहता था, वही दिखा या नहीं, जो दिखा केवल वही था, या और भी बातें थीं जो एक बार में दिखी नहीं, ऐसे कई सवाल हो सकते हैं। रसों की बात को फ़िलहाल यहीं रोककर प्रेरणा और चौर्यकर्म पर चलते हैं।

अंग्रेजी में लिखी गयी ऑस्टिन क्लेओन की एक प्रसिद्ध सी पुस्तक है “हाउ टू स्टील लाइक एन आर्टिस्ट”। अपनी किताब की शुरुआत में ही वो लेखक जोनाथन लेथेम के हवाले से कहते हैं कि जब कोई कहता है कि ये “मौलिक” है, तो दस में से नौ बार वो मूल स्रोतों या सन्दर्भ के बारे में नहीं जानते। इसपर बल देते हुए वो बाइबिल से उदाहरण देते हुए कहते हैं कि “सूर्य के नीचे दिखता कुछ भी नया नहीं है।” (एक्क्लेसिअस्टेस 1:9)

ये जब मेरे जैसे किसी व्यक्ति के हाथ आयेगा तो क्या होगा? हम इसे भी एक कदम और आगे बढ़ा देते हैं और कहते हैं कि जो बाइबिल में लिखा गया वो भी कोई नया नहीं था। वो केवल बदला हुआ स्वरुप है –

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12

यानि किसी काल में मैं नहीं था, तुम और ये राजा लोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में) मैं, तू और राजलोग – हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है। भगवद्गीता के चौथे अध्याय के शुरूआती हिस्से (पाँचवे श्लोक के आस-पास) में देखेंगे तो वहाँ भी आपको करीब-करीब यही लिखा हुआ मिलेगा की जो हो रहा है, वो पूर्व में भी घटित हुआ है और आगे भी दोहराया जाएगा। इसलिए ये कह देना कि जो बाइबिल में बाद में लिखा गया वो भी पहले भगवद्गीता में लिखा हुआ था, बहुत अनुचित तो नहीं लगता!

हमलोग रसों की बात कर रहे थे, तो चलिए वापस रसों पर ही चलें और इस बार एक प्रसिद्ध संस्कृत नाटक “मृच्छकटिक” को लेते हैं। इस नाटक का नाम जिस प्रसंग के कारण पड़ा है उसमें आपनी धाय माँ के पास मचल रहे चारुदत्त के बच्चे के हाथ में मिट्टी की गाड़ी है। जुए में सबकुछ हार जाने के कारण पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती लेकिन जहाँ वो रहता है उसके पड़ोसी बच्चे सोने की गाड़ी से खेल रहे होते हैं। वसंतसेना वहां आती है तो बच्चे के मचलने का कारण पूछती है। जब उसे कारण पता चलता है तो वो अपने स्वर्णाभूषणों को उतार कर गाड़ी पर रख देती है।

बच्चा जानना चाहता है कि ये स्वर्णाभूषण देने वाली कौन है तो धाय माँ बच्चे को बताती है कि ये तुम्हारी माँ है। बच्चा विश्वास नहीं करता, वो कहता है मेरी माँ होती तो इतने स्वर्णाभूषण पहने नहीं होती! उसकी बातें सुनकर आभूषण उतारती वसंतसेना की आँखों से आंसू बहने लगते हैं। बच्चा कहता है कि तुम रोते हुए आभूषण दे रही हो। वो किसी को रुलाकर अपने अच्छे खिलौने का प्रबंध नहीं करना चाहता था इसलिए बच्चा आभूषण लेने से मना कर देता है। तबतक वसंतसेना आभूषण उतार चुकी होती है। वो कहती है, अब तो मैंने सोने के आभूषण भी नहीं पहने, अब हो गयी न मैं तुम्हारी माँ?

“मृच्छकटिकम्” का शाब्दिक अर्थ मिट्टी का खिलौना या मिट्टी की गाड़ी होता है। दस अंकों के शूद्रक के इस नाटक का नाम सिर्फ इसी एक हिस्से से निकलकर आता है। अब यहाँ रस के बारे में सोचा जाए तो क्या करुण रस होगा? वसंतसेना का उस बच्चे रोहसेन के प्रति जो वात्सल्य का भाव है, वो करुणा जगाता है। चारुदत्त का बालक सोने के खिलौने से खेलना तो चाहता है, लेकिन किसी को रुलाकर गहने लेना उसे स्वीकार्य नहीं। इस स्वाभिमान को क्या वीर रस कहा जाए? बच्चा तलवार लिए किसी बाह्य आक्रमणकारी से तो नहीं लड़ा लेकिन अपने ही मन के भावों से तो वो जूझ ही रहा था।

एक बार फिर नाटक से वापस फिल्मों पर आते हैं। इस बार कोई “प्यासा” जैसी बहुत प्रसिद्ध सी फिल्म नहीं, बल्कि अज्ञात सी एक अंग्रेजी (अमेरिकी) फिल्म “शूट ‘एम अप” है। इसे एक्शन फिल्मों की श्रेणी में डाला जाता है। मूलतः इसकी कहानी एक ऐसे नायक की है जो हिंसा के लिए अत्यंत प्रशिक्षित और अभ्यस्त है। उसके हाथ एक नवजात शिशु आ जाता है जिसकी हत्या कर देने पर कई अपराधकर्मी तुले होते हैं। शिशु को बचाने के प्रयास में वो उसे एक वेश्या के पास ले जाता है जिसका बच्चा असमय मृत्यु को प्राप्त हुआ था ताकि बच्चे को माँ का दूध मिल सके।

एक दृश्य में हमलावरों से निपटने के लिए वो हथियारों का प्रबंध कर ही रहा होता है कि वो वेश्या बच्चे के साथ गायब दिखती है। नायक ढूंढता है तो पाता है कि बच्चे को गली में एक किनारे रखकर वो किसी ग्राहक को संतुष्ट कर रही थी! फिर पता चलता है कि वो ऐसा क्यों कर रही थी। जो पैसे मिले उससे वो बच्चे के लिए एक बुलेटप्रूफ जैकेट खरीदती है! “प्यासा” फिल्म की माँ तवायफ थी और यहाँ भी वेश्या है। “प्यासा” की तरह ही “शूट ‘एम अप” में भी वेश्या के ग्राहक के प्रति जुगुप्सा का भाव, घृणा ही उपजेगी। रस के रूप में, करुणा भी दोनों दृश्यों में है, ऐसा कहा जा सकता है।

एक ही दृश्य से अलग-अलग रसों की उत्पत्ति में यहाँ एक बात और ध्यान देने लायक है। एक उदाहरण यहाँ नाटक का है और नाटकों में कलाकार बदल सकते हैं। बार-बार मंचन में कलाकारों के मनोभाव भी बदले हुए हों, अभिनय की क्षमता पर प्रभाव पड़े, ऐसा भी होगा ही। नाटक के निर्देशक भी बदल सकते हैं, मंच को भी बदला जा सकता है। इनकी तुलना में फ़िल्में स्थायी होती हैं। जो दृश्य एक बार कैमरा में रिकॉर्ड हुआ, एडिटिंग के बाद प्रदर्शित हुआ, वो हर बार वही रहेगा। इस वजह से नाटकों में जहाँ हर बार किसी भिन्न रस पर बल दिया जा सकता है, वहीँ फिल्मों में रस बदलना केवल दर्शक की दृष्टि पर निर्भर है।

वापस अगर चौर्यकर्म पर चलें, जिसका बार बार जिक्र किया है, तो यहाँ भगवद्गीता, “हाउ टू स्टील लाइक एन आर्टिस्ट”, मृच्छकटिकम्” सहित कई ग्रंथों का भी जिक्र आया है। तो ये जो लिखा गया, वो मौलिक था भी या ये कुछ ऐसा है जो पहले ही कई बार लिखा जा चुका है? बाकी भारतीय नाट्यशास्त्र के रस के सिद्धांतों पर फिल्मों की समीक्षा नहीं होती की जिस स्थापना के आधार पर ये आलेख था, वो स्वयं कितना मौलिक है? ये समीक्षा हम आपपर ही छोड़ते हैं।

Feature Image credit : youtube.com

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