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भारतीय ग्रंथों तथा पुराणों में देवी दुर्गा का वर्णन – भाग २

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पहले अंक में हम चर्चा कर रहे थे देवी महामाया की, जिनका वर्णन चंडी पाठ, रामायण तथा महाभारत जैसी रचनाओं में पौराणिक काल से चला आ रहा है। पहला तथा सबसे प्रभावशाली वर्णन दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ में किया गया है। जिनकी कथा इस बार हम आपके सामने प्रस्तुत करने वाले हैं।

यह कथा देवी महात्म्य अथवा देवी महामाया की है जो नित्यस्वरूपा हैं, जिनसे संसार रचा गया है किन्तु उनकी बारम्बार अनेक कारणों से उत्पत्ति से होती है। यह कथा उस समय प्रारंभ होती है जब प्रलय के समय सारा संसार  जलमग्न था तथा भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर योगनिद्रा में थे। श्री विष्णु की सुप्तअवस्था के विचार स्वरूप दो दैत्यों, मधु तथा कैटभ, का उनके कर्ण कुहरों से जन्म होता है।

समय व्यतीत होता गया तथा दैत्यों का शरीर विशाल होता गया। एक दिवस उनको बीजमंत्र की ध्वनि सुनाई देती है जिसका परिहास करते हुए वह बारम्बर अभ्यास करते रहे। मंत्र के बारम्बार अभ्यास का प्रभाव दैत्यों पर इस प्रकार हुआ कि वे मंत्र के प्रति मोहित हो गए तथा पूरी एकाग्रता के साथ निष्कपट हो बिना भोजन और निद्रा के अभ्यास में अपने को समर्पित कर दिया।

दीर्घ काल से समर्पित तपस्या से प्रसन्न हो महादेवी ने उन्हें अजेयता और स्वेच्छा-मृत्यु का वरदान दे डालती है। अभिमानरत दैत्य नव प्रकृति की रचना में लीन श्री ब्रह्मा को आतंकित कर युद्ध के लिए ललकारते हैं। श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु से सहायता की याचना करते हैं किन्तु श्री विष्णु के योगनिद्रा में होने के कारण असफल होते हैं। तदोपरांत श्री ब्रह्मा महादेवी से श्री विष्णु ध्यान से बाहर लाने की प्रार्थना करते हैं।

भगवान नारायण ने उनसे सहस्त्र वर्षों तक युद्ध करते हौं किन्तु दैत्य बंधुओं को पराजित करने मे असफल रहते हैं। तथा युद्ध अनिर्णायक बना रहता है। भगवान नारायण अंत में इसका हल निकाल ही लेते हैं। श्री विष्णु चंचलता से मुस्कुराकर दैत्यों के युद्ध कौशल और रणनीति की प्रशंसा करते हैं तथा दैत्य बंधुओं से वरदान मांगने को कहते हैं। योजना अनुसार देवी महामाया दैत्यों की बुद्धि भ्रमित कर देती हैं तथा वे श्री विष्णु से वरदान मांगने की इच्छा प्रकट करते हैं।

श्री नारायण वरदान स्वरुप दैत्यों की मृत्यु श्री नारायण के द्वारा हो, ऐसी कामना दैत्यों से करते हैं तथा दैत्य बंधुओं की मृत्यु-भेद का वरदान मांगते हैं। दैत्य बंधुओं को श्री नारायण इस प्रकार की इच्छा की अपेक्षा नहीं थी। मधु-कैटभ छल करते हैं तथा श्री नारायण से पूछते हैं कि उन्होंने आरम्भ में मधु-कैटभ के युद्ध कौशल से प्रभावित हो जो वरदान मांगने को कहा था क्या वो अभी भी मान्य है? श्री नारायण मुस्कुरा कर हामी भरते हैं।

मधु-कैटभ धूर्तता के साथ हँसते हुए कहते हैं कि वो दोनो भाई श्री नारायण द्वारा ही मृत्यु का वरण करना चाहते हैं किन्तु यह घटना उसी स्थान पर हो जहाँ जल ना हो। दोनो धूर्त तथा कपटी दैत्यों द्वारा इस प्रकार के वरदान की इच्छा इस लिए प्रकट की गयी थी क्यूंकि संसार की रचना अभी अपूर्ण थी। श्री ब्रह्मा जी रचना अभी शेष थी तथा अभी भी जलमग्न था । दैत्यों का विचार था कि जहाँ जल हैं वहां श्री नारायण उनका वध नहीं करेंगे और उनकी मृत्यु असंभव ही रहेगी। श्री विष्णु मुस्कुराते हुए अपने विशाल स्वरुप में प्रकट होते हैं तथा मधु – कैटभ को अपनी जंघाओं पर रख कर चीर देते हैं।

Devi Durga Mahatmya

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