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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार भाग III

क्या सामाजिक स्वास्थ्य प्रत्यक्ष रूप में स्वस्थवृत्त का भाग है अथवा सामाजिक स्वास्थ्य परोक्ष रूप से स्वस्थवृत्त का भाग है?

सत्य यह है कि स्वस्थवृत्त के लक्षणों से युक्त सभी स्वस्थ व्यक्ति मिल कर ही स्वस्थ समाज का निर्माण करते हैं। व्यक्ति तथा समाज – इन दोनों में परस्परावलंबन 3  है तथा यह एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस आवलंबन यानि निर्भरता में सृष्टि भी सम्मिलित है। हमें अपने आपको को स्वस्थ रखने के लिये स्वस्थ सृष्टि की आवश्यकता है (पृथ्वी, जल, वायु, वन/वनस्पति, पशु-सृष्टि आदि)। यदि सृष्टि अस्वस्थ होगी तो हम भी अवस्थ होंगे। सृष्टि की सभी रचना उसके अपने उपयोग के लिये नहीं है, दूसरों के लिये ही है। हमारे लिये सृष्टि का स्वस्थ रहना आवश्यक है।

रुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहि न पान।

 कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।

एक व्यक्ति के लिये स्वास्थ्य की व्यापक व्याख्या है तथा उस स्वास्थ्य के बनने के लिये समाज की आवश्यकता है। जब एक व्यक्ति में ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:’ नहीं रहेगा तो दूसरे में भी नहीं रह पाएगा। यदि एक व्यक्ति में ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:’ रहता है तथा पाँच में ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: नहीं रहता है तो उन पाँच के कारण एक में भी नहीं रह पाएगा। अतः स्वस्थवृत्त के लिये एक दूसरे पर निर्भरता है, परस्परावलंबन है, जिसे सामाजिक स्वास्थ्य कहते हैं।

स्वास्थ्य का एक-दूसरे पर असर होता है। एक वैद्य, एक चिकित्सक यदि अस्वस्थ होगा तो उसका प्रभाव पूरे समाज पर होगा, पूरा समाज स्वस्थ नहीं रह पाएगा। किन्हीं पंद्रह व्यक्तियों का स्वास्थ्य बिगड़ गया तो दूसरे पंद्रह व्यक्ति भी स्वस्थ नहीं रह पाएंगे। एक को संक्रमण हुआ तो दूसरे को भी हो सकता है। ऐसे ही, एक स्वस्थ हो गया तो उसका प्रभाव भी दूसरे पर पड़ सकता है  इसीलिए परस्परावलंबन की उपस्थिति बताई गयी है।

स्वस्थवृत्त व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, स्वास्थ्य का एक-दूसरे पर प्रभाव भी उसी का भाग है जिसे सामाजिक स्वास्थ्य कहा जाता है।  

सामाजिक स्वास्थ्य के लिये व्यक्तिगत स्वास्थ्य के साधन-रूपी समाज का भी स्वस्थ होना आवश्यक है, तभी व्यक्तिगत स्वास्थ्य पूर्ण है। समाज यदि स्वस्थ नहीं है तो व्यक्तिगत स्वास्थ्य पूर्ण नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वास्थ्य कभी भी जा सकता है। मान लें कि एक व्यक्ति क्रोधी है तथा दूसरा व्यक्ति शांत है। एक क्रोधी हो (जो एक प्रकार की अस्वस्थता है) तो दूसरा व्यक्ति प्राय: स्वस्थ नहीं रह सकता। इसे एक आधुनिक उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है – आजकल एक प्रचलित व्यक्तिगत नीति है माय लाइफ माय रूल्ज़,  जिसका तर्क स्वस्थवृत्त से विपरीत है। एक के जीवन से दूसरे बहुतों का जीवन प्रभावित होता है। इस तर्क से किसी भी प्रकार का जीवन व्यतीत करना तथा ये समझना कि ऐसा करने से किसी अन्य को कुछ नहीं होता, ठीक नहीं कहा जा सकता। इसका दूसरा उदाहरण देखें कि एक व्यक्ति पशु-मांस खाता है तो उस आहार को उपलब्ध कराने के लिये अनेक साधन व संसाधन लगते हैं क्यूंकि खाने वाला स्वयं तो पशु का शिकार/आखेट कर के नहीं खाता। इन साधनों का होना या न होना दूसरों को भी प्रभावित करता है, अतः एक व्यक्ति के मांसाहारी होने का अन्य व्यक्तियों पर, पशु सृष्टि पर, प्रकृति पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।

यदि स्वास्थ्य मात्र व्यक्तिगत होता तो मात्र व्यक्ति के स्तर पर बात पूरी हो जाती कि वह जो कुछ भी करे, अन्य व्यक्ति बिना प्रभावित हुए रह जाते।  किन्तु ऐसा नहीं है, इसीलिए स्वास्थ्य मात्र व्यक्तिगत नहीं है।

उदाहरण के लिये यदि कोई योगी जंगल में रह रहा है तो वह अन्य व्यक्तियो के बिना भी स्वस्थ रह सकता है। उसे प्राकृतिक वातावरण के कारण कठिनाई होगी जैसे जंगली पशु आक्रमण कर दे , विषैले जीव, वनस्पति द्वारा उसे हानि हो या कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए। ये दुर्घटना हो सकती हैं पर स्वस्थ रहने के लिये उसकी अन्य व्यक्तियों पर निर्भरता की आवश्यकता अधिक नहीं है क्योंकि ऐसा योगी या सन्यासी एक अपवाद है, वह समाज के साथ नहीं, एकांत में जंगल में रहता है। दूसरी ओर जब हम साधारण व्यक्तियों की बात करते हैं तो सामाजिक स्वास्थ्य की ही प्रधानता है तथा उसका आधार है परस्परावलंबन यानि परस्पर एक-दूसरे पर निर्भरता।

एक व्यक्ति तब तक प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: नहीं हो पाएगा जब तक पूरे समाज का व्यवहार आचार-विचार अनुरूप नहीं होगा। तब तक उसकी शरीर की सभी क्रियायें भी सम नहीं हो पायेंगी। इस अनुरूप वातावरण को बनाना स्वस्थवृत्त का कार्य है।

स्वस्थवृत्त का उल्लेख तथा वर्णन आयुर्वेद के किन ग्रंथों में मिलता है ?

आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त का विचार अनेक कोणों से, अनेक पक्षों से किया गया है, इसलिये उसका उल्लेख भी अनेक स्थान पर किया गया है।  यह किसी एक ग्रंथ तक सीमित नहीं है। भाव प्रकाश में इसे दिनचर्या आदि के द्वारा बताया है। चरक संहिता में सभी स्तरों पर सात्विक आहार-विहार-आचार-विचार से स्वस्थवृत्त की स्थापना बताई गयी है, जैसे किस व्यक्ति को रोग नहीं होंगे अतः वह कैसे स्वस्थ रहेगा। किसी ग्रन्थ में यह बताया गया है कि आचरण कैसा होना चाहिए, दिन-रात्रि आदि का विचार कैसे होना चाहिए। इस प्रकार किस तरह से शरीर का, मन का स्वास्थ्य बनाए रखना चाहिए ऐसा अनेक ग्रंथों में बताया गया है।  चरक संहिता के ‘जनपदोध्वंस व्याधियाँ’ अध्याय में सामाजिक स्वास्थ्य क्या होता है, यह बताया गया है। जल, वायु, देश, काल – इन चार तत्वों को लेकर बताया गया है कि जब ये बिगड़ते हैं तो जनपदोध्वंस होता है, अर्थात बड़ी संख्या में लोगों के स्वास्थ्य की तथा प्राणों की हानि होती है। वर्तमान में कोरोना, १९१८ में फैला स्पैनिश प्लेग तथा १९४३ का बंगाल का अकाल, महामारी (pandemics/epidemics) कहे जाने वाले ही जनपदोध्वंस हैं।

इसी प्रकार विभिन्न ग्रंथों में सामाजिक स्वास्थ्य तथा व्यक्तिगत स्वास्थ्य को जोड़ा गया है। इसका विवरण निम्नलिखित स्थानों व ग्रंथों में स्पष्ट रूप में मिलता है:

  • चरक संहिता – सूत्रस्थान, शरीरस्थान
  • भाव प्रकाश – पूर्व खंड – दिनचर्यादि प्रकरण
  • सुश्रुत संहिता – चिकित्सास्थान, उत्तरतंत्रम्
  • डलहनाचार्य की सुश्रुत व्याख्या
  • अष्टांग हृदयम्  – दिनचर्या विभाग
  • पतंजलि योगसूत्र – साधनापाद
  • महाभारत – अनुशासन पर्व

इसके अतिरक्त भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में आहार व आचरण से सात्विक, राजसिक व तामासिक प्रकृति द्वारा व्यक्तिगत व सामाजिक स्वास्थ्य के बारें में परोक्ष रूप से बताया गया है। अन्य भी अनेक स्थानों में इसका प्रत्यक्ष व परोक्ष उल्लेख मिलता है।

सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं।

Image credit: istockphoto.com

 

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