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1883 – कैनेडा के पहले प्रधानमंत्री सर जॉन ए मैकडॉनल्ड ने इसाई चर्चों को आवासीय स्कूल के जरिये मूल निवासियों को आधुनिक इसाई तौर-तरीकों की शिक्षा के जरिये मुख्य धारा में लाने की आज्ञा दी।
1920 – सात वर्ष से पंद्रह वर्ष तक के मूल निवासी समुदायों के बच्चों के लिए आवासीय इसाई स्कूल अनिवार्य कर दिया गया। करीब 150000 फर्स्ट नेशन्स, मेटीस और इनुइट बच्चों को जबरन उनके घरों से ले जाकर, उनके माता-पिता को कानूनी करवाई से धमकाकर ऐसे आवासी इसाई मिशनरी स्कूलों में भर्ती कर दिया गया।
1960 – ऐसे स्कूलों की पोल खुलने लगी। इनमें आर्थिक विनियमितताएं उजागर हुईं। इनका बच्चों पर मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी 1996 तक अध्ययन का विषय बन गया।
कैनेडा की “ट्रुथ एंड रेकांसिलिएशन कमीशन” के मुर्रे सिंक्लेयर के मुताबिक 6000 के लगभग बच्चों की इन इसाई आवासीय स्कूलों में मौत हुई। ये मौतें बीमारी, अनदेखी, और दुर्घटनाओं की वजह से हुई। शारीरिक एवं यौन हिंसा भी बच्चों के साथ आम बात थी। लम्बे समय तक सरकारें और इसाई संगठन इसे स्वीकारने से इनकार करते रहे और मृत एवं दफना दिए गए बच्चों की पूरी गिनती का पता नहीं चला।
2008 – कैनेडा के प्रधानमंत्री स्टेफेन हार्पर ने कैनेडा में चलने वाले ऐसे 130 से अधिक इसाई मिशनरी आवासीय स्कूलों के लिए विधिवत क्षमा मांगी। उन्होंने स्वीकार कि जबरन एक जैसा बना देने की ये कोशिशें गलत थीं और इसने ऐसी अपूरणीय क्षति पहुंचाई है, जिस किस्म की हरकतों का इस देश में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
2015 – कैनेडा की “ट्रुथ एंड रेकांसिलिएशन कमीशन” ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट जारी की और इसाई आवासीय स्कूलों के पीछे की कार्यशैली को “सांस्कृतिक जनसंहार” बताया। घरों से दूर, अकेले गुमनामी में मृत बच्चों की अज्ञात, छुपा दी गयी कब्रों को ढूंढ निकालने के लिए उन्होंने फण्ड जारी करने की मांग भी की।
2021 – ब्रिटिश कोलंबिया के इलाके में फर्स्ट नेशन कबीले के लोगों को जमीन भेद सकने वाले रडार के जरिये 215 बच्चों की कब्रें मिल गयीं। कैनेडा के दूसरे फर्स्ट नेशन समूह ऐसी ही तलाश कर रहे हैं।
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इस पूरी घटना का भारत से, संस्कृति-सभ्यता से और भाषा से भी क्या सम्बन्ध है? इसे देखना, या पहचानना भारत के अभिजात्य वर्गों के लिए मुश्किल हो सकता है, लेकिन एक आम आदमी के लिए इसे पहचान लेना कोई मुश्किल नहीं होगा। कैनेडा के जिन तथाकथित स्कूलों की बात की है, वो स्कूल मूलनिवासियों को किसी तथाकथित मुख्य धारा में लाने का प्रयास कर रहे थे। इसका मतलब था इन स्कूलों में भर्ती करने के बाद उनके मूल नाम बदलकर कुछ और नाम रखा जाता था। थोड़ी-बहुत अंग्रेजी जानने वालों को भी पता होगा कि “क्रिश्चियन्ड” शब्द का एक अर्थ “नाम रखना” होता है। उनकी मूल भाषा, मातृभाषा के प्रयोग पर पाबन्दी होती थी। अपने सांस्कृतिक परिवेश के वस्त्राभूषण, बाल रखने के तरीके इत्यादि इस्तेमाल करने पर सजा मिलती थी।
भारत में कान्वेंट स्कूल होते हैं। अब बच्चों को शारीरिक दंड नहीं दिए जा सकते हैं, ये कानूनी तौर पर प्रतिबंधित है। दंड के दूसरे तरीके अभी भी मौजूद हैं। अपनी मातृभाषा के बदले अंग्रेजी में बात नहीं करने पर ऐसे “कान्वेंट स्कूलों” में आर्थिक दंड लगाना आम बात है। लम्बे बाल, चोटी को काट दिए जाने की घटनाएँ स्कूलों में होती हैं, और कभी कभी खबरों में भी आ जाती हैं। मेहँदी जो कि परंपरागत है, उसके लिए भी कान्वेंट स्कूल मना करते हैं
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तिलक के लिए सजाएं देना भी बिलकुल आम है
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इसकी ख़बरें भी आसानी से मिल जाती हैं। आखिर ये कैनेडा के आवासीय इसाई स्कूलों से कैसे अलग है? क्या यहाँ भी संस्कृति का वही नहीं किया जा रहा, जो करने के बाद कैनेडा के प्रधानमंत्री माफी मांग रहे थे? क्या एक संस्कृति का पूरी तरह नाश कर देने के बाद माफी मांग लेने भर से वो संस्कृति पुनः जीवित हो जाएगी?
चीनी और दूसरी कुछ संस्कृतियों में भयावह सजा देने के लिए शरीर में कई जगह काट दिया जाता था। इससे थोड़ा-थोड़ा खून बहता रहता और दण्डित व्यक्ति काफी लम्बे समय में तड़प-तड़प कर मरता। इस “डेथ बाय ए थाउजेंड कट्स” का ही एक बदला हुआ स्वरुप है जिसे हम “सांस्कृतिक उपनिवेशवाद” के इस भाषा पर हमले के रूप में देखते हैं। पहले बच्चों को भाषा के जरिये सिखाया गया। जब कुछ पीढ़ियाँ भाषा के मामले में अभ्यस्त होने लगीं तो अब बड़ों को भी कहा जाने लगा कि नहीं यही नयी वाली भाषा तो कविता-साहित्य की मीठी सी भाषा है। तुम्हारी जो अपनी वाली भाषा थी, वो तो कर्कश, मर्दवादी-स्त्री विरोधी, पोंगापंथी, पिछड़ी हुई थी। कई लोग जो पहले से स्कूलों के जरिये बरगलाए जा चुके हैं, उन्हें इसे मान लेने में ज्यादा दिक्कत भी नहीं होगी।
सांस्कृतिक उपनिवेशवाद इसी तरह अपनी गति बढ़ाता है। पुराने दौर और अब के दौर में सोशल मीडिया जैसे साधनों के आ जाने से ऐसे हमलों को पहचान लिया जाना आसान हो गया है। जो विरोध असंगठित या इक्का-दुक्का क्षेत्रों तक सीमित रह जाता था, वो एक साथ कई अलग-अलग क्षेत्रों में उठने लगा है। आक्रान्ताओं के प्रहारों की गति तो वही पहले जैसी है, मगर अब प्रतिरोध के स्वर भी सामने आने लगे हैं। इसे कुछ लोग “असहिष्णुता” भी कहने लगे हैं। सवाल ये है कि आखिर हम सहते क्यों रहें? अगर आक्रान्ता अनुचित करना बंद कर दें, तो न अनाचार को सहन करके “सहिष्णु” कहलाने की आवश्यकता रहेगी, न उसके विरोध में “असहिष्णु” होने की। सत्ता का सुख उठाने वाली जमात को समझना होगा कि बदलावों के दौर में “राजा को नंगा” कह देने वालों की गिनती बढ़ रही है।
बाकी बात निकली है तो दूर तक तो जायेगी ही। सत्ता का सुख भोग रहे अभिजात्यों को जनता से सामंजस्य बिठाना सीखना है, या पहले के कई राजवंशों की तरह इतिहास हो जाना है, ये तो उन्हें ही तय करना होगा।
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