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शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा

भगवान शिव को सृष्टि के पालनहार के रूप में जाना जाता है, जबकि श्रीरामजी को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजा जाता है। दोनों ही परम सत्य हैं, किन्तु उनके स्वरूप एवम् कार्य अलग-अलग हैं तथा इन दोनों में अगाध प्रेम भी है।

बाबा तुलसीदास के श्री राम कहते हैं,

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥

“अर्थात जो शिव से द्रोह रखता है एवम् मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। शंकर से विमुख होकर जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख एवम् अल्पबुद्धि है।”

उधर भगवान शिव भी श्रीरामजी के परम भक्त हैं। जब-जब भगवान का पृथ्वी पर अवतरण होता है, तब-तब भोले-भण्डारी भी अपने श्रीयुत आराध्य की लीलाओं के दर्शन के लिए पृथ्वी पर आते हैं। एक अंश से भोले बाबा अपने आराध्य आदिपुरुष की लीलाओं में भाग लेते हैं तो अपने दूसरे रूप में उनकी लीलाओं में भावविभोर हो मग्न हो जाते हैं।

भगवान शिव माँ पार्वती को कहते हैं जब जरामरणवर्जित प्रभु श्रीराम का दशरथनन्दन के रूप में अवतरण हुआ था तो वह भी भगवान राम के बाल रूप का दर्शन करने गए थे।

एवमउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥

हे पार्वती! मैं भी अपनी एक चोरी की बात कहता हूँ। काकभुशुण्डि तथा मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका

वही कथा पार्वती माँ को सुनाते हुए महाशिव कहते हैं,

“श्री अयोध्या के दिव्य क्षेत्र में, अयोध्या नरेश दशरथ एवम् रानी कौशल्या के प्रिय पुत्र वरप्रद उज्ज्वल अवतार श्री राम के जन्म पर एक दिव्य उल्लास आरम्भ हो गया था। हे कात्यायनी, श्री अयोध्या के जन-जन में नित नूतन उत्साह छाया हुआ था। श्री अयोध्यापुरी में अनेक महोत्सव हो रहे थे। नए उत्सवों की सुमधुर स्वर लहरी ने श्री अयोध्या को सुशोभित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता था कि अतिथियों की एक धारा, अत्यधिक वेग में प्रवाहित नदी की तरह, श्री अयोध्यापुरी की ओर बहे जा रही थी। अथाह सेवक श्री अयोध्या की ओर उमड़े पड़ रहे थे। श्री रामलला के दिव्य स्वरूप दर्शन हेतु आकर्षित होकर, सभी देवतागण भी अपनी दिव्य उपस्थिति से अवध को सुशोभित करने आ चुके थे। हे रुद्राक्षी, मैं सत्य वचन कहता हूँ, उस समय मुझसे भी रहा नहीं गया एवम् मैं भी श्री अवधपुरी की ओर प्रस्थान कर गया।”

“सर्वतीर्थमय श्री रामलला की झांकी के मनमोहक दृश्य से मंत्रमुग्ध होकर देवताओं ने श्री राघव के दिव्य दर्शनों से अपने जीवन को धन्य किया एवम् अंततः अपने दिव्य निवासों में लौट आए किन्तु हे महातपा, मेरा मन अभी अपने परमब्रह्म प्रभु श्री राम की चंचल शैशवावस्था की झाँकी में उलझा हुआ था।”

“तो क्या उपाय किया आपने?” माँ पार्वती उत्सुक हो चुकी थीं।

“मैं इस लालसा में था कि संभव है मुझे रामलला को स्पर्श करने का भी अवसर प्राप्त हो जाए, विभिन्न वेशों में अयोध्या का भ्रमण करता रहा। कभी मैं राजा दशरथ के महल के परिसर के भीतर भगवान की दिव्य स्तुति का गायन करते हुए पहुँच जाता तो कभी भिक्षा माँगते हुए, एक भिक्षुक के रूप में। मुझे आशा थी कि शायद माँ कौशल्या मुझ भिक्षुक को देख अंदर बुला लें किन्तु मेरी एक भी न चली।”

“हे भवप्रीता तभी मुझे स्मरण हुआ कि महाराज काकभुशुण्डि जी भी यहीं कहीं उत्सव मना रहे होंगे।”

“सत्यवचन देव! वह भी तो भगवान का दर्शन करने जरूर आये होंगे।” देवी पार्वती ने हामी भरी।

“मेरे इतने विचार करने की ही देरी थी कि काकभुशुण्डि जी तुरंत प्रकट हो गए।”

“उनके मुख से ही प्रतीत हो रहा था कि वह अलौकिक आनंद में लिप्त हैं। हे त्रिनेत्रा, वह मुझे प्रणाम करते ही प्रस्थान की याचना करने लगे। काकभुशुण्डि जी उदास स्वर में बोले, हे महादेव, मैं मात्र आपके स्मरण के कारण ही श्रीरामोत्सव छोड़ कर आया हूँ। यदि मेरे लिए कोई कार्य नहीं तो मुझे प्रस्थान करने की आज्ञा दें।”

मैं आश्चर्य चकित रह गया एवम मैंने पूछा कि वह प्रस्थान के लिए इतने व्याकुल क्यूँ हैं?

“क्या बोले महाराज काक भुशुण्डि?”

“वह वर्णन करने लगे कि उधर राजमहल में महाराज दशरथ जी परम आनन्द की नैया में विचरण कर रहे हैं। माता कौशल्या के सुख की कोई सीमा नहीं है। महल में रामलला की किलकारियाँ गूँज रही हैं। सभी महारानियाँ, दास-दासियाँ रामलला की मनमोहक लीलाओं का सुख ले रहे हैं। सभी ओर आनंद ही आनंद की सुगंध है। मैं अब विलम्ब नहीं कर सकता।”

“उनके यह वचन सुनकर मेरे व्याकुल मन से भी रहा नहीं गया हे चन्द्रघंटा! उनको मैंने अपने मन की व्यथा का वर्णन करते हुए निवेदन किया कि वह हमको भी कोई युक्ति बताएं, जिससे हम भी अपने आराध्य परमज्योति श्री रामलला के दर्शन कर सकें।”

“काकभुशुण्डि जी ने कहा कि हे प्रभु आप ज्योतिषी का वेश धारण करें तथा मैं आप का शिष्य बन जाता हूँ। उसके बाद हम सरयू किनारे अपना धाम बनाते हैं। उसके बाद अपने परमब्रह्म से प्रार्थना करेंगे कि वह अपनी लीला से हम दोनों को ही अपने दर्शन के लिए निमंत्रण भिजवाएं। हे नारायणी, बस यह युक्ति आते ही मैं एवम् काकभुशुण्डि महाराज सरयू जी के किनारे बैठ गए। हमारे पास आये हुए उत्सुकजनों का हाथ देख कर मैं भविष्य बताने लगा। कुछ ही समय पश्चात अवधपुरी में चर्चा प्रारंभ हो गई थी कि एक महान ज्योतिषी अवधपुरी आये हैं जो किसी का भी भूत और भविष्य बता रहे हैं। हे साध्वी, सभी नगरवासी अचंभित थे कि यह साधू महाराज कैसे इतनी सटीक भविष्यवाणी कर रहे हैं । चर्चा में सभी को यह ज्ञात हो चुका था कि इस साधू का नाम शंकर है एवम् वह अपने शिष्य के साथ इस नगर के भ्रमण पर हैं।”

“उधर राजमहल ने प्रभु ने अपनी लीला आरम्भ कर दी थी।  पुराणपुरषोत्तम भगवान राम ने माता कौशल्या की गोद में व्याकुल हो रोना आरम्भ कर दिया था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके मन में भी मेरे से मिलने की इच्छा प्रवाहित होने लगी थी। सुनो मुक्तकेशा जब अपने लल्ला के मार्मिक एवम् पीड़ा भरे स्वर शांत नहीं हुए तो माता कौशल्या भी बिलख पड़ी। लल्ला शांत होने का नाम नहीं ले रहे थे एवम् उनकी यह पीड़ा माता कौशल्या के कानों में सीसा घोल रही थी। गुरु वशिष्ठ जी को सूचना दी गयी किन्तु वह व्यस्त थे। उड़ते-उड़ते बात राजभवन में जा पहुँची कि एक वृद्ध ब्राह्मण अवधपुरी में आये हैं। उनके साथ एक शिष्य भी है तथा वे बस हाथ देखकर सब कुछ सही-सही बता रहे हैं। यह सुन, हे सती, व्याकुल माँ ने तुरंत सेवकों को आज्ञा देकर मुझे एवम् काकभुशुण्डि महाराज को राजभवन में न्योत लिया।”

पार्वती माँ कोतुहल में भरी अपने शिव के श्रीराम प्रेम को निहारे जा रही थीं। भगवान शंकर के नेत्र बंद थे एवम् मुख पर अलौकिक मुस्कान छाई हुई थी।

गोस्वामी जी ने गीतावली में इस प्रकार से यह बखान किया था-

अवध आजु आगमी एकु आयो,”
करतल निरखि कहत सब गुनगन बहुतन्ह परीचौ पायो।”
बूढों बड़ो प्रमानिक ब्राह्मण शंकर नाम सुहायो,”
संग सिसु सिष्य सुनत कौसल्या भीतर भवन बुलायो।”

“कुछ ही समय पश्चात राजमहल से कुछ सेवक दौड़े-दौड़े मेरे पास आये कि महाराज शीघ्र करें, सुबह से दशरथनंद अत्यधिक पीड़ा में हैं, रोये जा रहे हैं। माँ कौशल्या अत्यधिक दुःख में हैं तथा आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रही हैं। यह सुनते ही हे अम्बिका, मेरा तो  रोम-रोम पुलकित हो गया। मैं समझ गया था कि मेरे प्रभु सर्वभूतात्मक श्रीराम ने ही महालीला रचकर यह सन्देश भिजवाया हैं। जैसे ही मैं उठा तो काकभुशुण्डि जी ने भी निवेदन कर डाला कि मैं भी साथ ही जाऊँगा। मेरे यह कहने पर कि आपने तो दर्शन कर लिए हैं, वह बोले कि मैंने दर्शन तो किया है किन्तु भगवान के  स्पर्श का अवसर नहीं मिला है। ऐसा कैसे होगा कि आप कृपापात्र बने एवम् मैं अछूता रह जाऊं?”

मैं राजमहल पहुँचा तो मुझे देख माता कौशल्या दूर से ही विचलित भाव में बोलीं, “महाराज, आप को जो भी कष्ट निवारण उपाय करने हैं, वहीं से कर लें।”

“यह तो तुमको ज्ञात ही है गौरी”, भोलेनाथ ने पार्वती माँ को संबोधित किया, “कि मैं किस कारण साधु वेश में वहाँ पहुंचा था। मैं दूर से अपने रामलला को निहारने नहीं यधपि उनको अपनी गोद में खिलाने के उद्देश्य से वहाँ पहुंचा था।”

माँ पार्वती की मोहक भरी हंसी शंकर जी के कानों में गूंजी तो उन्होंने अपने नेत्र खोले एवम् बोले,

“हे ब्राह्मी, मैंने माता कौशल्या से स्पष्ट शब्दों में याचना की कि, “माते, दूर से कुछ भी उपचार ना हो पायेगा। यह शिशु अत्यधिक व्याकुल है तथा इसका मुख देखे बिना मैं कोई औषधि ना दे पाउँगा। मेरे से आपका कष्ट निवारण ना हो पायेगा।”

“हे चित्तरूपा, दुखी कौशल्या मैया ने जैसे ही लल्ला के मुख से वस्त्र हटाया एवम् उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी वह खिलखिला पड़े। मेरे मन में हिलोरें उठने लगी थी। मेरे से अब अपने को नियंत्रण में रखना कठिन प्रतीत हो रहा था किन्तु मैंने सधे हुए शब्दों में माते से पुनः निवेदन किया कि मुझे लल्ला के प्रत्येक अंग को देखना पड़ेगा कि कहाँ कष्ट हो रहा है। किसकी हाय हमारे लल्ला को लगी है। अपने लल्ला की किलकारियों से प्रसन्न कौशल्या माता से पुनः निवेदन किया कि बिना स्पर्श किये मैं कुछ भी उपाय नहीं कर सकता हूँ।”

“श्री माते लल्ला के खिलखिलाने से मेरे ऊपर पूर्ण विश्वास कर चुकी थी। उन्होंने सेवकों को तुरंत आदेश दिया कि सर्वप्रथम मेरी भली भांति सेवा सुश्रुषा की जाए।

पाय पखारि पूजि दियो आसन, असन बसन पहरायो,”
मेले चरन चारु चार्यो सुत माथे हाथ दिवायो।”
नख सिख बाल बिलोकि बिप्र तनु पुलक नयन जल छायो,”
लै लै गोद कमल कर निरखत उर प्रमोद न अमायो।”

“हे नित्या, माँ कौशल्या ने मुझे एक दिव्य सिंहासन पर विराजित कर मेरे चरण पखारे तथा अनेक अनुपम वस्त्र दान किये। मैं पुलकित हो उठा जब माते ने मेरे चरणकमलों में चारों शिशुओं को मस्तक लगवाकर प्रणाम करवाया।

मुझे त्रिलोक के आनंद की प्राप्ति हो रही थी जब मुझसे उन शिशुओं को आशीर्वाद स्वरूप मस्तक पर स्पर्श करने की प्रार्थना की गई। मेरे नेत्र तो बस उन कोमल से, नन्हे से, अलौकिक सुंदर बादलों जैसे श्यामस्वरुप राम के चरणकमलों एवम् मुखचन्द्र पर ही टिके रह गए थे, नेत्रों से प्रेमाश्रुओं का प्रवाह चल पड़ा था। जैसे ही माता कौशल्या ने शिशु श्रीराम को मेरी गोद में बिठाया, हे आर्या, मेरा रोम-रोम उत्साह से गूंज उठा। अपने प्रभु सर्वदेवस्तुत श्री राम को अंक में भरकर ऐसे परमानन्द की प्राप्ति हुई जिसका वर्णन मेरे बस में नहीं। मुझे एक ऐसे असीम सुख की प्राप्ति हो रही थी, जो मन में ना समा कर मेरे नेत्रों से छलका जा रहा था। मैं शिशु श्री राम के हाथ देखने के बहाने कभी उनके कोमल करकमलों को सहलाता तो कभी अपनी धूल धूसरित जटाओं से उनके कोमल रक्ताभ तलवों को थपकी दे रहा था। हे ब्रह्मवादिनी, देवताओं के लिए भी दुर्लभ उन चरणकमलों का दर्शन कर मैं बस अलौकिक सुख में तैर रहा था।”

“श्रीराम के भावों का वर्णन भी तो करें महादेव!” अब माँ पार्वती भी उतावली ही जा रही थीं।

“राजीवलोचन भगवान श्री राम की किलकारियाँ बंद होने का नाम नहीं ले रही थीं। कभी वो मेरी जटाओं को छूते तो कभी मेरी कनिष्ठा को पकड़ लेते। अपने कमलनयनों से श्री राघवेन्द्र मुझे बस ताके जा रहे थे। तभी माता कौशल्या का स्वर मेरे कानों में पड़ा,

“हे योगी मुझे मेरे पुत्रों का भविष्य भी बताने की कृपा करें।”

“अचानक काकभुशुण्डि जी ने मुझे टहोका एवम् कौशलेय के स्पर्श आनंद की आज्ञा मांगी। मैं काकभुशुण्डि जी के नेत्रों में तैरती हुई व्याकुलता देख रहा था किन्तु जैसे ही मैंने त्रिलोकरक्षक श्री राम को काकभुशुण्डि की गोद में देने का प्रयत्न किया तो मैया ने आपत्ति प्रकट कर दी।”

“माते बोलीं कि लल्ला को इनकी गोद में देने का क्या तात्पर्य है?”

“आपने क्या उत्तर दिया प्रभु?”

“हे माहेश्वरी मैंने माते से प्रार्थना कि मैया मेरी आयु हो चली है एवम् मुझे यह रेखाएं सही प्रकार से दिखाई नहीं देती इसलिए मेरा यह शिष्य रेखाएं पढ़ेगा तथा मैं भविष्य बताऊंगा।”

“सुनो देवी जलोदरी, कुछ ही पल में काकभुशुण्डि जी ने अपनी गोद में श्री प्रभु को संभाला एवम् अलौकिक सुख में लीन हो गए। माताएं अभी भी मेरा मुख ताके जा रही थी एवम् विनती कर रही थीं कि मैं लल्ला का भविष्य बताऊँ। मैं मंद ही मंद मुस्कुरा रहा था। मुझे यह विचार ही अनुपम प्रतीत हो रहा था कि यह माताएं कितनी भोली हैं जो भविष्य विधाता का भविष्य मुझसे जानने की इच्छा रख रही हैं किन्तु कुछ भविष्य कथन भी करना आवश्यक था। मैंने महायोगी श्री राम के नन्हीं सुकोमल हथेलियाँ जैसे ही अपने हाथ में लीं, हे रिद्धि, मैं फिर सुधबुध खो बैठा! मैंने जैसे तैसे अपने को संभाला एवम् बोलना आरम्भ किया,

“हे राजमाता, आपका यह बालक भविष्य में विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करेगा तथा वहाँ से मिथिला जाकर सीता स्वयंवर में सम्मिलित होगा। वहाँ वह भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर विश्व्यापी योद्धाओं को परास्त करेगा।”

“आप पिनाक की चर्चा कर रहे हैं भोले बाबा?” देवी सती चौंक उठीं।

“हाँ रुद्राणी!” भोले बाबा मंद-मंद मुस्कुरा दिए।

“आप एवम् आपके प्रभु की लीलाओं को समझना मेरे बस में नहीं प्रभु!” माँ पार्वती भी मुस्कुरा रही थीं।

“उसके पश्चात मैंने माते कौशल्या को सीता स्वयंवर एवम् सियाराम के मिलन की भविष्यवाणी करते हुए चारों भाइयों की विजय-कीर्ति की कथा भी कह डाली। मेरा कार्य संपन्न हो चुका था किन्तु सत्य तो यह है देवी घोररूपा, मन अभी भी पूर्ण रूप से भरा नहीं था। अपने विचलित तथा व्याकुल चित्त को मैंने संभाला तथा माते कौशल्या से विदा ले अपने धाम को प्रस्थान कर गया।”

बाबा तुलसी ने भी कुछ ऐसा ही बखान किया था,

जनम प्रसङ्ग कह्यो कौसिक मिस सीय-स्वयम्बर गायो ।
राम, भरत, रिपुदवन, लखनको जय सुख सुजस सुनायो ।।
तुलसिदास रनिवास रहसबस, भयो सबको मन भायो ।
सनमान्यो महिदेव असीसत सानँद सदन सिधायो ।।

 “आगे क्या हुआ प्रभु?” देवी अभी भी उत्सुक थीं।

किन्तु महादेव अब परम ध्यान में लीन चुके थे।

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