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ज्ञानवापी हमारी है भाग – २

मध्यकाल का समय भारत में उन्नति और पतन दोनों का युग रहा, कई साम्राज्यों ने जन्म लिया और कई साम्राज्य समाप्त हो गए। इस समय तक काशी में अनेक धर्मों और विचारों का आगमन हो चुका था। अशोक ने काशी के पार्श्व में बोद्ध धर्म के तीर्थ स्थलों और आश्रमों का निर्माण करवाया। राजा हर्षवर्धन के समय (६०७-६४८) जब चीनी यात्री हुयेंत्संग भारत आया तब उसने अपने संस्मरणों में काशी के इन स्थलों का वर्णन लिखा है। १५ वर्षों तक (६२९-६४५) भारत के अनेक स्थलों की उसने यात्रा की थी। वह जब काशी आया तो काशी का वर्णन करते हुए उसने लिखा, “इस देश का क्षेत्रफल लगभग ४००० ली है (१ ली = ५०० मीटर)। राजधानी की पश्चिमी सीमा पर गंगा नदी बहती है। इसकी लम्बाई १८ से १९ ली और चौड़ाई ४ से ६ ली है। आबादी घनी और मनुष्य धनवान हैं, तथा उनके घरों में बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह रहता है। लोगों का आचरण कोमल और सभ्य है, वे विद्याभ्यास में दत्तचित्त रहते हैं। अधिकतर लोग विरुद्ध (हिन्दू धर्म को मानने वाले) धर्मावलम्बी हैं, बोद्ध धर्म के अनुयायी बहुत थोड़े हैं। लगभग ३० संघाराम और ३००० सन्यासी हैं, और सबके सब सामंतीय संस्थानुसार हीनयान संप्रदाय के अनुयायी हैं। लगभग १०० मंदिर और १०००० विरुद्ध (हिन्दू) धर्मावलम्बी हैं, जो सबके सब महेश्वर का आराधन करते हैं। कुछ अपने बालों को मुडा डालते हैं और कुछ बालों को बांधकर जटा बनाते हैं, तथा वस्त्र परित्याग करके दिगम्बर (नागा साधू) रहते हैं और शरीर में भस्म का लेप करते हैं। ये बड़े तपस्वी होते हैं तथा बड़े कठिन कठिन साधनों से जन्म मृत्यु के बंधन से छूटने का प्रयत्न करते हैं।

मुख्य राजधानी में २० देव मंदिर हैं, जिनके मंडप और कमरे इत्यादि पत्थर और लकड़ों से, सुन्दर प्रकार की चित्रकारी इत्यादि खोदकर बनाये गए हैं। इन स्थानों में वृक्षों की घनी छाया रहती है और पवित्र जल की नहर इनके चारों ओर बनी हुई है। महेश्वर की मूर्ति १०० फीट से कुछ कम ऊँची तांबे की बनी हुई है। उसका स्वरुप गंभीर और प्रभावशाली है तथा यह सजीव सी विदित होती है। ”

किसी भी साम्राज्य की स्थापना के लिए सबसे अधिक आवश्यकता होती है धन की। हुयेंत्संग के संस्मरणों से ये अनुमान आ जाता है कि भारत उस समय विश्व के सबसे धनवान राष्ट्रों में से एक था। सुबुक्त्गीन ने जब गज़नी में शासन की ड़ोर संभाली, तब शासन को चलाने और साम्राज्य को बढ़ाने के लिए उसे धन की आवश्यकता जान पड़ी। पूर्व की तरफ़ के अनेक राष्ट्र उस समय धनवान थे, तुर्क और अरब सेनाओं ने लूट की मंशा से उस समय चीन और भारत की तरफ़ सैन्य आक्रमण किए। सुबुक्त्गीन के बेटे महमूद गजनबी ने भारत पर कई सफ़ल लूट कीं, जिनमें १०१८ और १०२३ में उसके कनौज पर आक्रमण के प्रमाण मिलते हैं। १०१८ के आक्रमण में उसने मथुरा में सहस्त्रों मंदिरों को नष्ट किया, और इसी अभ्यान में उसने कनौज पर भी हमला किया था। अल उत्बी अपनी तारीख यामिनी में मथुरा की लूट के विषय में लिखता है कि, “वहाँ मूर्तियों के एक हज़ार मंदिर थे जो किले की तरह बने थे और शहर के बीचोबीच एक सबसे ऊँचा मंदिर था। उसकी सुंदरता और नक्काशी का वर्णन करना लेखक की लेखनी या चितेरे की कूची के लिए असंभव है।” सुल्तान के लेख से ज्ञात होता है कि यदि कोई इस तरह का मंदिर निर्माण कराने की इच्छा करता है तो उसे एक हज़ार दिनारों की एक लाख थैलियाँ ख़र्च करनी पड़ेंगी। कुशल कारीगरों की सहायता से भी २०० वर्षों में उस तरह का मंदिर बनाना असंभव है।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि १०१८ और १०२३ के अभियान के समय महमूद ने काशी पर भी हमले किए थे और वहाँ के मंदिरों को भी नष्ट किया। परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि इन अभियानों में महमूद बनारस तक नहीं पहुँच पाया था, मथुरा की लूट से ही उसे आपार धन की प्राप्ति हो चुकी थी। वह कनौज के राजा का पीछा कर रहा था, पर उसमे उसे सफ़लता नहीं मिली थी। १०२३ के अभियान के समय कनौज के राजा ने उससे संधि कर ली थी, तो लूट की कोई बात ही नहीं बनती। महमूद के बाद उसका बेटा मसूद गज़नी के शासन पर बैठा, और उसने भी भारत पर लूट के अभियान जारी रखे। मसूद का सेनापति नियाल्त्गीन १०३३ में भारत आया, बनारस के बाज़ारों को लूटने में वह सफ़ल रहा ऐसे प्रमाण मिलते हैं। बैहाकी लिखता है कि यहाँ तक महमूद भी आने में सफ़ल नहीं हुआ था। इससे ये प्रमाणित हो जाता है कि महमूद बनारस नहीं आया था। उस समय बनारस त्रिपुर के कलचुरी राजा गांगेय देव के राज में था। कलचुरी सेना समीप ही थी इस कारण नियाल्त्गीन बाज़ारों को लूट कर ही चला गया। मंदिरों को क्षति पहुँचाई हो ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है की तुर्कों ने उस समय तक उत्तर भारत में अनेक चौकियां बना ली थीं, और वे बारंबार आस पास के क्षेत्रों में लूट करते रहते थे। तुर्कों के अधिकतर हमले हिन्दू तीर्थस्थलों पर हुआ करते थे। पवित्र तीर्थ स्थलों पर हमला करने वाले विधर्मियों को सबक सिखाने और उन्हें उत्तर भारत से मार भगाने के उद्देश्य से मालवाधिपति राजा भोज, त्रिपुर के राजा कलचुरी कर्ण और गाहड़वाल के राजा चंद्रपाल एक हुए। उनकी समिल्लित सैन्य शक्ति ने १०४० में  तुर्कों को उत्तर भारत से मार भगाया और उन्होंने तीर्थस्थल रक्षक की उपाधि धारण की।

कलचुरी कर्ण के बाद १०८० में चंद्रदेव गाहड़वाल कनौज के शासक हुए। गाहड़वाल मुख्यतः बनारस के राजा थे, मुस्लिम इतिहासकारों ने उन्हें बनारस के शासक के रूप में ही लिखा है। गाहड़वालों के दानपत्रों से ज्ञात होता है कि आदि केशव घाट पर स्नान करने के बाद राजा चंद्रदेव ने तुलादान किया था। उन्होंने अपने वजन के बराबर स्वर्ण आदि अलंकार एवं १००० गाय आदि केशव मंदिर को दान किये। चंद्र माधव मंदिर के रखरखाव के लिए उन्होंने कई गांव मंदिर को भेंट किये। गाहड़वालों के समय ही जब राजा जयचंद्र कनौज के शासक हुए, मुहम्मद गोरी ने ११९३ में कनौज पर हमला किया। ताज से वर्णन मिलता है कि, “शाही फ़ौज ने बनारस पर चढ़ाई की और वहाँ १००० मंदिरों को तोड़ा एवं उनके स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दीं। दिनार और दिर्हम, इन मुद्राओं की पीठपर बादशाह का पुण्यकारक नाम और उसकी पदवियाँ ठोक दी गयीं।“

मुग़ल काल में अकबर के समय राजा मान सिंह जब बिहार के सूबेदार (१५८७ – १६०५) रहे, तब उन्होंने ३६ लाख रूपये ख़र्च कर आदि विश्वेश्वर जी का मंदिर और वेद्शाला का निर्माण करवाया। जिसे बाद में जहाँगीर ने तुड़वा दिया था, ऐसा कन्निंघम की रिपोर्ट से ज्ञात होता है। अकबर के ही समय १५८५ में उनके राजस्व मंत्री रहे राजा टोडरमल ने जगद्गुरु नारायण भट्ट के कहने पर ४५ हज़ार दीनार ख़जाने से देकर विश्वनाथ जी के मंदिर का निर्माण कार्य कराया था, जिसके बनने में ५ वर्ष का समय लगा। नारायण भट्ट द्वारा बनवाये गए इसी मंदिर को बाद में औरंगज़ेब ने फ़रमान जारी कर तुड़वा दिया और उसके स्थान पर मस्जिद बना दी। मासीर आई आलमगीरी में लिखा मिलता है कि, “८ अप्रैल १६६९ दिन गुरुवार को औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि बनारस के मंदिर और वेद्शालाओं को ध्वस्त कर दिया जाये, इससे पहले वह त्योहारों को मनाने पर भी प्रतिबंध लगा चुका था। रजनी रंजन सेन अपनी पुस्तक “द होली सिटी (बनारस)” में जो औरंगज़ेब का फ़रमान प्रस्तुत करती हैं, उसमे उन्होंने उस फ़रमान का वर्ष १६५३ लिखा है, जो शाहजहाँ के शासन काल में आता है। सर जदुनाथ सरकार ने तर्क प्रस्तुत कर उस फ़रमान की सत्यता प्रमाणित की है, और उसे औरंगज़ेब के समय का ही बताया है। उन्होंने कहा क्योंकि फ़रमान फ़ारसी भाषा में है, इस कारण वर्ष के अंकों को देखने में भूल हुई जिससे ये तिथि वर्ष १६५३ न होकर १६५९ होना माना जाये। १६५९ में ही औरंगज़ेब ने आगरा में अपनी दूसरी ताजपोशी की थी। इस फ़रमान में नये मंदिर बनाने पर रोक लगाई गयी थी, साथ ही ये आश्वासन दिया गया था की प्राचीन मंदिरों को नहीं तोड़ा जायेगा। पर जैसा कि हमने ऊपर देखा उसने १६६९ में बनारस में मंदिर और वेद्शालाओं को तोड़ने का आदेश दिया था।

औरंगज़ेब ने मंदिर तोड़कर उसके स्थान पर अपने नाम से आलमगीरी मस्जिद बना दी, उसने काशी का नाम भी बदलकर उसका नाम मुहम्मदाबाद कर दिया था। पर स्थानीय जनता ने न कभी मस्जिद को आलमगीरी मस्जिद कहा और नाही काशी को मुहम्मदाबाद। उन्होंने मस्जिद को प्राचीन नाम से ही याद रखा जो ज्ञानवापी का दिव्य स्थल था और जिसे ज्ञानवापी कहा जाता था। काशी को भी उन्होंने कभी मुहम्मदाबाद के नाम से संबोधित नहीं किया, और समय आते ही पुनः उसका नाम काशी अथवा वाराणसी कर लिया। औरंगज़ेब का समय आधुनिक है इस कारण से उसके द्वारा किये गए सभी कार्यों के प्रमाणित दस्तावेज प्राप्त हो जाते हैं। उसके द्वारा तोड़े गए मंदिरों के अवशेष आज भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं। आधुनिक समय के कई इतिहासकारों ने नष्ट हुए अवशेषों के चित्र अपनी पुस्तकों में संकलित कर रखें हैं। उस समय के कई विदेशी यात्रियों ने भी अपने संस्मरणों में काशी का उल्लेख किया है।

संदर्भ : –

  • The Holy City (Benares) – Rajani Ranjan Sen
  • Maasir I Alamgiri – Saqi Mustad Khan Translated by Sir Jadunath Sarkar
  • हिंदी विश्वकोष (iv) – श्री नगेन्द्रनाथ वसु
  • The Dynastic History of Northen India – H.C. Ray
  • Downfall of Hindu India – C.V. Vaidya
  • Benares The Sacred City (Sketches of Hindu Life And Religion) – E.B. Havell
  • Benaras The Stronghold Of Hinduism – C. Phillips Cape
  • Descriptive And Historical Account of North-Western Provinces Of India – F.H. Fisher & J.P. Hewett
  • Description Of A View Of The Holy City Of Benares And The Sacred Ganges – Robert Burford
  • Benares Illustrated In A Series Of Drawings – James Prinsep

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Feature Image Credit: wikipedia.org

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