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परम्परा और धर्म

त्यौहार मानना अगर धर्म का हिस्सा है तो उसे कैसे मानना है ये परम्परा का हिस्सा। त्योहारों के अवसर पर जिन परिधानों में लोग नजर आते हैं, उसे भी परम्परा का ही हिस्सा माना जाना चाहिए। दूसरे कुछ रिलिजन-मजहबों की तुलना में सनातनी परम्पराएं कहीं अधिक पुरानी होती हैं। ऐसे में दोनों इतनी घुली-मिली होती हैं कि कौन सी परम्परा है और कौन सा धर्म, इनमें अंतर करना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के तौर पर आप इसे विवाह में देख सकते हैं। शादी-विवाह में सात फेरे लेने के बारे में तो सुना ही होगा। जैसा फिल्मों में या टीवी सीरियल में दिखाते हैं, वैसे सात फेरे अपने विवाह में किस किस ने लिए थे? आज जो शादी से थोड़ा सा पहले वरमाला की रस्म सी होती दिखती है, उसके बारे में जरा एक दो पीढ़ी पहले के लोगों से पूछकर देखिये, कम ही लोग होंगे जिन्होंने दो पीढ़ी पहले ऐसी कोई वरमाला की रस्म देखी होगी। अब ये भी परम्परा का हिस्सा है।

परम्पराओं को समझने का सबसे आसान तरीका शायद जूते उतारना हो सकता है। भारत के बारे में आपको पता है कि ये लम्बे समय तक कृषि प्रधान देश रहा है। चावल की खेती भी भारत से ही शुरू हुई थी। जब कोई व्यक्ति खेतों से घर लौटेगा तो क्या होगा? उसके पैरों में कीचड़ और मिट्टी लगी होगी। सारी गंदगी साथ ही अन्दर न आ जाए इसके लिए जूते-चप्पल बाहर ही उतार दिए जाते थे। हाथ-पांव धोकर अन्दर आते थे। ये परम्परा आगे भी चलती रही और आज ये सम्मान प्रदर्शित करने का तरीका होता है। घरों-मंदिरों के अन्दर जूते उतार कर घुसने की परम्परा में शुरुआत में धार्मिक कारण कम और साफ़-सफाई ज्यादा बड़ा कारण रही होगी। यही आप जापान में भी देख सकते हैं जहाँ जूते उतार कर घरों में घुसते हैं। ऐसा माना जाता है कि कभी 1868 से 1912 के दौर में जिसे मिजी काल कहा जाता है तब वहां ये परम्परा विकसित हुई।

भारत की दूसरी परम्पराओं में भी इसे देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर आप होली को ले लीजिये। इससे प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप-होलिका और नरसिंह अवतार की धार्मिक कथाएँ भी जुड़ी होती हैं। भारत के पर्यावरण और सामाजिक नियमों के हिसाब से देखेंगे तो यहाँ जंगलों, वन्य जीवों को भी सिर्फ आहार या मनुष्यों के भोग के लिए पैदा हुआ नहीं माना जाता। उनका उचित ध्यान रखने की सलाह धार्मिक ग्रंथों में भी दी जाती है। जब होली का त्यौहार आता है, उसी समय भारत में गर्मियां शुरू होती है। तेज हवाओं वाले इस सूखे मौसम में आग भी लगती है और अभी भी करीब-करीब होली के वक्त ही भारत का वन विभाग आग से चेतावनी के विज्ञापन भी अख़बारों में देने लगता है। इसे रोकने के लिए परंपरागत रूप से क्या प्रयास किये जायेंगे?

जिन बेकार इधर-उधर पड़ी लकड़ियों में आग लगने की संभावना है, ऐसा सारा कचड़ा अगर समुदाय इकठ्ठा कर ले और उसे अपनी निगरानी में जला दे तो आग को फैलने के लिए सूखी लकड़ी कम मिलेगी। होलिका दहन के नाम पर हम ये प्रयास सदियों से करते आ रहे हैं। इसके अलावा सूखे मौसम की वजह से जो आद्रता की कमी हो गयी है, वो पानी और रंग मिले पानी के गलियों मुहल्लों में छीटे जाने से थोड़ी कम हो जाएगी। आज भी अगर छोटे कस्बों में आप देखेंगे तो धूल न उड़े, थोड़ी ठंडक और आद्रता रहे, इसके लिए घरों-दुकानों के बाहर पानी का छिड़काव इसी मौसम में शुरू होता दिख जाता है। यहाँ से हमें ये समझ में आता है कि कैसे समय के साथ धार्मिक विधियाँ और सामाजिक परम्पराएं एक साथ मिलकर संस्कृति का निर्माण करती हैं।

परम्पराओं को धर्म के बीच से चुनकर देखना हो जैसा कि हमने शुरू में विवाह के संस्कारों की बात की थी, वहाँ सबसे आसानी से दिख जाता है। कैसे कपड़े पहनकर विवाह होगा, ये परम्पराओं का हिस्सा है और ये स्थानीय, हर जगह अलग-अलग होता है। जो मंत्रोच्चार होंगे वो धार्मिक विधियों का हिस्सा हैं क्योंकि सोलह सनातनी संस्कारों में से एक विवाह भी होता है, इसलिए मंत्रोच्चार हर जगह एक से ही होते हैं। विवाह के समय या मुहूर्त को देखेंगे तो आप पाएंगे कि ये उत्तर भारत में जहाँ कि लगातार विदेशी आक्रमण झेलने पड़ते थे, उन अधिकांश स्थानों में रात का समय हो गया। दक्षिणी भारत के क्षेत्रों में या उत्तर-पूर्वी राज्यों में ये अभी भी दिन के समय होता दिख जायेगा।

भारत में धार्मिक तौर पर विविधताएँ जितनी मान्य होती हैं, उतनी अन्य देशों के रिलिजन या मजहब में नहीं होतीं। इस वजह से जब विदेशियों ने भारत में “एन्थ्रोपोलॉजी” के अध्ययनों में पाया कि यहाँ तो हर दो-चार कोस पर व्यवस्था ही बदल जाती है तो उन्होंने इसे अपने तरीकों से समझने का प्रयास किया। जैसे मैक डेनियल (2007) हिन्दुओं को छह धाराओं में बांटकर समझने की कोशिश करते हैं:

  1. फोक या लोक मत जिसमें ग्राम देवता या ऐसे विचार होते हैं जो संभवतः लिखित रूप में वेदों के आने से पहले के मान लिए गए।
  2. श्रौत यानि “वैदिक” हिन्दू परम्पराएं जिसका श्रौती ब्राह्मण पालन करते हैं।
  3. वेदान्तिक हिंदुत्व जो स्मार्त परम्पराओं और अद्वैत वेदांत जैसी चीज़ों के साथ चलता है।
  4. यौगिक जो कि योग और पतंजलि के सूत्रों के हिसाब से चलता है।
  5. धार्मिक जो अधिकांश कर्म फल के सिद्धांत और विवाह जैसी मान्यताओं को मानते हैं।
  6. और भक्ति।

ऐसी ही कोशिश और भी कई विदेशियों ने की है, जो कि अगर किसी अभ्यास करने वाले या सनातनी परम्पराओं का पालन करने वाले के हिसाब से बचकानी या बेवकूफी भरी लग सकती है। हिन्दुओं के पक्ष से इस दिशा में बहुत कम लिखा गया है इसलिए इसे समझना थोड़ा सा मुश्किल हो जाता है। हाल के दौर में इस विषय पर कुछ किताबें आने लगी हैं, और वो हमारे पक्ष से भी बात करती है। अशोक मिश्र ने हाल ही में “हिन्दूइज्म” नाम की एक किताब लिखी है जो अधिकांश धार्मिक परम्पराओं के बारे में है। संस्कृति से धर्म कैसे अलग होता है इसे समझने के लिए एक बात ये भी ध्यान में रखी जा सकती है कि संस्कृति में स्थानीय नृत्य कलाओं, भाषा, रहन-सहन, कला जैसी कई चीज़ों का समावेश हो जाता है।

इन्हें अलग कर के समझना भारत के परिपेक्ष में मुश्किल इसलिए भी हो जाता है क्योंकि यहाँ तो साहित्य में भी कई जगह धार्मिक कथाएँ मिलती हैं। ऐसे ही नृत्य कला में धार्मिक कथाओं का मंचन होता है, गायन में भजन और ईश्वर का नाम होना कोई बड़ी बात नहीं। भाषा के स्तर पर अभिवादन में ही राम-राम कहा जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि रिलिजन जैसी संकीर्ण सी चीज़ को धर्म कहते ही नहीं। धर्म कम से कम पाँच अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है। यही वजह है कि जब संस्कृति और धर्म की बात हो तो हमें अपनी बात अपने पक्ष से रखनी ही होगी। ये पुस्तकों की शक्ल में हो सकती है, सार्वजनिक चर्चाओं में भी इसे शामिल करना होगा। संस्कृति को अभी का भारतीय संविधान जो थोड़ी सी जगह देता है, उस छोटी जगह को भी हमें बढ़ाना होगा। सबसे लम्बे समय लगातार चलती आ रही संस्कृति के देश में धर्म से अलग संस्कृति का जिक्र संविधान में इतना कम हो, ऐसा तो नहीं चल सकता।

अंत में एक नाइजीरिया की कहावत जिसे जाने माने लेखक ने दोहराया था, उसे याद रखिये। जबतक शिकार के किस्से शेर अपने पक्ष से सुनाना नहीं शुरू करते, तबतक शिकार की कहानियों में शिकारी का महिमामंडन होता रहेगा।

Image Credit: Flickr (ampersandyslexia)

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