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भारतीय ग्रंथों तथा पुराणों में देवी दुर्गा का वर्णन – भाग १

देवी महामाया की अनेक रूपों में पूजा की जाती है। कहीं उनको महिषासुर का वध करने की उनकी वीर उपलब्धियों के महिमान्वित किया जाता है तो कहीं देवी दुर्गा का उद्भव हिंदू देवताओं की संयुक्त ऊर्जा से हुआ वर्णित है। किन्तु यह हम सभी को ज्ञात है कि भगवान के एक दिव्य शक्ति स्वरुप की अवधारणा पौराणिक काल से मानव आलेखों तथा स्मृतियों के रूप में मौजूद है। भारतीय वेदों में, जो कि छ हज़ार ईसा पूर्व की घटनाओं का संदर्भ देते हैं, ब्रह्मांड की दिव्य शक्तियों में देवी स्वरुप का वर्णन किया गया है।

प्राचीन ऋषि जिनके लिए माना जाता है, ध्यान के माध्यम से वह हमारे ब्रह्मांड की प्राकृतिक ऊर्जा को आत्मसात करने में सक्षम थे। वह भी उषा, इला तथा सरस्वती आदि दिव्य मातृ शक्तियों की बात करते हैं। आगे चलकर पुराणों में, जिनमें ब्रह्मांड के निर्माण, विनाश, देवताओं की वंशावली आदि दृष्टांत शामिल हैं, यही दिव्य मातृ शक्ति, अमंगलीय शक्तियों पर मंगलकारी शक्तियों की विजय तथा दुष्टों का विनाश करने वाली एक शक्ति बन गईं।

बुराई पर अच्छाई के विजय के संबंध में तीन प्राथमिक धार्मिक ग्रंथ, चंडी पाठ, रामायण तथा महाभारत देवी दुर्गा का वर्णन करते हैं। देवी दुर्गा का वर्णन प्राचीन उत्तर-वैदिक संस्कृत ग्रंथों जैसे महाभारत के खंड २.४५१ तथा रामायण के खंड ४.२७.१६ में भी पाया जाता है। चंडी पाठ नौ सौ से पांच ईसा पूर्व के मध्य का है, यद्यपि, यह संभवतः तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक नहीं लिखा गया था। माना जाता है कि चौथी शताब्दी के कालावधि में इसने अपना वर्तमान स्वरूप ले लिया जब गुप्त साम्राज्य के विद्वानों ने गद्य तथा कविता की मौखिक परंपराओं को एकत्रित, संपादित करना आरम्भ किया था। चूँकि पुराणों की उत्पत्ति मौखिक परंपरा में हुई है, चंडी पाठ की जड़ें शायद उसके पूर्व की हैं अतः यह कहना संभव नहीं कि देवी दुर्गा से संबंधित उत्सव कहाँ तथा कब शुरू हुए।

मेधा ऋषि महादेवी तथा विभिन्न दैत्यों, राक्षसों, दानवों के मध्य युद्धों का वर्णन करते हैं। इन कथाओं का वर्णन महाकाली (प्रथम अध्याय), महालक्ष्मी (द्वितीय से चौथे अध्याय तक), और महासरस्वती (पांचवें से तेहरवें अध्याय तक) में उल्लेखित है।

देवी का सर्व प्रथम तथा सबसे प्रभावशाली वर्णन दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ में किया गया है। यह पौराणिक पाठ मार्कंडेय पुराण के इक्क्यासी अध्याय से तेरानवे अध्याय तक के तेरह अध्यायों से बना है। यह ऋषि मार्कंडेय द्वारा जैमिनी तथा उनके शिष्यों (जो पक्षी रूपों में हैं) से संबंधित कथासागर है। देवी महात्म्य के तेरह अध्यायों को तीन चरितों या प्रसंगों में विभाजित किया गया है।

इन कथाओं को कालान्तर में दुर्गा सप्तशती कहा जाने लगा जो दक्षिण भारत में देवी महात्म्य तथा पश्चिम बंगाल में चंडी के नाम से भी ख्यात हैं। वेद व्यास द्वारा संकलित दुर्गा सप्तशती के सात सौ छंदों में देवी दुर्गा की वीरता तथा महानता का वर्णन है। देवी सप्तशती की कथा एक निर्वासित राजा सुरथ, एक समाधि वणिक जिसे उसके परिवार द्वारा छला गया, तथा एक ऋषि मेधा की है ।

राजा सुरथ अपने राज्य के प्रति उदासीन रहा करते थे, जिसका लाभ उठा कर शत्रुओं ने इनके राज्य पर आक्रमण कर दिया। लोभवश राजा के विश्वासपात्र मंत्री भी शत्रुओं से मिल गए, तथा राजा सुरथ की पराजय हुई। राजा सुरथ का मन अपने मंत्रियों के इस विश्वासघात से बहुत खिन्न होता है तथा वे तपस्वी वेश में वन में वास करने लगते हैं। परिवार का मोह, अपितु, उन्हें कष्ट देता रहता है।

वन में उनकी भेंट समाधि नामक एक वणिक से होती है, जो स्वयं अपने स्त्री, पुत्रों तथा परिवारजनों के दुर्व्यवहार से दुखी हो वन में निवास कर रहा था। दोनों का परस्पर परिचय पश्चात् दोनो एक दुसरे से अपनी कथा-व्यथा का वर्णन करते हैं। आपस की चर्चा में उनके मन में विचार उठता है कि इतना सब अर्जित करने के पश्चात भी मन अशांत क्यूँ है?

इसी जिज्ञासा को लेकर वे दोनों महर्षि मेधा की शरण में पहुँचते हैं। महर्षि मेधा उनसे आने का कारण पूछ अपने मन की व्यथा का विस्तार से वर्णन करके की आज्ञा देते हैं। सुरथ तथा समाधि अपने चित्त अशांत होने तथा इसके कारणों के विषय में उन्हें विस्तार से बताते हैं। उनकी प्रमुख व्यथा यह है कि वे अपने स्वजनों से अपमानित होने के पश्चात, छले जाने के पश्चात भी उनका मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। सुरथ तथा समाधि इसके कारण से अवगत होना चाहते हैं। राजा तथा वणिक की व्यथा सुन ऋषि मेधा उन दोनों को देवी की आराधना करने की आज्ञा देते हैं तथा उनके समक्ष देवी के वैभव की अनेक गाथाओं का वर्णन करते हैं। ऋषि देवी तथा विभिन्न राक्षसी विरोधियों के बीच तीन अलग-अलग महाकाव्य युद्धों महाकाली (अध्याय 1), महालक्ष्मी (अध्याय 2-4), तथा महासरस्वती (अध्याय 5-13) के बीच तीन अलग-अलग महाकाव्य युद्धों का वर्णन करते हुए राजा तथा वणिक की व्यथाओं का निवारण करते हैं।

ऋषि मेधा रजा तथा वणिक को वर्णन करते हैं कि देवी दुर्गा विभिन्न अवतारों के माध्यम से असुरों तथा राक्षसों, जो कि अनिष्ट, अशुभ, अधर्म तथा दुष्टता का प्रतीक हैं, पराजित कर वध करती हैं। वह कुछ राक्षसों को देवी विष्णु माया के तामसिक अवतार के माध्यम से, कुछ को देवी लक्ष्मी के राजसिक अवतार के माध्यम से तथा कुछ को देवी सरस्वती के सात्विक अवतार के माध्यम से समाप्त करती हैं। इस प्रकार ऋषि की कथा के रूप में प्रदान की गयी शिक्षाएं राजा तथा व्यापारी को दुःख तथा पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं।

Devi Durga Mahatmya

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