थोड़े समय पहले “कल्चरल इम्पेरिअलिज्म” के शाब्दिक अर्थ से जब पहली बार सामना हुआ, तो मुलाकात पहली ही थी। ये सांस्कृतिक उपनिवेशवाद क्या हो सकता है? हमने सोचा तोप-तलवारें या बंदूकें लेकर एक देश किसी दूसरे पर चढ़ आये, ऐसा तो हो सकता है। क्या बिना सैफ (तलवार) भी ऐसे हमले किये जा सकते हैं? फिर हमें किसी मशहूर व्यक्ति का कहा याद आया जिसमें बताया गया था कि मानसिक तौर पर गुलाम होना, कैद में होने या शारीरिक तौर पर गुलाम होने से भी कहीं बुरा है। अगर ये सोचना शुरू किया जाए कि एक संस्कृति कैसे बिना तीर और सैफ के किसी दूसरी संस्कृति पर हावी हो सकती है तो इसे समझना कोई मुश्किल नहीं।
संस्कृति अपने प्रतीकों के माध्यम से आगे बढ़ती है। हर संस्कृति के लिए अपनी एक सभ्यता होती है, जो उस संस्कृति का पालन कर रही होती है। इसके लिए भाषा होती है, त्यौहार होते हैं, पहनने-ओढ़ने और खाने पीने के तरीकों में ये नजर आती है। कई बार पूजा पद्दतियों में भी संस्कृति की झलक मिल जाती है। जैसे कि मनुष्य या मानव शब्द का प्रयोग करने वाले अपनी संस्कृति की शुरुआत मनु से मानने वाले लोग होते हैं। इसकी तुलना में जो आदम से मानव सभ्यता का आरंभ मानने वाले आदमी शब्द का प्रयोग करेंगे। इंसान शब्द को देखें तो ये अरबी के “नासिया” मूल से बना है, जिसका मतलब होता है भूल जाना।
अगर किसी सभ्यता के लोग मानते हैं कि इंसान तो भूल जाता है, अपने बनाने वाले को भूल जाने की वजह से उससे गलतियाँ होती रहती हैं तो वो क्या करेंगे? वो “नासिया” यानी भूल जाने से इन्सान शब्द बना लेंगे। बार-बार भूल जाने की गलती करने वालों के गुण को “इंसानियत” कहना शुरू कर देंगे। श्रुति यानी सुनना और स्मृति यानी याद रखने की परंपरा जिनमें सदियों से चली आ रही हो, उसे भूल जाने वाला इंसान बना दीजिये। सिर्फ एक दो शब्दों मानव-मनुष्य को जब आप हटाकर आदमी-इंसान कर देते हैं तो सीधा किसी को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से ही काट देते हैं। सिर्फ एक दो शब्दों को बदलने से क्या बदलाव आएगा, ये समझ में आ गया हो तो ये भी समझ में आ गया होगा कि जब वो कहते हैं कि ये कोई दूसरी वाली भी तो भारत में ही बनी भाषा है, बिलकुल हिन्दी जैसी, तो असल में क्या हो रहा होता है।
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। अगर किसी सभ्यता की अभिव्यक्ति के माध्यम पर ही कोई दूसरी सभ्यता-संस्कृति कब्जा जमा ले, तो किसी भी विरोध को स्वर कैसे मिलेगा? एक बार आक्रान्ता ने अगर विजय पा भी ली हो तो हो सकता है सैफ (तलवार) के दम पर मिली जीत स्थायी न रहे। बात में सभ्यता स्वतंत्रता के लिए प्रयास करे। लेकिन अगर उसकी अभिव्यक्ति का साधन ही उससे छीन लिया गया है तो फिर वो विरोध कर ही नहीं पायेगा। इसका उदाहरण देखना हो तो हम हाल की कैनेडा की एक घटना को देख सकते हैं। कुछ ही समय पहले कैनेडा के आवासीय इसाई मिशनरी स्कूलों में मिले सैकड़ों अनाम कब्रों में तीन वर्ष तक के बच्चों के शवों को दफ़न किये जाने का खुलासा हुआ। (https://www.bbc.com/news/world-us-canada-57592243)
ये घटना ऐसी नहीं थी जिसे चुपचाप दबाया जा सके। लम्बे समय से कैनेडा के मूलनिवासी ये बात उठा रहे थे कि इसाई मिशनरियों ने आवासीय स्कूल के नाम पर उनके बच्चों के साथ अमानवीय अत्याचार किये हैं। कैनेडा की सरकार ने 2008 में स्वीकार किया था कि सरकारी सहायता से चलने वाले इन आवासीय मिशनरी स्कूलों में काफी कुछ गलत हुआ था। कैनेडा सरकार ने इसके लिए माफ़ी भी मांगी थी। (https://www.thehindu.com/news/international/not-an-isolated-incident-pm-justin-trudeau-on-mass-indigenous-student-grave-found-in-canada/article34694679.ece) अगर समय के हिसाब से देखें कि इन घटनाओं के होने और इनके विरोध को दर्ज होने में कितना समय लगा तो सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के खतरों का अंदाजा हो जाता है।
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