close logo

युधिष्ठिर – सार्वभौम दिग्विजयी हिन्दूराष्ट्र निर्माता सम्राट भाग- ३

कृपया इस श्रृंखला का पिछला भाग “युधिष्ठिर – सार्वभौम दिग्विजयी हिन्दूराष्ट्र निर्माता सम्राट भाग – २ ”  पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 

अफगानिस्तान से लेकर जावा द्वीप तक पांडवों का चरणचिह्न बिखरा हुआ है। महाराज युधिष्ठर ने सम्राट होते हुए, जन जन जाति जाति राजा राजा को जोड़ते हुए, स्वयं कांटों पर पैदल चलकर सम्पूर्ण भारत का न भूतो न भविष्यति दिग्विजय किया था। उन्होंने भारत भर के एक एक तीर्थ का दौरा किया था और भारत के रोम रोम को आत्मसात् किया था। आज ही प्रायः एक भी तीर्थ ऐसा नहीं है जहाँ पाण्डवों का बनाया मन्दिर, कुण्ड या उनसे सम्बंधित कोई स्थान न हो। उन्होंने मात्र पूर्ववाहिनी 500 नदियों में स्नान किया था अन्य नदियों की संख्या की गिनती ही क्या। प्रत्येक तीर्थ में यज्ञ और तर्पण कर सारे भारत में वैदिकी मर्यादा को अखण्ड बनाया था। अन्य राजा राजविलास में मस्त थे, एक राजर्षि युधिष्ठिर गांव गांव वन वन के पीड़ित भारतवासियों का आशाकेन्द्र बना हुआ था। वह पाप, अधर्म, रक्तपात, दुःख से स्वयं डरता था, पर अन्यों के जीवन से यह मिटाने के लिए स्वयं दीपक बन जला करता था।

देवानां प्रियदर्शी एक ही सम्राट हुआ था, समस्त विश्व की सत्ता ने चक्रवर्ती युधिष्ठिर के आगे अपना मस्तक झुका दिया था, इनकी सदाशयता से इनके शत्रु लज्जित हुआ करते थे। इन्हीं का पुरुषार्थ भारतीय इतिहास का केंद्रबिंदु बना था और है। वनगमन के समय प्रजा युधिष्ठिर के पीछे अन्न धन की चिन्ता छोड़ वैसे ही चली थी जैसे श्रीराम के वनगमन के समय, तब युधिष्ठिर जैसे साम्राज्यप्रतिपालक ने उनके पालन पोषण हेतु सूर्य उपासना कर अक्षयपात्र प्राप्त किया था। क्योंकि ब्राह्मणों का वचन था दुर्योधन की अथाह पृथ्वी भी न के बराबर है हम युधिष्ठिर के साथ बिना अन्न के भी रह लेंगे। यही श्रीराम के लिए कहा गया जहाँ श्रीराम रहेंगे वह वन भी राज्य हो जाएगा जहाँ न हों तो राज्य भी जंगल हो जाएगा।

महर्षि वेदव्यास ने युधिष्ठिर को दिव्य वेदोक्त प्रतिस्मृति विद्या प्रदान की थी, इस विद्या से सारा जगत एकसाथ दिख जाता था। सिद्ध करने पर युधिष्ठिर ने इस विद्या की दीक्षा अर्जुन को दी और अर्जुन के गुरु भी बन गए और अर्जुन भीम आदि को विभिन्न विद्याओं, दिव्यास्त्रों-शस्त्रों का शक्तिसंचयन करने भेजा। यक्षप्रश्न में इनकी विद्वता, सौतेली माँ के पुत्र का जीवन मानना, कुत्ते के लिए स्वर्गत्याग करना आदि तो सर्वविदित है। सम्राट युधिष्ठिर विश्व के अकेले व्यक्तित्व थे जिनपर शत्रुपक्ष के सेनापति को विश्वास था और कहा, यदि धर्मराज कह दें कि अश्वत्थामा मर गया तो मैं मान लूँगा।” विश्व में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता। सत्य के प्रभाव से धर्मराज का रथ धरती से चार अंगुल ऊंचा चला करता था, जो एकमात्र अर्धसत्य के कारण झुक गया।

धर्मराज के आगे श्रीकृष्ण भी सिर झुकाया करते थे, वे हमेशा युधिष्ठिर को प्रणाम किया करते थे, युधिष्ठिर के धर्मतत्व का वे हमेशा समर्थन किया करते थे, संसार में श्रीकृष्ण युधिष्ठिर की सबसे अधिक प्रशंसा किया करते थे। वनवास में शौनक, धौम्य, लोमश, व्यास, मार्कण्डेय आदि ऋषि मुनि आकर युधिष्ठिर जी से धर्म की चर्चा किया करते थे। ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण वन में भी सदा राजर्षि युधिष्ठिर का अनुसरण किया करते थे। महर्षि जनक की राजर्षि कोटि के हैं श्री युधिष्ठिर। पांडव भी श्रीकृष्ण को पूर्ण ब्रह्म मानकर उनके लिए जान न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। पाण्डव अपने बल शौर्य विद्या का रंचमात्र भी अभिमान नहीं करते थे, हर जगह खुलेरूप में कहा करते थे, “करते हो तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है।”

गीता में भगवान ने अर्जुन को ‘इष्टोsसि मे’ (18.64) कहकर अत्यन्त प्रिय कहा है और ‘प्रीयमाणाय’ (10.1) कहकर अर्जुन का सबसे प्रिय स्वयं को बताया है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को 13 बार महाबाहो और 8 बार परन्तप कहा है। अन्त में गीता कहती है “यत्र योगेश्वरो कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।” अर्थात् श्री, विजय, विभूति और नीति वहीं हैं जहाँ कृष्ण भी हों और अर्जुन भी। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। पांडव हम सबमें हैं, उनके असमंजस, उनके संशय, उनकी समस्या सबकी व्यक्तिगत समस्या है, उनका संघर्ष सबका आंतरिक युद्ध है। तभी अर्जुन के माध्यम से भगवान् ने गीता उपदेश दिया। सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में एक भी सन्त ऋषि आदि ने पाण्डवों की निन्दा नहीं की है।

संसार में धवल से धवल चरित्र पंक से प्रतिहत किया गया है। स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम को भी नहीं छोड़ा गया है फिर युधिष्ठिर की बात ही क्या। इन सबके बीच एक ही है जो कीचड़ उछालने पर भी कमलवत निर्मल ही रहता है, जो परस्पर विरुद्ध धर्मों को आश्रय देता है, पर उन दोनों से अतीत है, इसलिए धर्म अधर्म के भ्रमपूर्ण बुद्धिविलास से पृथक रहता है क्योंकि वह तो कथित अधर्म के सन्निवेश से भी धर्म के तत्त्व को प्रकट कर देता है, तब सारे धर्मी अधर्मी चकित होकर उसके आगे लोट लगाने लगते हैं, इसलिए उसने धवल होने की लोकव्यंजनाओं से स्वयं को पृथक कर लिया है, और स्वयं को नाम से ही “कृष्ण” घोषित कर दिया है। अब चाहे अपनी “श्वेत” धारणाओं का कितना ही कलुष उसपर क्यों न उछालो उसका स्वयंप्रकाश “कृष्णत्व” अस्पर्श ही रहता है, क्योंकि दूसरे का प्रकाश तो कृत्रिम व परिच्छिन्न है, पर उसका कालिमा रूपी अंधकार सूक्ष्मतम, प्राकृतिक और सर्वत्र अनुस्यूत परमकारण है। वही “कृष्ण”…

Feature Image Credit: wikipedia.org

Disclaimer: The opinions expressed in this article belong to the author. Indic Today is neither responsible nor liable for the accuracy, completeness, suitability, or validity of any information in the article.