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बच्चे और धर्म

सम्मलेन “साइबर क्राइम” पर था और चूँकि ऑनलाइन गालीगलौच से अक्सर कम उम्र के या सोशल मीडिया पर नए आये लोगों के अवसाद में जाने की घटनाएँ होती रहती हैं, इसलिए वहाँ एक मनोवैज्ञानिक भी मौजूद थे। महिलाओं में से एक ने प्रश्न किया कि मोबाइल और सोशल मीडिया बच्चों के लिए घातक है, ये तो समझ में आता है, मगर बच्चों को फोन से दूर रखना तो ख़ासा मुश्किल काम है। वो तो मौका पाते ही फोन झपट लेते हैं और न देने पर रोना-धोना बंद करवाना भी काफी मुश्किल होता है! जवाब में मनोवैज्ञानिक ने प्रतिप्रश्न किया, अगर मैं आपके घर ऐसे वक्त आऊं जब आप कोई काम न कर रही हों, तो आप क्या करती मिलेंगी? क्या आप अपने मोबाइल फ़ोन में कोई वीडियो देख रही होंगी, या खाली समय में व्हाट्सएप्प वगैरह पर चैटिंग कर रही होंगी?

जब कई महिलाओं का जवाब हाँ में आया तो मनोवैज्ञानिक ने अपनी आगे की बात रखी। बच्चे वही सीखते हैं जो वो बड़ों को करते देखते हैं। इससे पिछली पीढ़ी में संभवतः कई लोग शाम में टीवी शो देखते पाए जाते थे तो अगली पीढ़ी यानी हम लोगों ने बचपन में वो सीख लिया। फिर अब जब वही टीवी शो वगैरह मोबाइल पर भी आने लगे तो हमारी पीढ़ी अपने खाली समय का काफी हिस्सा फोन पर बिताने लगी। किताबें पढ़ना, सिलाई-बुनाई, चित्रकारी जैसे शौक को अब उतना समय नहीं दिया जाता। बच्चे जो भी बड़ों को करते देखते हैं, वो उसी की नक़ल करके सीखते हैं। ऐसे में वो लगातार सभी को मोबाइल फ़ोन में व्यस्त देखने लगे, तो बाहर खेलने जाना, चित्रकारी या पढ़ने जैसी चीज़ें वो सीखेंगे कहाँ से?

इसी को थोड़ा आगे ले आकर आप ये सोचिये कि क्या आपको कोई भजन, पूरा न सही कोई एक दो वाक्य ही, याद हैं? जो याद हैं, क्या वो वही नहीं हैं जो आपके घर में कोई रिश्तेदार, संभवतः दादी-नानी जैसे कोई लोग गुनगुनाया करते थे? पूजा-पाठ जैसे तरीके भी आपने अपने परिवार के लोगों को जैसे करते पाया, वही सीखा है। जब आप खुद तिलक लगाये नहीं दिखते, पूजा नहीं करते, बच्चों को साथ लेकर मंदिर नहीं गए, तो आज थोड़ा बड़े होने पर, किशोरावस्था में आने पर वो अगर ये सब नहीं कर रहे हैं तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए? ध्यान रहे किशोरावस्था तेरह वर्ष की आयु पर शुरू और उन्नीस पर ख़त्म मानी जाती है, और कानूनी तौर पर 18 से कम उम्र का कोई भी बच्चा ही है। ऐसे में हम जिन्हें बच्चा कह रहे हैं वो अगर 13 से 18 के बीच के हैं तो किशोरावस्था वाला विद्रोही स्वभाव और बच्चों वाली जिज्ञासा दोनों का सामना करना होगा।

अगर आप ये नहीं बता सकते कि कोई त्यौहार क्यों मनाया जाता है, तो क्या होगा? उदाहरण के तौर पर दुर्गा पूजा क्यों मनाई जाती है, ये अगर आपने नहीं बताया तो नतीजा यही होगा कि कोई और इयान डीकॉस्टा जैसा अपने फॉरवर्ड प्रेस के जरिये आकर जब उसे सिखा देगा कि महिषासुर एक मूल निवासी राजा था जिसे विदेशी दुर्गा ने छल से मार दिया तो उसके पास विश्वास करने के सिवा क्या चारा होगा? आपने तो कुछ बताया ही नहीं था। ऐसे ही जब आप नहीं बताते कि होली के आस-पास भारत में मौसम सूखा और गर्म होने लगता है। ऐसे मौसम में ही वन विभाग आग लगने की चेतावनियाँ जारी करना शुरू करता है। हिन्दुओं में परंपरागत रूप से आग जिन लकड़ियों में लग सकती हो उसे होलिका दहन में इकठ्ठा करके जला देते हैं और होली पर पानी का छिड़काव वातावरण में आद्रता बढ़ा देता है।

छोटे कस्बों-गावों में अब भी इस मौसम के शुरू होते ही घरों दुकानों के सामने पानी का छिड़काव करके सूखी लकड़ियों, जाड़े के बाद टूटे पत्तों, कागज और दूसरे ज्वलनशील कचरे को इकठ्ठा किया जाने लगता है। फिर सामुदायिक रूप से कई लोगों की निगरानी में इसे जला दिया जाता है ताकि आग को खुराक न मिले। रिहाइशी इलाकों में पानी के छिड़काव से आद्रता रहेगी, तो आस पास जंगलों में आग लगेगी तो भी मनुष्यों की आबादी वाले इलाके का अधिक नुकसान नहीं हो पायेगा। लेकिन आपने तो ये सिखाया ही नहीं! ऐसे में जब उसे कोई होली को पानी की बर्बादी बताएगा तो वो क्यों पूछेगा कि एक लीटर पानी साफ़ करने में जो आरओ नौ लीटर पानी बर्बाद कर देता है, उसे रोककर पानी बचाओ। वो क्यों बहकाने वाले को याद दिलाएगा कि दो-दो कारों को धोने में जो हर रोज पानी बर्बाद होता है, उसे बचाया जाए।

दीपावली के समय जब कोई उसे धुंए या प्रदुषण की सीख देने लगे तो जब उसे आपने ये पहले से बताया हो कि दफ्तरों में चौबीसों घंटे चलने वाले एसी का जो पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है, उसे भी देखा जाए, तभी वो इस बारे में पूछेगा। वर्ष भर कार पूल या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग, फ्रिज बंद रखना, सिगरेट छोड़ना जैसा कुछ किसी ने किया है जो उससे पूछने आया है दीपावली के प्रदुषण पर, ये तो आपको याद दिलाना होगा। ऐसे सभी मसलों पर अगर आप सर हिलाते हुए कहते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी धर्म से कटती जा रही है तब असल में उसकी ओर इशारा करते वक्त आपके ही हाथ की तीन उँगलियाँ आपकी तरफ मुड़ जाती हैं। कहीं न कहीं पिछली पीढ़ी ने उसे सिखाने, उसे बताने में कमी छोड़ी इसी लिए आज उसकी जानकारी कम है। कहीं न कहीं पिछली पीढ़ी ने उससे संवाद कम रखा, छोड़ दिया, या उसकी भाषा, उसे समझ में आने वाली शैली में नहीं किया, इसी लिए आज उसकी इस विषय में रूचि कम है।

याद रखिये कि जब आप कोई पौधा लगाते हैं और वो उस तरह फलता-फूलता, या पनपता नहीं जैसा उसे बढ़ना चाहिए था तो आप पौधे को दोष देने नहीं बैठते। आप देखते हैं की कहीं खाद-मिट्टी अनुपयुक्त तो नहीं, कहीं पानी ज्यादा या कम मिला हो ऐसा तो नहीं, कहीं वातावरण तो पौधे के लिए प्रतिकूल नहीं था? इसलिए जब ऐसे सवाल सामने आयें तो हमें सोचना होगा कि हमसे कहाँ कमियां रह गयी हैं। हमें आज ये अच्छी तरह मालूम है कि संविधान में सेक्युलर का हिन्दी अर्थ पंथनिरपेक्ष लिखा हुआ है, लेकिन उसे धर्म-निरपेक्ष बनाकर स्कूलों के पाठ्यक्रम से धर्म सम्बन्धी शिक्षा हटा ली गयी है। ये बच्चों ने नहीं हमारी आपकी, या हमसे पीछे की पीढ़ियों ने किया है। घर में अगर हमने सिखाया नहीं और स्कूल-कॉलेज में ये पाठ्यक्रम में था ही नहीं तो वो सीखेगा कहाँ से? प्रकृति खाली जगह के खिलाफ काम करती है। अगर आप गड्ढा खोदकर छोड़ दें तो वो अपने आप कीचड़ से भर जायेगा। ऐसे में जो धर्म की जगह आपने नहीं भरी, वहां कचरा भर गया तो आश्चर्य कैसा?

जरुरत है कि हम धर्म सम्बन्धी पुस्तकें अपने घर में लाकर रखें, खुद उन्हें पढ़ना शुरू करें। बच्चों के लिए कौन उसे रुचिकर भाषा में लिखता है ये पता करें और उनके लिए वैसी किताबें लाकर रखें। शुरुआत करके देखिये, धीरे धीरे बदलाव भी नजर आने लगेंगे।

Image Credit: parenting firstcry

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