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युधिष्ठिर – सार्वभौम दिग्विजयी हिन्दूराष्ट्र निर्माता सम्राट भाग- १

वर्तमान में हमें महाभारत के सम्माननीय व्यक्तित्वों जैसे कि महाराज युधिष्ठिर व अन्य पाण्डवों पर विवाद देखने को मिलता है, उनके सामर्थ्य व उनके गुणों पर शंका की जाती है, तो हमें महाभारत में ही देखना चाहिए कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव स्वयं से भी शक्तिशाली या धर्मपुंज थे अथवा आधुनिक प्रचार अनुसार मात्र श्रीकृष्ण की दया पर ही लंबित थे क्योंकि ऋषि बार बार उनको धर्मराज कह रहे तब उनका वचन मिथ्या नहीं हो सकता। अध्यात्मपक्ष में निश्चित रूप पाण्डव क्या सब कृष्ण के लंबित है पर यहाँ पांडवों का भौतिक जगत में स्वयंबल भी देखना चाहिए। युधिष्ठिर समेत सभी पांडव देवताओं के अंश थे। भगवान् श्रीकृष्ण मूर्ख नहीं थे जो पाण्डवों के पक्ष में रहा करते थे। जिसके पक्ष में कृष्ण खड़ा हो जाए उसकी हस्ती कितनी विराट होगी।

पूरी महाभारत में महाराज युधिष्ठिर की महानता के हज़ारों प्रसङ्ग हैं। पांडवों को नीचा दिखाकर कृष्ण की महानता नहीं हो सकती है। स्वयं हस्तिनापुर की प्रजा युधिष्ठिर को हृदय से राजा बनाना चाहती थी। (आ.प.अ-140) में उल्लेख है कि हस्तिनापुर की प्रजा हर सभा, चौराहे पर इकट्ठी होती तो युधिष्ठिर के सत्य, दया, विद्या, गुणों की प्रशंसा कर उन्हें राजा बनाने की कसमें खाया करती थी। यह सुन जलाभुना दुर्योधन धृतराष्ट्र से शिकायत करने भाग गया था।

भारतीय इतिहास में युधिष्ठिर की विश्वविजय ही भारत के इतिहास की यथार्थ केन्द्रबिन्दु है। राजसूय यज्ञ से पहले युधिष्ठिर के निर्देश से पाण्डवों ने पूरे भूमण्डल की दिग्विजय अपने शौर्य से की थी।

अर्जुन ने उत्तर दिशा में पुलिन्द, कालकूट, आनर्त्त, प्रतिविन्ध्य, शाकलद्वीप, प्राग्ज्योतिषपुर, किरात, चीन (वर्तमान चीन), समुद्री टापुओं के म्लेच्छों, त्रिगिरि, उलूक, वृहन्त, पौरव, काश्मीर, पर्वतीय लुटेरों, त्रिगर्त, कोकनद, चोल, वाह्लीक, कम्बोज, ईशानकोण के डाकुओं समेत उत्तर के समस्त देशों, राजाओं, लुटेरों को भयंकर युद्ध में परास्त किया और राजग्रहण मोक्षानुग्रह, करदानाज्ञाकरण प्रणामागमन की नीति लागू कर उन्हें हरा उन्हें ही पुनः बिठाकर टैक्स हासिल किया था।

भीम ने पूर्व दिशा में जाकर पांचाल अहिच्छत्र, दशार्ण, कोसल, काशी, मत्स्य, मलद, वत्स, भर्गों, निषादों, मल्ल, शर्म, वर्म, शकों, बर्बरों, किरातों, दण्डकों, व अंगराज कर्ण को पराजित किया, समुद्र के सब म्लेच्छों पर अपनी नीति और पराक्रम से विजय प्राप्त कर उन्हें अधीन किया।

सहदेव ने दक्षिण में भोज, पांड्य, माहिष्मती, द्रविड़, केरल, आन्ध्र, यवन, कालमुख राक्षसों, कोलगिरी, मलेछों, निषादों व लंका को अपने बुद्धि, रण एवं चातुर्य से वश में किया था।

नकुल ने पश्चिम में मारवाड़, शिवि, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, मालव, आभीर, पंजाब, राहठ, शक, हूण, म्लेच्छ, किरात, यवन, बर्बरों को अपने अधीन किया था।

इस प्रकार जब पाण्डवों के युद्धकौशल, नीति, शौर्य के आगे चार दिशाओं के सब राजाओं ने अपना मस्तक झुका दिया तब पृथ्वी से समुद्र पर्यन्त एकराट् सम्राट राजसिंह धर्मराज युधिष्ठिर ने हिन्दूराष्ट्र की स्थापना की थी, इसीलिए सारे विधर्मी अधर्मियों के हृदय राजा युधिष्ठिर की कीर्ति देख विदीर्ण हुआ करते थे। जब सार्वभौम चक्रवर्तित्व की शपथ हेतु राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया तब एक एक राजा प्रसन्नता अथवा विवशतावश इनके लिए उपहार लेकर आया था। इनके उदार शासन में एक भी मनुष्य दुःखी नहीं होता था इसलिए प्रजाजन लोकहितकारी रामराज्य का आनन्द मनाया करते थे।

सम्राट युधिष्ठिर को मिली भेंट और उनकी साम्राज्यलक्ष्मी से विदीर्ण दुर्योधन दो दो अध्यायों में धृतराष्ट्र को रोकर सुनाता हुआ कहता है, “न रन्तिदेव, न नाभाग, न मनु, न पृथु, न भगीरथ, न ययाति, न नहुष ही ऐसे एश्वर्यसम्पन्न सम्राट थे जैसे आज युधिष्ठिर हैं, यह सब देख मेरा जीवित रहना व्यर्थ है।” (म.भा. स.प. अ-53)

उस सम्राट युधिष्ठिर की हस्ती का अनुमान लगाइए अब जिनके आगे सारे विश्व ने सर झुका दिया था, सेनापति, मंत्री आदि कितने ही योग्य क्यों न हों, यदि सम्राट निस्तेज हो तो यह सब हीन होते हैं। इन्हीं युधिष्ठिर को महाभारत में धर्मपुत्र, धर्मराज, धर्मात्मा, धर्मवत्सल, नित्यधर्मा, महाप्राज्ञ, महाबाहो, महामना, परन्तप, पुरुषव्याघ्र, राजशार्दूल, भरतभूषण आदि शताधिक विशेषणों से उस समय के सर्वोच्च राजा, भगवान्, ऋषियों से लेकर ग्रामीण आबालवृद्ध द्वारा विभूषित किया गया था।

अधर्म के पक्ष में रहने वाले व हीनभावना के शिकार ईर्ष्यालु कर्ण को केवल अर्जुन ने दर्जनों बार पराजित किया था। उसके पश्चात कर्ण भीम, युधिष्ठिर, सात्यकि आदि से वह कितनी बार पराजित होकर मुँह छूपाए घूमा करता था इसके अमिट लेख महाभारत में भरे पड़े हैं। कर्ण की कथित दिग्विजय भी मात्र वनवास में भेज दिए गए पांडवों की अनुपस्थिति में उनके ही द्वारा पूर्व में ही विजित राज्यों का प्रतिग्रहण मात्र थी। जैसा कि ऊपर बता आए हैं सम्पूर्ण विश्व को पाण्डव पहले ही अपने अधिकार में कर चक्रवर्ती की उपाधि धारण कर चुके थे।

HinduRastra Nirmata Yudhishthira

Feature Image Credit: wikipedia.org

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