जैसा कि आपको हम बता चुके हैं कि मेधा ऋषि द्वारा महादेवी और विभिन्न दैत्यों, राक्षसों, दानवों के मध्य युद्धों का वर्णन किया गया है। इन कथाओ का वर्णन महाकाली (पहला अध्याय), महालक्ष्मी (दूसरे से चौथे अध्याय तक), और महासरस्वती (पांचवें से तेहरवें अध्याय तक) में उल्लेखित है। पिछले अंक में हमने आपको महाकाली की कथा से अवगत कराया था। इस अंक में हम आपको महिषासुरमर्दिनी रूप की कथा, जिसका वर्णन मार्कंडेय पुराण के दूसरे से चौथे अध्याय में किया गया है, के बारे में बताने वाले हैं।
इस प्रकरण में देवी महालक्ष्मी को उनके अवतार दुर्गा जो महिषासुर मर्दिनी हैं, के रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक देवी के रूप में, दुर्गा की स्त्री शक्ति में सभी देवताओं की संयुक्त ऊर्जा समाहित है जिन्हें महादेवी या शक्ति के रूप में भी जाना जाता है
इस कथा में महादेवी द्वारा असुरों के राजा रंभा के पुत्र महिषासुर के वध का वर्णन है। एक भैंस और असुर के पुत्र होने के कारण उसका जन्म अलौकिक शक्तियों के साथ हुआ था। यस उस काल की घटना है जब देवता और असुर सदैव युद्धरत रहते थे। इन युद्धों में सामान्यतः देवताओं को ही विजय प्राप्त होती थी। यह स्थिति महिषासुर को सदैव कचोटती थी और प्रतिशोध की अग्नि में जलता महिषासुर प्रायः दुखी रहता था।
उसके पिता से उसका यह दुःख देखा नहीं जाता और उसको महा शक्तिशाली होने के लिए तपस्या में लीन होने का सुझाव देते हैं। महिषासुर भोजन आदि त्याग कर एक पैर पर स्थिर हो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की प्रार्थना में लीन हो जाता है। अनेक वर्षों की तपस्या के पश्चात महिषासुर से प्रसन्न हो कर सृष्टिकर्ता दर्शन देते हैं तथा वरदान मांगने की आज्ञा देते हैं।
महिषासुर को इसी समय की प्रतीक्षा थी और वह अजर-अमर होने का वरदान माँगता है।
ब्रह्मा जी मुस्कुराते हुए कहते है कि वह संभव नहीं है क्यूंकि जिस प्राणी का जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। ब्रह्मा जी दूसरा वरदान मांगने की आज्ञा देते हैं। महिषासुर निराश तो होता है किन्तु शीघ्र ही अपनी कुटिल बुद्धि को संतुलित कर दूसरा वरदान मांगता है। वह श्री ब्रह्मा से याचना करता है कि यद्यपि सृष्टिकर्ता महिषासुर को अमर नहीं कर सकते किन्तु क्या यह वरदान प्रदान कर सकते हैं कि महिषासुर की मृत्यु किसी पुरुष द्वारा नहीं, स्त्री द्वारा हो?
दंभ में चूर असुर को यह प्रतीत हुआ कि वह इतना शक्तिशाली है कि उसका वध किसी स्त्री द्वारा संभव ही नहीं होगा। श्री ब्रह्मा उसको मुस्कुराते हुए तथास्तु कह अंतर्ध्यान हो जाते हैं।
वरदान प्राप्त होने के पश्चात महिषासुर ने चहुँ ओर आतंक मचा दिया। अपने साथी असुरों की विशाल सेना के द्वारा उसने पहले तो पृथ्वी लोक पर अराजकता का वातावरण उत्पन्न कर डाला। ततपश्चात् महिषासुर ने देवताओं को चुनौती देने का निश्चय किया।
इन्द्र को जब यह सूचना प्राप्त हुई कि महिषासुर की सेना उसकी राजधानी अमरावती पर आक्रमण करने वाली है तो इंद्र श्री ब्रह्मा के पास दौड़े जाते हैं। किन्तु श्री ब्रह्मा उनकी किसी भी सहायता करने में आने को असक्षम बताते हैं। युद्ध ही एकमात्र विकल्प जानकर सभी देवगण युद्ध के लिए प्रतिबद्ध हो जाते हैं।
युद्ध में श्री विष्णु की गदा, सुदर्शन चक्र तथा श्री महेश का त्रिशूल भी वरदान कवच से रक्षित महिषासुर को हानि नहीं पहुंचा पाते हैं। इंद्र के शक्तिशाली वज्र का भी महिषासुर पर किंचित प्रभाव नहीं होता तथा असुरों की सेना का युद्ध में प्रकोप बढ़ता जाता है।
अंततः त्रिदेव, ब्रह्मा विष्णु तथा महेश आपस में परामर्श कर इस दुविधा से निपटने का मार्ग ढूंढ ही लेते हैं। श्री विष्णु सुझाव देते हैं,
“हम सभी को श्री ब्रह्मा द्वारा महिषासुर को दिए गए वरदान के बारे में भली भांति ज्ञात है। हम सभी को यह भी ज्ञात है कि समूचे त्रिलोक में एक भी स्त्री इतनी शक्तिशाली नहीं है कि वह इस दुष्ट प्राणी को नष्ट कर सके। इसका एक मात्र उपाय और हल यही है कि ऐसी स्त्री की रचना के लिए हम सभी देवगणों को अपनी संयुक्त शक्तियों का उपयोग करना होगा।”
जैसे ही सभी देवगणों ने ध्यानमग्न हो दैवीय शक्तियों का आव्हान किया, आकाश में प्रकाश स्तंभ प्रकट होता दिखाई दिया। इसी प्रकाश स्तम्भ की संयुक्त शक्ति की उत्पन्न शुद्ध ऊर्जा द्वारा उन्होंने महादेवी की रचना का श्रीगणेश किया।
महादेवी का मुखमंडल शिव के दिव्य प्रकाश का परिणाम बना, यमराज की दिव्य ऊर्जा ने उन्हें लंबे तथा प्रज्वलित केश दिए। विष्णु की सर्वशक्तिमान ऊर्जा ने उनकी शक्तिशाली भुजाओं का निर्माण किया। ब्रम्हा ने उन्हें अपनी दिव्यता का आशीर्वाद दिया और सूर्य की क्षमता ने उनके पैरों को आकार प्रदान किया। वसु ने उसके हाथों की उंगलियों को आकार दिया और कुबेर के कौशल ने उसके नासिका मार्ग को प्रतिरूपित किया। अग्नि देव की शक्ति देवी के त्रिनेत्रों में प्रविष्ट कर गयी।
अस्त्र तथा शस्त्रों तथा उपहारों के रूप में शिव ने महादेवी को त्रिशूल दिया, जबकि श्री विष्णु ने उन्हें चक्र दिया। वरुणदेव ने शंख एवम् अग्निदेव ने माँ को अपनी असीम शक्ति प्रदान की। पवनदेव ने धनुष-बाण भेंट किए तो इंद्रदेव ने अपना वज्र और शक्तिशाली ऐरावत हाथी की घंटी प्रस्तुत की। यमराज ने कालदंड तथा पाश दिया तथा सृष्टिकर्ता ब्रम्हा ने कमंडलतरु की काठ से रचित कमंडल से संवारा।
सूर्यदेव ने माँ के त्वचाछिद्रों को अपनी जीवनदायिनी किरणों से नहला दिया तथा कालदेव ने तलवार और कवच उपहार में दिए। क्षीरसागर ने मोतियों जड़ित माला, मुद्रिकाएँ, कंगन, कर्णफूल, देदीप्यमान वस्त्र तथा केशविन्यास हेतु सौन्दर्य सामग्री भेंट किये। विश्वकर्मा ने कुठार एवम् कमलपुष्पों की माला तथा जलधि द्वारा अत्यंत मोहक कमल पुष्प भेंट किया गया। हिमराज, हिमालय ने महादेवी के वाहन हेतु सिंह उपलब्ध कराया तथा कुबेरदेव ने मधुपात्र भेंट किया। सर्पराज, शेषनाग द्वारा अमूल्य रत्नजड़ित नागहार भेंट किया गया।
अपने वाहन सिंह पर सवार हो माँ देवी अमरावती की ओर प्रस्थान करती हैं। अमरावती आगमन पर उनकी शक्तिशाली गर्जना से पर्वतों में कम्पन एवम् समुद्र में विशाल लहरें हिलोरे लेने लगती हैं। महिषासुर गर्जना सुन आश्चर्यचकित होजाता है तथा अपने सैनिकों से इस हलचल का कारण पूछताहै।
यह ज्ञात होने परकि एक स्त्री महिषासुर को युद्ध की चुनौती दे रही है, वह अट्टहास करता हुआ युद्ध हेतु प्रस्थान करता है।
महिषासुर अपनी असुरों की सेना के साथ महादेवी पर आक्रमण करता है। किन्तु देवीदुर्गा अपने श्वास द्वारा सैनिकों का एक विशाल दल निर्मित कर महिषासुर के आक्रमण को विफल कर देती हैं। महिषासुर के महादेवी पर विजय पाने के सभी उपाय निष्फल होतें हैं तो वह अत्यधिक क्रोधित होकर नए सिरे से आक्रमण की चेष्टा करता है।
महादेवी महिषासुर को क्रोध में अपनी ओर बढ़ते हुए देख उसको यमराज द्वारा दिए पाश से बाँध देती हैं। यह देख महिषासुर अपने भैंस रूप को त्याग कर सिंह स्वरुप धारण करता है। महादेवी सिंह रूप का वध करती हैं तो असुर राज, मनुष्य रूप धारण कर लेता है। मनुष्य रूप के वध पश्चात जब दुष्ट महिषासुर एक विशाल हाथी का रूप धारण करता है तो महादेवी अपनी तलवार से उसकी सूंड काट देती हैं।
अंत में असुर अपने वास्तविक भैंस के रूप में प्रकट होता है किन्तु महादेवी उसकी एक न चलने देती हैं। नव दिवसों तक युद्धरत होने के पश्चात श्री नारायण द्वारा प्रदान किये चक्र द्वारा महादेवी महिषासुर का वध कर देती हैं।
हिंदू धर्म की देवी परंपरा की धार्मिक प्रथाओं में, यह मध्य प्रकरण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यदि कोई समुदाय या व्यक्ति पूरी देवी महात्म्यम रचना का पाठ नहीं कर सकता है, तो पूजा या उत्सव में अकेले मध्य प्रसंग का पाठ किया जाता है। तदुपरांत जब पाठ शुरू होता है, तो मध्य प्रकरण को पूर्ण से पढ़ने की परंपरा है क्योंकि आंशिक पठन से मनोवांछित आध्यात्मिक लाभ की प्राप्ति नहीं होती है।
सन्दर्भ-
- https://www.symb-ol.org/app/download/11179828/Devi+Mahatmyam.pdf
- an article by Anasuya Swain, Orissa Review.
- https://www.louisianafolklife.org/LT/Articles_Essays/NavaratriStory.html
- http://aranyadevi.com/aranyadevi/pdf/Durga_Saptashati.pdf
- https://sanskritdocuments.org/doc_devii/durga700.html?lang=sa
Image credit: picxy
Disclaimer: The opinions expressed in this article belong to the author. Indic Today is neither responsible nor liable for the accuracy, completeness, suitability, or validity of any information in the article.