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महाभारत- एक ज्ञानमय प्रदीप- भाग -२

krishna vedvyasa

पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने महाभारत का परिचय एक इनसाइक्लोपीडिया के रूप में किया है, उन्होंने लिखा है:-

“महाभारत वस्तुतः न महाकाव्य है और न इतिहास ग्रंथ, यह तो एक विश्वकोश है; जिसमें तत्कालीन सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्य सभी पहलुओंपर प्रकाश डालनेवाले सभी विचारों के दर्शन किए जा सकते हैं। सभी तरह का ज्ञान महाभारत में मिल सकता है। महाभारत से पूर्व के ग्रंथों में जिन जिन विषयों का विवेचन किया गया है उन सबका सूक्ष्म दर्शन इस ग्रंथ में किया जा सकता है।

स्वयं ग्रंथकार महर्षि वेदव्यासजी ने अपने इस ग्रंथ का परिचय ब्रह्माजी जी से करते हुए कहा है कि “मैंने इस भारतरूपी अपूर्व काव्यकी रचना की है। इसमें निम्नलिखित विषयों का समावेश होता है : वेदों का रहस्य, उपनिषदों का तत्वज्ञान, अंग-उपांगों की व्याख्या, इतिहास और पुराणका विकास, त्रिकाल का निरूपण, जरा-मृत्यु, भय, व्याधि, भाव अभावका विचार, त्रिविध धर्म और आश्रम का विवेचन, वर्ण धर्म आदि। इन दस श्लोकों में व्यास जी अपने ग्रंथ का पूर्ण परिचय ब्रह्मा जी से किया है।

उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्।

     कृतं मयेदं भगवन् काव्यं परमपूजितम्।।१-१-६१

     ब्रह्मन् वेदरहस्यं च यच्चान्यत्त् स्थापितं मया।

      साङ्गोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया।।१-१-६२

इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत्|

         भूतं भव्यं भविष्यं च त्रिविधं कालसंज्ञितम्||१-१-६३

जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चयः|

           विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम्||१-१-६४

 चातुर्वर्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नशः|

      तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथ्वियाश्र्चन्द्रसुर्ययोः||१-१-६५

ग्रहनक्षत्रताराणां   प्रमाणं  च युगैः सह |

       ऋचो यजूंषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च ||१-१-६६

न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं तथा |

   हेतुनैव समं जन्म दिव्यमानुषसंज्ञितम् ||१-१-६७

तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम् |

   नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च ||१-१-६८

पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम् |

   वाक्यजातिविशेषाश्च लोकयात्राक्रमश्च यः ||१-१-६९

यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम् |

      परं न लेखकः कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते ||१-१-७०

वेदों की श्रुतियों के अर्थ केवल उन्हीं को प्राप्य थे जो ऋषियों द्वारा स्थापित आश्रमों में शिक्षा ग्रहण करने पहुँचते थे। ऐसे में एक बड़ा वर्ग इन ज्ञान के तत्वों से अछूता रह जाता था, उस समय ऋषियों के परिश्रम से ही पुराणों का जन्म हुआ। वे कथाओं के माध्यम से वेदों के रहस्य जन जन तक ले जाने का प्रयोग कर रहे थे। महर्षि वेदव्यासजी ने उन्हीं तपस्वी ऋषियों के परिश्रम को अपनी स्वयं की वर्षों की तपस्या से जोड़कर एक ऐसे ग्रंथ का निर्माण किया जो मानव का हर युग में मार्गदर्शन कर सके।

महाभारत का प्रभाव ये हुआ कि जनता ने इन कथाओं से स्वयं को जोड़ा, उन्हें चर्चाओं के केंद्र में अपनी बात रखने के लिए उपलब्ध पाया। किसानों मजदूरों ने भी लोकगीतों के माध्यम से इसे अपने निकट ही पाया और अपनी समझ को बढ़ाने में इसे उपयोगी ही जाना।

पर क्या किसी मिथ्या प्रचार के कारण हम इस ज्ञान के अक्षय भंडार को स्वयं से दूर करते जा रहे हैं, आज हमें इस पर विचार करना चाहिए। क्योंकि महाभारत ग्रंथ ऐसा ग्रंथ जिसमे सभी प्रकार के दर्शन शास्त्रों का समावेश है। महाभारत से ही हमें श्रीमाद्भाग्वात्गीता प्राप्त हुई, जो श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद का रूप है। ऐसी ही अनेक गीताओं का महाभारत में भिन्न भिन्न स्थानों पर जन्म हुआ है। उनमे यक्ष-युधिष्ठिर संवाद, नारद-युधिष्ठिर संवाद, भीष्म-युधिष्ठिर संवाद, विदुर-धृतराष्ट्र संवाद (जिसे विदुर नीति के रूप में जाना जाता है) का भी समावेश है।

महाभारत को केवल लड़ाई झगड़ों वाला ही ग्रंथ मान लेना एक बड़ी भूल है। आचार्य बलदेव उपाध्याय जी ने लिखा है कि “वेदव्यासजी का अभिप्राय महाभारत लिखकर केवल युद्धों का वर्णन नहीं है, अपितु इस भौतिक जीवन की निःसारता दिखला कर प्राणियों को मोक्ष के लिए उत्सुक बनाना है। इसलिए महाभारत का मुख्य रस शांत है, वीर तो अंगभूत है।”

समय समय पर अनेक विद्वान कवियों ने महाभारत की कथाओं से ही प्रेरणा लेकर अपने काव्यों की रचना की है, जिनमे महाकवि कालिदास का नाम प्रमुख है। इसी कारण से विधा निवास मिश्र जी ने कहा है कि “जब कभी भी अंधकार के क्षण में किसी रचनाकार को राह नहीं दिखती है, तो उसे महाभारत से आलोक मिलता है। इसीलिए महाभारत ज्ञानमय प्रदीप कहा गया है।”

महाभारत इस भारत नामक राष्ट्र का हृदय है। अध्यात्म,धर्म तथा नीति की विशद विवेचना ने इस महाभारत को भारतीय धर्म तथा संस्कृति का विशाल विश्वकोश बनाया है, और इसी से प्रेरणा लेकर महर्षि वैशम्पायन जी ने कहा है:

धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।

             यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्।।१-६२-५३

अर्थात धर्म,अर्थ काम मोक्ष के संबंध में जो बात इस ग्रंथ में है, वही अन्यत्र भी है। जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं है।

सन्दर्भ:

महाभारत – आदिपर्व – पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी (स्वाध्याय मंडल पारडी)

महाभारत – आदिपर्व – पंडित रामनारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय (गीताप्रेस गोरखपुर)

महाभारत का काव्यार्थ – पंडित विद्या निवास मिश्र – नेशनल पब्लिशिंग हाउस

संस्कृत साहित्य का काव्य – श्री बलदेव उपाध्याय – शारदा मंदिर वाराणसी

महाभारत एक दर्शन – दिनकर जोशी – प्रभात प्रकाशन

महाभारत- एक ज्ञानमय प्रदीप- भाग -१

Featured Image Credits: FirstCry

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